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सम्यग्दर्शन
मुनिराज कहते हैं कि हे भव्य ! ऐसा दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त कर आत्महितके लिये तू मुनिधर्म अंगीकार कर, और जो इतना तुझसे न हो सके तो श्रावकधर्मका तो अवश्य पालन कर । परन्तु दोनोंमें सम्यग्दर्शन सहित होनेकी बात है। मुनिधर्म या श्रावकधर्म दोनोंमें मूलमें सम्यग्दर्शन और सर्वशकी पहिचान सहित आगे बढ़नेकी बात है। जिसे यह सम्यग्दर्शन नहीं हो सके तो प्रथम उसका उद्यम करना चाहिये । -यह बात तो प्रथम तीन गाथाओंमें बता आये हैं। उसके पथात् आगेकी भूमिकाकी यह बात है।
सम्यग्दृष्टिकी भावना तो मुनिपने की ही होती है; अहो! कब चैतन्यमें लीन होकर सर्वसंगका परित्यागी होकर मुनिमार्गमें विचरण करूं ? शुद्धरत्नत्रयस्वरूप जो उत्कृष्ट मोक्षमार्ग उसरूप कब परिण!
अपूर्व अवसर अवो क्यारे आवशे ! क्यारे थइशुं पायान्तर निप्रैय जो, सर्वसम्बन्धनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
विचरशुं का महत्पुरुषने पंय जो । तीर्थकर और अरिहंत मुनि होकर चैतन्यके जिस मार्ग पर विचरे उस मार्ग पर विचरण कर ऐसा धन्य स्वकाल कब आवेगा? इसप्रकार आत्माके भानपूर्वक धर्मी जीव भावना भाते हैं। ऐसी भावना होते हुये भी निजशक्तिकी मंदतासे और निमित्तरूपसे चारित्रमोहकी तीव्रतासे, तथा कुटुंबीजनों आदिके आग्रहवश होकर स्वयं ऐसा मनिपद प्रहण नहीं कर सके तो वह धर्मात्मा गृहस्थपनेमें रहकर श्रावकके धर्मका पालन करे, यह यहां बताया है।