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[ श्रावकधर्म-प्रकाश माने, उनका दान या प्रचार नहीं करे । अनेकान्तमय सत्शास्त्रको पहचानकर उनका ही दानादि करे ।
संयोगकी और अशुद्धताको रुचि छोड़कर, अपने चिदानन्दस्वभावकी दृष्टिरुचि-प्रीति करना वह सम्यग्दर्शन है, वह धर्मकी पहली वस्तु है, उसके बिना पुण्य बंधता है परन्तु कल्याण नहीं होता, मोक्षमार्ग नहीं होता। पुण्यकी रुचिमें रुका, पुण्यके विकल्पमें कर्तृत्वबुद्धिसे तन्मय होकर रुका उसे पुण्यके साथ-साथ मिथ्यात्वका पाप भी बैंधता है। पंडित श्री टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशकके छठे अध्यायमें कहते हैं कि-"जैनधर्ममें तो ऐसी आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर पोछे छोटा पाप छुड़ानेमें आता है। इसलिये इस मिथ्यात्वको सान व्यसनादिसे भी महान पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिये जो पापके फलसे डरता हो, और निजके आत्माको दुःखसमुद्र में हुबाना न चाहता हो वह जीव इस मिथ्यात्व-पापको अवश्य छोडे । निन्दा-प्रशंसा आदिके विचारसे भो शिथिल होना योग्य नहीं।"
___ कोई कहे कि सम्यक्त्व तो बहुत ऊँची भूमिकामें होता है, पहले तो बत-संयम होना चाहिये, तो उसे जिनमतके क्रमकी खबर नहीं। “जिनमतमें तो ऐसी परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व हो, पीछे व्रत हो।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ट २९.५) "मुनिपद लेनेका क्रम तो यह है कि पहले तत्त्वज्ञान हो, पीछे उदासीन परिणाम हो, परीषहादि सहन करने की शक्ति हो और वह स्वयंकी प्रेरणासे ही मुनि होना चाहे, तब श्रीगुरु उसे मुनिधर्म अंगीकार करावें । परन्तु यह तो किस प्रकारकी विपरीतता है कि तत्त्वज्ञानरहित और विषयासक्त जीवको माया द्वारा अथवा लोभ बताकर मुनिपर देकर, पीछेसे अन्यथा प्रवृत्ति करानी! यह तो बड़ा अन्याय है।"-दो सौ वर्ष पूर्व पंडित टोडरमलजीका यह कथन है।
बन्धके पाँच कारणों में मिथ्यात्व सबसे मुख्य कारण है। मिथ्यात्व छोड़े बिना अव्रत अथवा कषाय आदि नहीं छूटते । मिथ्यात्व छूटते ही अनन्त बम्धन एक क्षणमें टूट जाते हैं। जिसे अभी मिथ्यात्व छोड़ने की तो इच्छा नहीं उसे अवत कहाँसे छुटेंगे? और व्रत कहाँसे आवेंगे? आत्मा क्या है उसकी जिसे खबर नहीं यह किसमें स्थिर रहकर व्रत करेगा ? चिदानन्द स्वरूपका अनुगव होनेके पश्चात् उसमें कुछ विशेष स्थिरता करते हैं, तब दो कपायोंकी चौकड़ीके अभावरूप पंचमगुणस्थान प्रगट होता है और उसे सच्चे व्रत होते हैं। ऐसे भाषकधर्मके उद्योतका यह अधिकार है।
सम्यग्दर्शन बिना पलेश (आनन्द नहीं पर क्लेश) सहन करके मर जाय तो भी भष घटनेके नहीं। समयसार कलश टीका, पृष्ट १२६ में पंडित राजमलधी