________________
[ श्रावकधर्म-प्रकाश
be j
शोभता है, और मिथ्यादृष्टि जीव सिंहासन पर बैठा हो तो भी वह नहीं शोभता, प्रशंसा नहीं पाता। बाहरके संयोगसे आत्माकी कुछ शोभा नहीं, आत्माकी शोभा तो अन्दरके सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे है । अरे, छोटासा मेढ़क हो, समवसरणमें बैठा हो, वह भगवानकी वाणी सुनकर अन्दरमें उतरकर सम्यग्दर्शन द्वारा चैतन्यके अपूर्व आनन्दका अनुभव करे, वहां अन्य किस साधनकी जरूरत है ? और बाहरकी प्रतिकूलता कैसे बाधक हो सकती है ? इसलिये कहा है कि चाहे पापकर्मका उदय हो परन्तु हे जीव ! तू सम्यक्त्वकी आराधनामें निश्चल रह । पापकर्मका उदय हो, उससे कोई सम्यक्त्वकी कीमत नहीं चली जाती, उससे तो पापकर्म निर्जरता जाता है; चारों ओरसे पापकर्मके उदयसे घिरा हुआ हो, अकेला हो तो भी जो जीव प्रीतिपूर्वक सम्यक्त्वको धारण करता है वह अत्यन्त आदरणीय है; चाहे जगत् में अन्य उसे न माने, चाहे औंधी दृष्टि वाला उसे साथ न देवे, तो भी अकेला वह मोक्षके मार्गमें आनन्दपूर्वक चला जाता है । शुद्ध आत्मामें मोक्षका अमृतमार्ग उसने देख लिया है; उस मार्ग पर निःशंक चला जाता है । पूर्वकर्मका उदय कहाँ उसका है ? उसकी वर्तमान परिणति उदयकी तरफ कुछ भी नहीं झुकती, इसकी परिणति तो चैतन्यस्वभावकी तरफ झुककर आनन्दमयी बन गई है, उस परिणति से वह अकेला शोभता है । जैसे जंगलमें वनका राजा सिंह अकेला भी शोभता है वैसे ही संसार में चैतन्यका राजा सम्यग्दृष्टि अकेला भी शोभता है । सम्यक्त्वके साथ पुण्य हो तो ही वह जीव शोभा पावे - पुण्यकी ऐसी अपेक्षा सम्यग्दर्शनमें नहीं है । सम्यग्दृष्टि पापके उदयसे भी जुदा है और पुण्यके उदयसे भी जुदा है; दोनोंसे जुदा अपने ज्ञानभावमें सम्यक्त्व से ही वह शोभता है । आनन्दमय अमृतमार्गमें आगे बढ़ता हुआ वह अकेला मोक्षमें चला जाता है । श्रेणिक राजा आज भी नरकमें है परन्तु उसकी आत्मा सम्यक्त्वको प्राप्त कर अभी भी मोक्षमार्गमें गमन कर रही है; सम्यक्त्वके प्रतापसे थोड़े समयमें वह तीनलोकका स्वामी होगा ।
जिसे सम्यग्दर्शन नहीं, जिसे धर्मकी खबर नहीं, जो अमृतमार्ग से भ्रष्ट है और मिथ्यामार्ग में गमन करता है, वह जीव चाहे कदाचित् पुण्योदेयके ठाठले घिरा हुआ ( छूटा हुआ नहीं परन्तु घिरा हुआ ) हो और लाखों-करोड़ों जीव उसे