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[भावकधर्म-प्रकाश देखो तो, आजकल तो जीवोंको पैसा कमानेके लिये कितना पाप और झूठ करना पड़ता है। समुद्रपारके देशमें जाकर अनेक प्रकारके अपमान सहन करे, सरकार पैसा ले लेगी ऐसा दिन-रात भयभीत रहा करे, इस प्रकार पैसेके लिये कितना कष्ट सहन करता है और कितने पाप करता है? इसके लिये अपना बहुमूल्य जीवन भी नष्ट कर देता है, पुत्रादिका भी वियोग सहन करता है, इस प्रकार वह जीवनकी अपेक्षा और पुत्रकी अपेक्षा धनको प्यारा गिनता है। तो आचार्यदेव कहते है कि-भाई, ऐसा प्यारा धन, जिसके लिये तूने कितने पाप किये, उस धनका सञ्चा-उत्तम उपयोग क्या ? इसका विचार कर। स्त्री-पुत्रके लिये अथवा विषयभोगोंके लिये तू जितना धन खर्च करेगा, उसमें तो उलटे तुझे पापबन्ध होगा। इसलिये लक्ष्मीकी सच्ची गति यह है कि राग घटाकर देव-गुरु-धर्मकी प्रभावना, पूजा-भक्ति, शास्त्रप्रचार, दान आदि उत्तम कार्यों में उसका उपयोग करना ।
प्रश्नः-बच्चोंके लिये कुछ न रखना ?
उत्तरः-भाई, जो तेरा पुत्र सुपुत्र और पुण्यवंत होगा तो वह तुझसे सवाया धन प्राप्त करेगा; और जो घह पुत्र कुपुत्र होगा तो तेरी इकट्ठी की हुई सब लक्ष्मीको भोग-विलासमें नष्ट कर देगा, और पापमार्गमें उपयोग करके तेरे धनको धूल कर डालेगा, तो अब तुझे संचय किसके लिये करना है ? पुत्रका नाम लेकर तुझे अपने लोभका पोषण करना हो तो जुदी बात है ! अन्यथा
पूत सपूत तो क्यों धन संचय ?
पूत कपूत तो क्यों धन संचय ! इसलिये, लोभादि पापके कुएँ से तेरी आत्माका रक्षण हो ऐसा कर; लक्ष्मीके रक्षणकी ममता छोड़ और दानादि द्वारा तेरी तृष्णाको घटा। वीतरागी सन्तोंको तो तेरे पाससे कुछ नहीं चाहिये। परन्तु जिसे पूर्ण राग-रहित स्वभावकी रुचि उत्पन्न हुई, वीतरागस्वभावकी तरफ जिसका परिणमन लगा उसको राग घटे विना नहीं आता। किसीके कहनेसे नहीं परन्तु अपने सहज परिणामसे ही मुमुक्षुको राग घट जाता है।
इस सम्बन्धमें धर्मी गृहस्थको कैसे विचार होते है ? समन्तभद्रस्वामी रत्नकर:श्रावकाचारमें कहते हैं कि
यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । अथ पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ २७ ॥