Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 88
________________ भावका-सा •remi- [१२] ...mertainm श्रावकको दानका फल 一是鲁社###染井世鲁###背身单 **** * ****** * * * धर्मात्माको शुद्धताके साथ रहनेवाले शुभभावसे ऊँचा पुण्य बंधता है, परन्तु उसकी दृष्टि तो आत्माकी शुद्धताको साधने पर है। जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं करे और मात्र शुभरागसे ही मोक्ष होना मानकर उ में अटका रहे तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, उसे तो श्रावकपना भी सचा नहीं होता....सामनेका जीव धर्मकी आराधना कर रहा हो उसे देखकर धर्मीको उसके प्रति प्रमोद आता है, क्योंकि उसे स्वयंको आराधनाका तीव्र प्रेम है। सर्पक्षकथित वस्तुस्वरूपका निर्णय करके जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया है, उसके पश्चात् मुनिदशाकी भावना होते हुए भी जो अभी महावत अंगीकार नहीं कर सकता इसलिये श्रावकधर्मरूप देशवतका पालन करता है, ऐसे जीवको आहारदानऔषधदान-शासादान-अभयदान-इन चार प्रकारके दानका भाव आता है उसका वर्णन कियाअब उस दानका फल बताते हैं आहारामुखितौषधादतितरां निरोगता जायते शाखापात्र निवेदितात्परभवे पाण्डित्यमत्यद्भुतम् । एतत्सर्वगुणपमापरिकरः पुंसोऽभयात्दानतः पर्यन्ते पुनरोन्नतोन्नतपद प्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः ॥ १२ ॥ उत्तम आदि पात्रोंको आहारदान देनेसे परभवमें स्वर्गादि सुखकी प्राप्ति होती है। मौषधदानसे अतिशय निरोगता और सुन्दर रूप मिलता है, शानदानसे अश्यन्त अद्भुत पाण्डित्य प्रगट होता है और अभयदानसे जीवको इन सब गुणोंका परिवार प्राप्त होता है तथा क्रम-क्रमसे ऊँची पदवीको प्राप्त कर वह मोक्ष प्राप्त करता है। देखो, यह दानका फल ! भावकधर्मके मूलमें जो सम्यग्दर्शन है उसे लक्ष्यमें रखकर यह बात समझनी है। सम्यक्सी भूमिका पानादि शुममावोंसे रेखा

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