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[ श्रावकधर्म-प्रकाश
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पहली बात टग अर्थात् सम्यग्दर्शनकी है । सर्वशदेवकी प्रतीतिपूर्वक सम्यग्दर्शन होना यह पहली शर्त है; फिर आगेकी बात है। श्रावकको सम्यग्दर्शनपूर्वक अष्ट मूलगुणोंका पालन नियमसे होता है। बड़का फल, पीपर, कठूमर, ऊमर तथा पाकर इन पाँच क्षीरवृक्षको उदम्बर कहते हैं। ये स-हिंसाके स्थान हैं, उनका त्याग तथा तीन 99 मकार अर्थात् मद्य, मांस, मधु इन तीनोंका नियमसे त्याग ये अष्ट मूलगुण हैं; अथवा पाँच अणुव्रतोंका पालन और मद्य, मांस, मधुका निरतिचार त्याग ये श्रावकके आठ मूलगुण हैं: ये तो प्रत्येक श्रावकको नियमसे ही होते हैं, (चाहे ) मनुष्य हो या तिर्यच हो, पुरुष हो या स्त्री हो । अढाई द्वीपके बाहर तिर्यचोंमें असंख्यात सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हींमें श्रावक - पंचमगुणस्थानी भी असंख्यात हैं । सम्यग्दृष्टिको जैसा शुद्धस्वभाव है वैसा प्रतीतिमें आ गया है और पर्यायमें उसका अल्प शुद्ध परिणमन हुआ है । शुद्धस्वभावकी श्रद्धाके परिणमनपूर्वक शुद्धताका परिणमन होता है; और ऐसी शुद्धिके साथ श्रावकको आठ मूलगुण, श्रसहिंसाके अभावरूप पाँच अणुव्रत, रात्रि भोजन त्याग इत्यादि होते हैं । उस सम्बन्धी शुभभाव हैं वे पुण्यका उपार्जन करनेवाले हैं:- "पुण्याय भव्यात्मनाम् । कोई उसको मोक्षका कारण मान ले तो वह भूल है। श्री उमास्वामीने मोक्षशास्त्रमें भी शुभआस्त्रवके प्रकरणमें वतका वर्णन किया है; उन्होंने कोई संवररूपसे वर्णन नहीं किया है।
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यहाँ श्रावकको मद्य, मांस इत्यादिका त्याग होनेका कहा, परन्तु यह ध्यान रखना कि पहली भूमिका में साधारण जिज्ञासुको भी मद्य, मांस, रात्रि भोजन आदि तीन पापके स्थानोंका तो त्याग होता ही है, और श्रावकको तो प्रतिज्ञापूर्वक नियमसे उसका त्याग होता है ।
रात्रि - भोजन में बहुत प्रसहिंसा होती है, इसलिये श्रावकको उसका त्याम होता ही है । उसी प्रकार अनछने पानीमें भी त्रस जीव होते हैं। उसे शुद्ध और मोटे कपड़ेसे गालनेके पश्चात् ही श्रावक पानी पीता है । अस्वच्छ कपड़ेसे पानी छाने तो उस कपड़े के मैलमें ही जीव होते हैं, इसलिये कहते हैं कि शुद्ध बसे छना हुआ पानी पीने के काममें लेवे । रात्रिको तो पानी पिये नहीं और दिनमें छानकर पिये । रात्रिको अस जीवोंका संचार बहुत होता है: इसलिये रात्रिके खान पानमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है । जिसमें सहिंसा होती है ऐसे कोई कार्यके परिणाम व्रती श्रावकको नहीं हो सकते । भक्ष्य-अभक्ष्यके विवेक बिना अथवा दिन-रात के विषेक बिना चाहे जैसे वर्तता होवे और कहे कि हम भ्रावक हैं,