Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 36
________________ [भावकधर्म-प्रकाश एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यं । तस्यापि मोक्षमार्गों भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥ २० ॥ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥ २१ ॥ सम्यकदर्शन-शान-चारित्र इन तीनस्वरूप मोक्षमार्ग है, उसे गृहस्थोंको भी सदा यथाशक्ति सेवन करना चाहिये। उन तीनमें पहले सम्यक्त्व है। वह पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा अंगीकार करने योग्य है। क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र होते हैं। सम्यकदर्शन बिना ज्ञान या चारित्र मोक्षके साधक नहीं होते । और सम्यक्त्व सहित यथाशक्ति मोक्षमार्गका सेवन गृहस्थको भी होता है-ऐसा यहां बताया। सम्यकदर्शनके पश्चात् जो राग-द्वेष हैं वे अत्यन्त अल्प है और उनमें धर्मी को एकत्यबुद्धि नहीं है। मिथ्यादृष्टि को राग-द्वेषमें एकत्वबुद्धि है अर्थात् उसको अनंतानुबन्धी राग-द्वेष अनन्त संमारका कारण है। इस प्रकार मिथ्यात्व संसारका बीज है। और सम्यक्दर्शन होने पर उसका छेद होकर मोक्षका बीजारोपण होता है। सम्यकदर्शनरूपी 'बीज' उत्पन्न हुआ वह बढ़कर केवलज्ञानरूपी पूर्णिमा होकर छोड़ेगा। सम्यक्त्व कहता है कि "मुझे ग्रहण करनेसे ग्रहण करनेवालेकी इच्छा न हो तो भी मुझे उसे जबरन मोक्ष ले जाना पड़ता है। इसलिये मुझे ग्रहण करनेके पहले यह विचार कर लो कि मोक्ष जानेकी इच्छा पलट दूं तो भी वह काम आने की नहीं है। मुझे ग्रहण करनेके पश्चात् तो मुझे उसे मोक्ष पहुँचाना ही चाहिये यह मेरी प्रतिज्ञा है।"-ऐसा कहकर श्रीमद राजचन्द्रजीने सम्यक्त्वकी महिमा बताई है और उसे मोक्षका मूल कहा है। सम्यक्त्व अंगीकार करे और मोक्ष न हो ऐसा बनता नहीं। और सम्यक्त्व बिना मोक्ष हो जाय ऐसा भी बनता नहीं। इसलिये परम यत्नसे सम्यकदर्शन प्रगट करनेका उपदेश है। अहा ! सम्यकदर्शन होते ही चेतन्यके भंडारकी तिजोरी खुल गई। अब उसमेंसे हान-मानन्दका माल जितना चाहिए उतना बाहर निकाल। पहले मिथ्यात्व के तालेमें जो खजाना बंद था। अब सम्यकदर्शनरूपी चाबीसे खोलते ही बैतन्यका अक्षय भंडार प्रगट हुआ यह सादिअनन्त काल पर्यन्त इसमेंसे कैषलवान और पूर्णानन्द लिया ही करे...लिया ही करे...तो भी वह भंडार समाप्त हो ऐसा नहीं। उसी प्रकार वह कम हो जाय ऐसा भी नहीं। अहा ! सर्वश प्रभुने और वीतरागी सन्तों ऐसा वेतन्यभंडार खोलकर बताया। तो इसे कौन न लंबे! कौन अनुभव न करे!

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