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भावकधर्म-प्रकाश ]
...........[१३].............. अनेक प्रकार पापोंसे बचनेके लिये गृहस्थ दान करे।
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899g अहा, जिसे सर्वज्ञके धर्मको महिमा आई है, अन्तरदृष्टिसे प्रास्माके. धर्मको जो साधता है. महिमापूर्वक वीतरागभावमें जो आगे बढ़ता है, और तीव्र राग घटनेसे जिसे श्रावकपना हुआ है--उस श्रावकके भाव कसे हों उसकी यह बात है। सर्वार्थसिद्धिके देवको अपेक्षा जिसकी पदवी ऊँची, और स्वर्गके इन्द्रकी अपेक्षा जिसे आत्मसुख अधिक
ऐसी श्रावकदशा है। वह श्रावक भी हमेशा दान करता है। मात्र - लक्ष्मीको लोलुपतामें, पापभावमें जीवन बिता दे और भात्माकी
कोई जिज्ञासा न करे-ऐसा जीवन धर्मीका अथवा जिशामुका नहीं होता। RETREKKEE
ASE गृहस्थको दानकी प्रधानताका उपदेश देते हैं
कृत्वाऽकार्यशतानि पापबहुलान्याश्रित्य खेदं पर भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमती दुःखेनयच्चार्जितम् । तत्पुत्रादपि जीवितादपि धन मियोऽस्य पन्या शुभो
दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्सद्गति ॥ १३॥ जीवोंको पुत्रकी अपेक्षा और अपने जीवनकी अपेक्षा धन अधिक प्यारा है। पापसे भरे हुए सैकड़ों अकार्य करके, समुद्र, पर्वत और पृथ्वीमें भ्रमण करके तथा अनेक प्रकारके कपसे महा खेद भोगकर दुःखसे जो धन प्राप्त करता है, वह धन जीवोंको पुत्रकी अपेक्षा और जीवनकी अपेक्षा भी अधिक प्यारा है, ऐसे धनका उपयोग करनेका शुभमार्ग एक दान ही है, इसके सिवाय धन खर्च करनेका कोई उत्तम मार्ग नहीं। इसलिये आवार्यदेव कहते हैं कि अहो, भव्य जीवो! तुम ऐसा दान करो।
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