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[भावकधर्म-प्रमाण धर्मी जीव प्रतिदिन धर्मकी प्रमावना, शानका प्रचार, भगवानकी पूजा-भक्ति आदि कार्यों में अपनी लक्ष्मीका सदुपयोग किया करता है, उनमें धर्मात्माकों मुनि आदिके प्रति भक्तिपूर्वक दान देना मुख्य है। आहारदान, औषधदान, शानदान और अभयदान ये चार प्रकारके दान आगेके चार श्लोकोंमें बतावेंगे।
__ धनवान अर्थात् जिसने अभी परिग्रह नहीं छोड़ा ऐसे श्रावकका मुख्य कार्य सतपात्रदान है। सम्यग्दर्शनपूर्वक जहाँ ऐसे दान-पूजादिका शुभराग आता है वहाँ अन्तटिमें उस रागका भी निषेध वर्तता है, अर्थात् उस धर्मीको उस रागसे "सत्पुण्य" बँधता है। अज्ञानीको "सत्पुण्य' होता नहीं, क्योंकि उसे तो पुण्यकी रुचि है, रागके आवरकी बुद्धिसे पुण्यके साथ मिथ्यान्वरूपी बड़ा पापकर्म उसे बँधता है।
यहाँ दानकी मुख्यता कही है उससे अन्यका निषेध न समझना । जिनपूजा आदिको भी सत्पुण्यका हेतु कहा है, वह भी श्रावकको प्रतिदिन होता है। कोई उसका निषेध करे तो उसे श्रावकपनेकी या धर्मकी खबर नहीं ।
जिनपूजाको कोई परमार्थसे धर्म ही मान ले तो गलती है, और जिनपूजाका कोई निषेध करे तो वह भी गलती है। जिन प्रतिमा जैनधर्ममें अनादिकी वस्तु है। परन्तु वह जिन प्रतिमा वीतराग हो-"जिन प्रतिमा जिनसारखी” किसीने इस जिन प्रतिमाके ऊपर चन्दन-पुष्प-आभरण-मुकुट-वस्त्र आदि चढ़ाकर उसका स्वरूप विकृत कर दिया, और किसी ने जिन प्रतिमाके दर्शन-पूजनमें पाप बताकर उसका निषेध किया हो, यह दोनोंको भूल है। इस सम्बन्धी एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाता है-दो मित्र थे; एक मित्रके पिताने दूसरेके पिताको १०० (एक सौ) रुपये उधार दिये, और बहीमें लिख लिये । दुसरेका पिता मर गया। कितने ही वर्षांक बाद पुराने बहीखाते देखते पहले मित्रको खबर लगी की मेरे पिताने मित्रके पिताको एक सौ रुपया दिये थे; परन्तु उसे तो बहुत वर्ष बीत गये । ऐसा समझकर उसने १००के ऊपर आगे दो बिन्दु लगाकर १००,०० (दस हजार ) बना दियेः और पश्चात् मित्रको कहा कि तुम्हारे पिताने मेरे पितासे दस हजार रुपये लिये थे, इसलिये लौटाओ। इस मित्रने कहा कि मैं मेरे पुराने बही चापड़े देखकर फिर कहूँगा। घर जाकर पिताकी बहियाँ देखी तो उसमें दस हजारके बदले सौ रुपये निकले। इस पर उसने विचार किया कि जो सौ रुपये स्वीकार करता हूँ तो मुझे दस हजार रुपये देना पड़ेंगे। इसलिये उसकी नीयत खराब हो गई और उसने तो मूलसे ही रकम उड़ा दी की मेरे पहियोंमें कुछ नहीं निकलता । इसमें सौ रुपयेकी रकम तो