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चैतन्यके बाहर किसी प्रवृत्तिमें कहीं सुख है ही नहीं। मात्माके मुक स्वमायक अनुभवमें सुख है। सम्यग्दृष्टिने ऐसी भात्माका निश्चय किया है, उसके सुखका स्वाद वखा है। और जो उम्र अनुभव द्वारा मोक्षको साक्षात् साध रहे हैं ऐसे मुनिके प्रति अत्यन्त उल्लाससे और भक्तिसे बह आहारदान देता है।
आनन्दस्वरूप प्रात्मामें श्रद्धा-भान-स्थिरता मोक्षका कारण है और बीचके प्रतादि शुभपरिणाम पुण्यबन्धके कारण हैं। आत्माके आनन्दसागरको उछालकर उसमें जो मग्न हैं ऐसे नममुनि रत्नत्रयको साध रहे हैं, उसके निमित्तरूप देह है और देहके टिकानेका कारण आहार है, इसलिये जिसने भक्तिसे मुनिको आहार दिया उसने मोक्षमार्ग दिया, अर्थात् उसके भाषमें मोक्षमार्ग टिकानेका आदर हुआ। इस प्रका भक्तिसे आहारदान देने वाला धावक इस दुःषमकालमें मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिका कारण है । ऐसा समझकर धर्मात्मा श्रावकको मुनि आदि सत्पात्रको रोज भक्तिसे दान देना चाहिये। अहो, मेरे घर कोई धर्मात्मा संत पधारें, शान-ध्यानमें अतीन्द्रिय आनन्दका भोजन करनेवाले कोई संत मेरे घर पधारें, तो भक्तिसे उन्हें भोजन कराकर पीछे मैं भोजन करूँ। ऐसा भाव गृहस्थ-श्रावकको रोज-रोज आता है। ऋषभदेवक जीवने पूर्षके आठवें भवमें मुनिवरोंको परमभक्तिसे आहारदान दिया था, और तिर्यचोंने भी उसका अनुमोदन करके उत्तमफल प्राप्त किया था, यह बात पुराणोंमें प्रसिब है। श्रेयांसकुमारने आदिनाथ मुनिराजको आहारदान दिया था, चन्दना सतीने महाधीर मुनिराजको आहारदान दिया। ये सब प्रसंग प्रसिद्ध हैं।
इस प्रकार चार प्रकारके दानमेंसे आहारदानकी चर्चा की, अब दूसरे औषधिदानका उपदेश देते हैं।