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भावधर्म-प्रकाश] कोई शरीर पर राग नहीं, वे तो चैतन्यकी साधनामें लीन है। और जब कभी देशी स्थिरताके लिये आहारकी वृत्ति उठती है तब आहारके लिये नगरीमें पधारते है। ऐसे मुनिको देखते गृहस्थको ऐसे भाव आते हैं कि महो ! रत्नत्रयको साधनेवाले इन मुनिको शरीरकी अनुकूलता रहे ऐसा आहार-औषध देऊँ जिससे ये रत्नत्रयको निर्विघ्न साधे । इस प्रकार व्यवहारसे शरीरको धर्मका साधन कहा है और उस शरीरका निमित्त अन्न है। इसलिये वास्तव में तो आहारदान देनेके पीछे गृहस्थकी भावना परम्परासे रत्नत्रयके पोषणकी ही है, उसका लक्ष्य रत्नत्रय पर है. और वह भक्तिके साथ अपनी आत्मामें रत्नत्रयकी भावना पुष्ट करता है। श्रीराम और सीताजी जैसे भी परमभक्तिसे मुनियोंको आहार देते थे। - मुनियोंके आहारकी विशेषविधि है। मुनि जहां-तहाँ आहार नहीं करते । वे जैनधर्मकी श्रद्धावाले श्रावकके यही ही, नवधाभक्ति आदि विधिपूर्वक आहार करते हैं। श्रावकके यहाँ भी बुलाये बिना (- भक्तिसे पड़गाहन-निमंत्रण किये बिना) मुनि आहारके लिये पधारते नहीं। और पीछे श्रावक अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक नौ प्रकार भक्तिसे निर्दोष आहार मुनिके हाथमें देते हैं । (१-प्रतिग्रहण अर्थात् आदरपूर्षक निमंत्रण, २-उच्च आसन, ३-पाद-प्रक्षालन, ४-पूजन-स्तुति, ५-प्रणाम, ५-मनशुद्धि, ७-वचनशुद्धि, ८-कायशुद्धि और ९-आहारशुद्धि-ऐसी नषधाभक्तिपूर्वक भावक माहारदान दे।) जिस दिन मुनिके आहारदानका प्रसंग अपने आँगनमें हो उस दिन उर्स श्रीवकके आनन्दका पार नहीं होता। श्रीराम और सीता जैसे भी जंगल में मुनिको भक्तिसे आहारदान करते हैं उस समय एक गृद्धपक्षी (-जटायु) भी उसे देखकर उसको अनुमोदना करता है और उसे जातिस्मरणहान होता है। श्रेयांसकुमारने जब ऋषभमुनिको प्रथम आहारदान दिया तब भरत चक्रवर्ती उसे धन्यवाद देने उसके घर गये थे । यहाँ मुनिकी उत्कृष्ट बात ली, उसी प्रकार अन्य साधर्मी धावक धर्मात्माके प्रति भी आहारदान आदिका भाव धर्मीको होता है। ऐसे शुभभाव भावककी भूमिकामें होते हैं इसलिये उसे श्रावकका धर्म कहा है, तो भी उसकी मर्यादा कितनी?-कि पुण्यबन्ध हो इतनी, इससे अधिक नहीं। दानकी महिमाका वर्णन करते हुए उपवारसे ऐसा भी कहा है कि मुनिको माहारदान श्रावकको मोलका कारण है, वहाँ वास्तवमें तो श्रावकको उस समयमें जो पूर्णताके लक्ष्यसे सम्यकथद्धा-भान वर्तता है वही मोनका कारण है, राग कहीं मोक्षका पारण नहीं, ऐसा समझना ।