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भावकधर्म-प्रकाश ]
[ ४१ श्रावक सम्यग्दर्शनपूर्वक पाठ मूलगुणोंका पालन करे तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत-ये सात शीलवतः-इस प्रकार कुल बारह प्रत, रात्रि-भोजन परित्याग, पवित्र वनसे छने जलका पीना तथा शक्ति अनुसार मौनादि व्रतका पालन करना; ये सब आवरण भव्य जीवोंको पुण्यके कारण हैं।
देखो ! इसमें दो बातें बताई । एक तो हग् अर्थात् सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन होता है-यह बात बताई; और दूसरी ये शुभ-आचरण पुण्यका कारण है अर्थात् मानवका कारण है, मोक्षका कारण नहीं। मोक्षका कारण तो सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वद्रव्यो भालंबन द्वारा जितनी वीतरागता हुई वह ही है।
जिसको आत्मभान हुआ है, कषायोंसे भिन्न आत्मभाव अनुभवमें भाया है, पूर्ण वीतरागताकी भावना है परन्तु अभी पूर्ण वीतरागता नहीं है। यहाँ भाषक अवस्थामें उसे किस प्रकारका आचरण होता है वह यहां बताया गया है।
जिस प्रकार स्वयं गतिमानको धर्मास्तिकाय निमित्त है, उसी प्रकार स्वाधिन शुद्धात्माके बलसे जिसने मोक्षमार्गमें गमन किया है, उस जीवको बीचकी भूमिकामें यह व्रतादि शुभ-आचरण निमित्तरूपसे होता है। सम्यग्दर्शन होने पर चौथे गुणस्थानसे शुद्धता प्रारम्भ हुई है-निश्चय मोक्षमार्गके जघन्य अंशकी शुरुआत हो गई है, पश्चात् पांचवें गुणस्थानमें शुद्धता बढ़ गई है और राग बहुत कम हो गया है। उस भूमिकामें शुभरागके आचरणकी मर्यादा कितनी है और उसमें किस प्रकारके प्रत होते है यह बताया गया है। यह शुभरागरूप आचरण धावकको पुण्यबन्धका कारण है अर्थात् धर्मी जीव अभिप्रायमें इस रागको भी कर्तव्य नहीं मानते, रागके एक अंशको भी धर्मी जीव मोक्षमार्ग नहीं मानते: अतः उसे कर्तव्य नहीं मानते परन्तु अशुभसे बचने के लिये शुभको व्यवहारसे कर्त्तव्य कहा जाता है, क्योंकि उस भूमिकामें उस प्रकारका भाव होता है।
___ जहाँ शुद्धताकी शुरुआत हुई है परन्तु पूर्णता नहीं हुई वहाँ बीचमें साधकको महावत या देशवतके परिणाम होते हैं। परन्तु जिसे अभी शुद्धताका अंश भी प्रगट नहीं हुआ है, जिसे परमें कर्त्तव्यबुद्धि है, जो रागको मोक्षमार्ग स्वीकारता है, उसे तो अभी मिथ्यात्वका शल्य है, ऐसे शल्यवाले जीवको व्रत होते ही नहीं, क्योंकि प्रती तो निःशल्य होता है-'निःशल्य व्रती' यह भगवान् उमास्वामीका सूत्र है। जिसे मिथ्यात्वका शस्य न हो, जिसे मायाका शल्प न हा, जिसे निदानका शस्य न हो उसे हो पाँच गुणस्थान और व्रतीपना होता है।