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[ श्रावकधर्म-प्रकाश जहाँ सम्यग्दर्शन नहीं वहाँ धर्म नहीं। जिसे भूतार्थ स्वभावका मान नहीं और रागमें एकत्वबुद्धि है उसे धर्म कैसा? वह शुभ रागसे व्रतादि करे तो भी वह बालक्त है। और उस बालवतके रागको धर्म माने तो "बकरी निकालते ऊँट प्रवेश कर गया" ऐसा होता है इसलिए थोड़ा अशुभको छोड़कर शुभको धर्म मानने गया यहाँ मिथ्यात्वका मोटा अशुभरूपी ऊँट ही प्रवेश कर गया । अतः श्रावकको सबसे पहले सर्वक्षके वचनानुसार यथार्थ वस्तुस्वरूप जानकर, परम उद्यम पूर्वक सम्यक्त्व प्रगट करना चाहिये । जीवकी शोभा सम्यक्त्व ही है।
संयोग चाहे जितने प्रतिकूल हों परन्तु अन्तरंगमें चिदानन्द स्वभावकी प्रतीति करके श्रद्धामें पूर्ण आत्माकी अनुकूलता प्रगट की है तो वह धन्य है।
आत्माके स्वभाषसे विरुद्ध मान्यतारूप उल्टी श्रद्धा बड़ा अवगुण है। बाहरकी प्रतिकूलता होना अवगुण नहीं है।
अन्तरमें चिदानन्द स्वभावकी प्रतीति करके मोक्षमार्ग प्रगट करना महान सद्गुण है। बाहरमें अनुकूलताका ठाठ होना कोई गुण नहीं है।
आत्माकी धर्मसम्पदा किससे प्रगट होती है उसकी जिसे खबर नहीं वह ही महान दरिद्री है और भव-भवमें भटककर दुखको भोगता है। जिस धर्मात्माको आत्माकी स्वभाव सम्पदाका भान हुआ है उनके पास तो इतना बड़ा चैतन्य खजाना भरा है कि उसमेंसे केवलज्ञान और सिद्धपद प्रकटेगा। वर्तमानमें पुण्यका ठाट भले न हो तो भी वह जीव महान प्रशंसनीय है। अहो ! दरिद्र-समकिती भी केवलीका अनुगामी है। यह सर्वेक्षके मार्ग पर चलनेवाला है। उसने आत्मामें मोक्षके बीज बो दिये हैं। अल्पकालमें, उसमेंसे मोक्षका झाड़ फैलेगा, पुण्यमेंसे तो संयोग फलेगा और सम्यग्दर्शनमेंसे मोक्षका मीठा फल पकेगा।
देखिये ! इस सम्यग्दर्शनकी महिमा ! समकिती अर्थात् परमात्माका पुत्र । जैन कुलमें जन्म हुआ, कोई इससे मान ले कि हम श्रावक है, परन्तु भाई ! भाषक अर्थात् परमात्माका पुत्र; "परमात्माका पुत्र" कैसे होवे उसकी यह रीति कही जाती है
भेदविज्ञान अग्यो जिन्हके घट, शीतल विच भयो जिम चन्दन;
केलि. · करें शिवमारगमें जगमांहीं जिनेश्वरके लघुनन्दन । जहाँ मेदज्ञान और सम्यग्दर्शन प्रगट किया वहाँ अन्तरमें अपूर्ण शांतिको अनुभवता हुमा जीव मोक्षके मार्गमें केलि करता है, और जगतमें वह जिनेश्वरदेवान