Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 65
________________ भावकधर्म - प्रकाश 1 [ ५३ नहीं, परन्तु धर्मका मूल तो वह दृष्टि है । "धर्मका मूल गहरा है ।" गहरा ऐसा जो अन्तरंगस्वभावधर्मका वटवृक्ष है, उस ध्रुवके ऊपर दृष्टि डालकर एकाग्रताका सींचन करते करते इस वटवृक्षमेंसे केवलज्ञान प्रगट होगा । अज्ञानीके शुभभाव अर्थात् परलक्षी शास्त्रपठन ये तो भादव महीने के भींडीके पौधे जैसे हैं, वे लम्बे काल तक टिकेंगे नहीं। धर्मात्माको ध्रुवस्वभावकी दृष्टिसे धर्मका विकास होता है: बीचमें शुभराग और पुण्य आता है उसको तो वह हेय जानता है: - जो विकार है उसकी महिमा क्या ? और उससे आत्माकी महत्ता क्या ? अज्ञानी तो राग द्वारा अपनी महत्ता मानकर, स्वभावकी महत्ताको भूल जाता है और संसार में भटकता है। ज्ञानीको सत्स्वभावकी दृष्टिपूर्वक जो पुण्यबन्ध होता है उसे सतपुण्य कहते हैं: अज्ञानीके पुण्यको सत्पुण्य नहीं कहते । जिसे रागकी - पुण्यकी और उसके फलकी प्रीति है वह तो अभी संयोग प्रहण करनेकी भावना वाला है, अर्थात् उसे दानकी भावना सच्ची नहीं होती है । स्वयं तृष्णा घटावे तो दानका भाव कहा जाता है । परन्तु जो अभी किसीको ग्रहण करनेमें तत्पर है और जिसे संयोगकी भावना है वह राग घटाकर दान देनेमें राजी कहाँसे होगा ? मेरा आत्मा ज्ञानस्वभावा अपनेसे पूर्ण है, परका ग्रहण अथवा त्याग मेरेमें है ही नहीं, ऐसे असंगस्वभावकी दृष्टि वाला जीव परसंयोगहेतु माथापच्ची न करे, इसे संयोगकी भावना कितनी टल गई है ? परन्तु इसका माप अन्तरकी दृष्टि बिना पहिचाना नहीं जा सकता । भाई, तुझे पुण्योदयसे लक्ष्मी मिली और जैनधर्मके सच्चे देव- गुरु महारत्न तुझे महाभाग्यसे मिले, अब तो तू धर्म-प्रसंगमें तेरी लक्ष्मीका उपयोग करनेके बदले स्त्री- पुत्र तथा विषय - कषायके पापभावमें ही धनका उपयोग करता है तो हाथमें आया हुआ रत्न समुद्र में फेंक देने जैसा तेरा काम है । धर्मका जिसे प्रेम होता है वह तो धर्मकी वृद्धि किस प्रकार हो, धर्मात्मा कैसे आगे बढ़े, साधर्मियोंको कोई भी प्रतिकूलता हो तो वह कैसे दूर होवे - ऐसे प्रसंग विचार-विचारकर उनके लिये उत्साहसे धन खता है। धर्मी जीव बारम्बार जिनेन्द्र-पूजनका महोत्सव करता है । पुत्रके लग्नमें कितने उत्साहसे धन खर्च करता है ! उधार करके भी खर्चता है, तो धर्मकी लगनमें देव- गुरुकी प्रभावनाके लिये और साधर्मके प्रेमके लिये उससे भो विशेष उल्लासपूर्वक प्रवर्तना योग्य है । एकबार शुभभावमें कुछ खर्च कर दिया इसलिये बस है - ऐसा नहीं, परन्तु बारम्बार शुभकार्यमें उल्लाससे वर्ते । दान अपनी शक्ति अनुसार होता है, लाख करोड़ की जायदादमेंसे सौ रुपया खर्च होवे - वह कोई शक्ति अनुसार नहीं कहा जा सकता । उत्कृष्टरूपसे चौथा भाग,

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