________________
भावकधर्म-प्रकाश ]
धर्मी जीव अपनी आत्मामें जिस प्रकार सम्यग्दर्शनादि द्वारा दुःख दूर करनेका उपाय करता है उसी प्रकार अन्य जीवोंको भी दुःख न हो, उनका दुःख मिटे, ऐसे करुणाके भाव उसे होते हैं । जीवदया भी जिसे न हो उसका तो एक भी दान सच्चा नहीं होता । किसी जीवको मारनेकी अथवा दुःख देनेकी वृत्ति धर्मीको नहीं होती, सब जीवोंके प्रति करुणा होती है । दुःखी जीवोंके प्रति करुणापूर्वक पात्रअनुसार आहार, औषध अथवा ज्ञान आदि देकर उसका भय मिटाता है । देखो, ऐसे करुणाके परिणाम श्रावकको सहज ही होते हैं।
३० ]
सबा अभयदान तो उसे कहते हैं कि जिससे भवभ्रमणका दुःख टले और आत्मा निर्भयरूपसे सिद्धके पत्थकी ओर अग्रसर हो ! अज्ञान और मिथ्यात्व ही जीवके लिये सबसे बड़े भय और दुःखका कारण है: सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर वह भय दूर होकर आत्मा अभयपना प्राप्त करता है । इसलिये जीवको सम्यग्ज्ञानके मार्ग में लगाना वह बड़ा अभयदान है । इसलिये भगवानको भी अभयदाता (अभयश्याणम् ) कहा जाता है ।
भगवान् और सन्त कहते हैं कि हे जीव ! तू अपने स्वरूपको पहचानकर निर्भय हो ! शंकाका नाम भय है जिसको स्वरूपमें शंका है उसे मरण आदिका भय कभी नहीं मिटता । सम्यग्दृष्टि जीव ही निःशंक होनेसे निर्भय है, उसे मरण आदि सात प्रकारके भय नहीं होते । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि
सम्यक्त्ववन्त जीव निःशंकित उससे हैं निर्भय खरे,
और सप्त भय प्रविमुक्त हैं जिससे उस हेतु निःशंक हैं ।
स्वरूपकी भ्रान्ति दूर हुई वह भय दूर हो गया । शरीर ही मैं नहीं, मैं तो शाश्वत ज्ञानमय आत्मा हूँ, तब मेरा मरण कैसा ? ओर मरण ही नहीं फिर मरणका भय कैसा ? मिथ्यात्वमें मरणका भय था, मिथ्यात्व दूर हुआ वह मरणादिका भय मिटा | इसके अतिरिक्त रोगादिका अथवा सिंह - बाघका भय थोड़े समयके लिये चाहे मिट जावे परन्तु जबतक यह भय न मिटे तबतक जीवको सच्चा सुख नहीं होता । - इस प्रकार ज्ञानी समझाते हैं कि हे भाई! तू तो ज्ञानस्वरूप है; इस देहका जन्म-मरण वह वास्तवमें तेरा स्वरूप नहीं; अज्ञानसे तूने देहको अपना मानकर इसमें सुखकी कल्पना की है इससे तुझे रोगका, क्षुधाका, मरणादिका भय लगता है । परन्तु देहसे भिन्न वज्र जैसा तेरा ज्ञानस्वरूप है वह निर्भय है, उसे
१०