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भावकधर्म-प्रकाश -न आये तो गुरु द्वारा या साधर्मीको पूछकर समझना चाहिये, परन्तु पहलेसे ही " समझमें नहीं आता" ऐसा कहकर शास्त्रका अभ्यास ही छोड़ दे उसे तो जानका प्रेम नहीं है।
सर्वदेवकी पहचान पूर्वक सेवा-पूजा, सन्त-गुरु-धर्मात्माकी सेवा, साधर्मीका आदर-यह श्रावकको जरूर होता है। गुरुसेवा अर्थात् धर्ममें जो बड़े है, धर्ममें जो उन हैं और उपकारी हैं उनके प्रति विनय-बहुमानका भाव होता है। यह शास्त्रका अषण भी विनयपूर्वक करता है। प्रमावपूर्षक या हाथमें पंखा लेकर हवा खाते खाते शाल सुने तो अविनय है। शास्त्र सुननेके प्रसंगमें विनयसे ध्यानपूर्वक उसका ही लक्ष रखना चाहिये । इसके पश्चात् भूमिकाके योग्य राग घटाकर संयम, नप और दान भी श्रावक हमेशा करे। इसके पश्चात् श्रायकके व्रत कौनसे होते है वे आगेकी गाथामें कहेंगे।
इन शुभकार्योंमें कोई रागका आदर करनेका नहीं समझाया, परन्तु धर्मात्माको शुद्धदृष्टिपूर्वक किस भूमिकामें रागकी कितनी मन्दता होती है, यह बतलाया है। भगवान सर्वज्ञ परमात्माके अनुरागी, वनमें बसनेवाले वीतरागी सन्त नौसौ वर्ष पहले हुए पानन्दी मुनिराजने इस श्रावकधर्मका प्रकाश किया है।
सर्वशदेवकी पूजा, धर्मात्मा गुरुओंकी सेवा, शास्त्र-स्वाध्याय करना भावकका कर्तव्य है-ऐसा व्यवहारसे उपदेश है। शुद्धोपयोग करना यह तो प्रथम बात है। परन्तु वह न हो सके तो शुभकी भूमिकामें श्रावकको कैसे कार्य होते हैं उसे बतानेके लिये यहाँ उसे कर्त्तव्य कहा है-ऐसा समझना। इसमें जितना शुभराग है वह तो पुण्यबन्धका कारण है, और सम्यग्दर्शन सहित जितनी शुद्धता है वह मोसका कारण है। सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्षमार्गमें जिसने गमन किया है ऐसे भावकको मार्गमें किस प्रकारके भाव होते हैं आचार्यश्रीने उसे बतलाकर श्रावकधर्मको प्रकाशित किया है। ऐसा मनुष्य-अवतार और ऐसा उत्तम जैन-शासन पाकर हे जीव ! उसे तू व्यर्थ न गँवा; प्रथम तो सर्व-जिनदेवको पहिचानकर सम्यग्दर्शन प्रगट कर, इसके पश्चात् मुनिदशाके महाव्रत धारण कर, जो महाव्रत न पाल सके तो श्रावकके धाँका पालन कर और श्रावकके देशवत धारण कर । श्रावकके व्रत कौनसे होते हैं वे भागेकी गाथामें कहते हैं।