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धर्म-प्रकाश ]
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आहारदानका वर्णन
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चैतन्यकी मस्ती में मस्त मुनिको देखते गृहस्थको ऐसा भाव आचे कि अहो, रत्नत्रयको साधने वाले इस संतको शरीरकी अनुकूलता रहे ऐसा आहार - औषध देऊँ जिससे वह रत्नत्रयको निर्विघ्न साधे | इसमें इसे मोक्षमार्गका बहुमान है कि अहो ! धन्य ये सन्त और धन्य आजका दिन कि मेरे आँगन में मोक्षमार्गी मुनिराजके चरण पड़े... आज तो मेरे आंगन में मोक्षमार्ग साक्षात् आया...वाह, धन्य ऐसा मोक्षमार्ग ! ऐसे मोक्षमार्गी मुनिको देखते हा श्रावकका हृदय बहुमानसे उछल जाता है। जिसे धर्मी प्रति भक्ति नहीं, आदर नहीं उसे धर्मका प्रेम नहीं । 000
धर्मी श्रावकको आहारदानके कैसे भाव होते हैं वह यहाँ बताते हैंसर्वो वान्छति सौख्यमेव तनुभृत् तन्मोक्ष एव स्फुटं दृष्टयादित्रय एव सिध्यति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम् । तद्भृतिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात् नहीयते श्रावकैः काले क्लिष्टतरेsपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥ ८ ॥
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सर्व जीव सुख चाहते हैं; वह सुख प्रगटरूपसे मोक्ष में हैं; उस मोझकी सिद्धि सम्यक दर्शनादि रत्नत्रय द्वारा हातां है: रत्नत्रय निर्व्रन्थ-दिगम्बर साधुको होता साधुकी स्थिति शरीरके निमित्तसे होती है, और शरीरको स्थिति भोजनके निमित्तसे होती है; और भोजन धावकों द्वारा देनेमें आता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लिष्ट कामें श्री मोक्षमार्गको प्रवृत्ति "प्रायः " श्रावकों के निमित्तसे हो रही है ।