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भावधर्म-प्रकाश]
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गृहस्थपना दानसे ही शोभता है
धर्मको प्रभावना आदिके लिये दान करनेका प्रसंग आवे वहाँ धर्मके प्रेमी जीवका हृदय झनझनाता हुआ उदारतासे उछल जाता है कि-अहो, ऐसे उत्तम कार्यके लिये जितना धन खर्च किया जाये उतना सफल है। जो धन अपने हितके लिये काम न आवे और पन्धनका ही कारण हो-वह धन किस कामका ? -ऐसे धनसे धनवानपना कौन कहे ? सचा धनवान तो वह है कि जो उदारतापूर्वक धर्मकार्यों में अपनी लक्ष्मी खच करता है।
भावकके हमेशाके जो छह कर्तव्य हैं, उनमेंसे दानका यह वर्णन बल सा है
दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोधोतिका नैव स्यान्ननु तहिना धनवतो लोकवयध्वंसकृत् । दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते तन्नाशाय शशांकशुभ्रयशसे दानं न चान्यत्परम् ॥१४॥
धनवान मनुष्योंका गृहस्थपना दान द्वारा ही लाभदायक है, तथा दान द्वारा ही इसलोक और परलोक दोनोंका उद्योत होता है, दानरहित गृहस्थपना तो दोनों लोकोंका ध्वंस करनेवाला है। गृहस्थको सैकड़ों प्रकारके दुर्व्यापारले जो पाप होता है उसका नाश दान द्वारा ही होता है और दान द्वारा चन्द्रसमान उज्ज्वल यश प्राप्त होता है। इस प्रकार पापका नाश और यशकी प्राप्तिके लिये गृहस्थको सत्पात्रदानके समान अन्य कुछ नहीं । इसलिये अपना हित चाहनेवाले गृहस्थोंको दान द्वारा गृहस्थपना सफल करना चाहिये ।