Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 103
________________ भावधर्म-प्रकाश तो मुझे पापबन्धका कारण है; और धर्म प्रसंगमें, धर्मात्माके गुमान मादिक लिये जो करूँ वह पुण्यका कारण है, और उसके फलस्वरूप परलोकमें पेसो सम्पदा मिलेगी । परन्तु धर्मात्मा तो इस सम्पदाको भी छोड़कर, मुनि होकर, रागरहित ऐसे केवलझानको साधकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इस प्रकार तीनोंका विवेक करके धर्मी जोष जहाँ तक मुनिदशा न हो सके वहाँ तक गृहस्थ अवस्थामें पापसे बचकर दानादि शुभकार्यों में प्रवर्तता है। श्रो पननन्दि स्वामीने दानका विशेष रूपसे अलग अधिकार भी वर्णन किया है। ( उसके ऊपर भी अनेक बार प्रवचन हो गया है) भाई ! स्त्री मादिके लिये तू जो धन खर्च करता है वह तो व्यर्थ है, पुत्र-पुत्रीके लग्न आदिमें पागल होकर धन खर्च करता है वह तो व्यर्थ है, मात्र व्यर्थ ही नहीं परन्तु उलटे पापका कारण है। उसके बदले हे भाई! जिनमंदिरके लिये, वीतरागी शालोंके लिये तथा धर्मात्मा-श्रावक-साधर्मी आदि सुपात्रोंके लिये तेरी लक्ष्मी खर्च हो वह धन्य है! लक्ष्मी तो एक जड़ है, परन्तु उसके दानका जो भाव है वह धन्य है-ऐसा समझना, क्योंकि सत्कार्यमें जो लक्ष्मी खर्च हुई उसका फल अनन्तगुना मावेगा। इसकी इष्टिमें धर्मकी प्रभावनाका भाव है अर्थात् आराधकभावसे पुण्यका रस अनन्तगुना बढ़ जाता है। नव प्रकारके देव कहे है-पंच परमेष्ठी, जिनमंदिर, जिनबिम्ब, जिनवाणी और जिनधर्म, इन नौ प्रकारके देवोंके प्रति धर्मीको भक्तिका उल्लास भाता है। जो जीव पापकार्यों में तो धन उत्साहसे खर्च करता है और धर्मकार्योंमें कंजूसी करता है, तो उस जीवको धर्मका सच्चा प्रेम नहीं, धर्मकी अपेक्षा संसारका प्रेम उसे अधिक है। धर्मका प्रेमवाला गृहस्थ अपनी लक्ष्मी संसारकी मपेक्षा अधिक उत्साहसे धर्मकार्यों में खर्च करता है। मरे, चैतन्यको साधने के लिये जहाँ सर्पसंगपरित्यागी मुनि दोनेकी भावना हो, वहाँ लक्ष्मीका मोह न घटे यह कैसे बने ? लक्ष्मीमें, भोगामें अथवा शरीरमें धर्मीको सुखबुद्धि नहीं होती। आत्मीय सुख जिसने देखा है अर्थात् विशेष सुखोंकी तृष्णा जिसे नष्ट हो गई है। जिसमें सुख नहीं उसकी भावना कौन करे? इस प्रकार धर्मात्माके परिणाम अत्यन्त कोमल होते हैं, तीव्र पापभाव उसे होता नहीं। लोभियोंके हेतु कौवेका उदाहरण शास्त्रकारने दिया है। जली हुई रसोईकी खुरचन मिले वहाँ कौवा कवि-काव करता रहता है, वहीं अलंकारसे भाचार्य बताते है कि मरे, यह कौवा भी कांव-काव करता हुवा अन्य कौवोंको इकट्ठा करके बाता.है, मौर तू राग द्वारा तेरे गुण जले तब पुण्य अंधा और उसके फलमें यह लक्ष्मी मिली,

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