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[ भाषकर्म-प्रकार जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक शुद्धोपयोग द्वारा केवलज्ञानके कपाट खोल रहे हैं ऐसे मुनिराज शरीरसे भी अत्यन्त उदासीन होते हैं, वे वन-जंगलमें रहते हैं, ठंडमें ओढ़ना अथवा गर्मी में स्नान करना उन्हें नहीं होता, रोगादि होवे तो भी औषधि नहीं लेते, दिनमें एक बार आहार लेते हैं, उसमें भी कोई बार ठंडा माहार मिलता है, कोई समय भरगर्मीमें गरम आहार मिलता है, इस प्रकार इच्छानुसार उनको आहार नहीं मिलता, अतः मुनिको कई बार रोग-निर्बलता मादि हो जाती है, परन्तु ऐसे प्रसंगमें धर्मात्मा उत्तम श्रावक मुनिका ध्यान रखते हैं, उनको रोग वगैरह हुआ हो तो उसे जानकर, आहारके समय आहारके साथ निर्दोष औषधि भी देते हैं, तथा ऋतु अनुसार योग्य आहार देते हैं । इस प्रकार भक्तिपूर्वक भाषक मुनिका ध्यान रखते हैं । यहाँ उत्कृष्टरूपसे मुनिकी बात ली है। इससे यह न समझना कि मुनिको छोड़कर अन्य जीवोंको आहार अथवा औषधदान देनेका निषेध है। श्रावक अन्य जीवोंको भी उनकी भूमिकाके योग्य आदरसे अथवा करणाबुद्धिसे योग्य दान देवे। परन्तु धर्मप्रसंगकी मुख्यता है, वहाँ धर्मात्माको देखते ही विशेष उल्लास आता है। मुनि उत्तम पात्र है इस कारण उसकी मुख्यता है।
अहो, मुनिदशा क्या है-उसकी जगतको खबर नहीं। छोटा-सा राजकुमार हो और मुनि होकर चैतन्यको साधता हो, चैतन्यके अतीन्द्रिय आनन्दका प्रचुर स्वसंवेदन जिसको प्रगट हुआ हो ऐसा मुनि देहसे तो अत्यन्त उदासीन हैं।
सर्व भावयी औदासिन्य वृत्ति करी,
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो । चाहे जितनी ठंड हो परन्तु देह सिवाय अन्य परिग्रह जिसे नहीं; बाह्यरष्टिवाले जीवोंको लगता है कि ऐसा मुनि बहुत दुःखी होगा। अरे भाई, उनके अन्तरमें तो आनन्दकी धारायें बहती हैं, कि जिस आनन्दकी कल्पना भी तुझे नहीं आ सकती। बैतन्यके इस आनन्दकी अभिलाषामें ठंड-गर्मीका लक्ष्य ही कहाँ है ? जिस प्रकार मध्यविन्दुसे सागर उछलता है उसी प्रकार चैतन्यके अन्तरके मध्यमेंसे मुनिको मानन्दकी लहरें उछलती है । ऐसे मुनिको रोगादि होवे तो भक्तिपूर्वक ध्यान रखकर उत्तम गृहस्थ पथ्य आहारके साथ योग्य औषधि भी देते है इसका नाम साधु वैयावृत्य है, वह गुरुभक्तिका एक प्रकार है। श्रावकके कर्तव्यमें पहले देवपूजा कही और दूसरी गुरु-उपासना कही, उसमें इस प्रकारके भाव भावकको होते हैं। मुनि स्वयं तो बोलते नहीं कि मुझे ऐसा रोग हुआ है, अतः ऐसी खुराक अथवा ऐसी दवा दो, परन्तु भक्तिवान भाषक इसका ध्यान रखता है।