Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 58
________________ ४६ ] अपेक्षासे अभी गृहस्थको मर्वपरिग्रह नहीं छूटा । मिथ्यात्वका परिग्रह छूट गया है और दूसरे परिग्रहकी मर्यादा हो गई है। इस प्रकार पाँच अणुव्रत गृही-श्रावकको होते हैं। तथा दिग्बत, देशव्रत, और अर्थदण्डका त्यागरूप व्रत ये तीन गुणवत होते हैं: और सामायिक, प्रौषधोपवास, दान अर्थात् अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण ये चार शिक्षाबत होते हैं -इस प्रकार श्रावकको बारह व्रत होते हैं। ये व्रत पुण्यके कारण हैं-यह बात पाँचवीं गाथामें कह आये हैं। चार अनन्तानुबन्धी और चार अप्रत्याख्यान -इन आठ कषायोंके अभावसे भावकको सम्यक्त्वपूर्वक जितनी शुद्धता हुई है उतना मोक्षमार्ग है; ऐसा मोक्षमार्ग प्रगट हुआ हो वहाँ प्रसहिंसाके परिणाम नहीं होते। आत्मा पर जीवको मार सके या जिला सके ऐसी बाहरकी क्रियाके कर्तव्यकी यह बात नहीं, परन्तु अन्दर ऐसे हिंसाके परिणाम ही उसे नहीं होते । प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्यायकी मर्यादा स्वयंकी वस्तुके प्रवर्तन में ही है, परमें प्रवर्तन नहीं होता। ऐसे वस्तुस्वरूपके भानपूर्वक अन्तरंगमें कुछ स्थिरता हो तभी व्रत होता है; और उसे धावकपना कहा जाता है। ऐसे आवकको (-दीन्द्रियसे पंचेन्द्रिय ) त्रसहिंसाका तो सर्वथा त्याग हो, और स्थावरहिंसाकी मी मर्यादा हो। ऐसा अहिंसावत होता है। इसी प्रकार सत्यका भाव हो और असत्यका त्याग हो, चोरीका त्याग होः परस्त्रीका त्याग हो और स्वस्त्रीमें संतोष, और वह भी शुद्ध हो तभी, अर्थात् कि ऋतुमती-अशुद्ध हो तब उसका भो त्याग,-इस प्रकारका एकदेश ब्रह्मचर्य हो; तथा परिग्रहकी कुछ मर्यादा हो; इसप्रकार श्रावकको पांच अणुवत होते हैं। पाँच अणुव्रत पश्चात् श्रावकको तीन गुणवत भी होते हैं: प्रथम दिग्वत अर्थात् दशों दिशामें निश्चित मर्यादा तक ही गमन करनेकी जीवनपर्यंत प्रतिक्षा करनाः दूसरा देशवत अर्थात् दिग्नतमें जो मर्यादा की है उसमें भी निश्चित क्षेत्रके बाहर नहीं जानेका नियम करना; तीसरा अनर्थदण्डपरित्यागनत अर्थात् बिना प्रयोजनके पापकर्म करनेका त्याग; उसके पाँच प्रकार-अपध्यान, पापका उपदेश, प्रमादचर्या, जिससे हिंसा हो ऐसे शान आदिका दान और दुःश्रुति-जिससे राग-द्वेषकी वृद्धि हो ऐसी दुष्ट कथाओंका श्रवण वह न करे। इस प्रकार श्रावकके तीन गुणवत होते हैं।

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