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[ श्रावक धर्म-प्रकाश
संयोगके साथ नहीं; आत्माके स्वभावकी और सर्वशदेवकी श्रद्धा सच्ची है या खोटी उसके ऊपर गुण-दोषका आधार है । धर्मी जीव स्वस्वभावके अनुभवसे, भद्धाले अत्यन्त संतुष्टरूप रहते हैं, जगतके किसी संयोगकी वांछा उन्हें नहीं । सम्यग्दर्शन. रहित जीव हजारों शिष्योंसे पूजित हो तो भी वह प्रशंसनीय नहीं, और विरले सम्यग्दृष्टि धर्मात्माको माननेवाले कोई न हों तो भी वह प्रशंसनीय है, क्योंकि वह मोक्षका पथिक है, वह सर्वज्ञका ' लघुनन्दन ' है: मुनि तो सर्वज्ञका ज्येष्ठ पुत्र है और सम्यग्दृष्टि लघुनन्दन अर्थात् छोटा पुत्र है । भले वह छोटा पुत्र हो परन्तु है तो सर्वज्ञका उत्तराधिकारी, वह अल्पकालमें तीनलोकका नाथ सर्वश होगा ।
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रागादि जैसी प्रतिकूलतामें भी " मैं स्वयंसिद्ध, चिदानन्दस्वभावी परमात्मा है। ऐसी निजात्माकी अन्तरप्रतीति धर्मीसे छूटती नहीं । आत्माके स्वभावकी ऐसी प्रतीति सम्यग्दर्शन है, और उसमें सर्वशदेवकी वाणी निमित्तरूप है; उसमें जिसे संदेह है उस जीवको धर्म नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जिनवचनमें और जिनवाणीमें दर्शाये आत्मस्वभावकी प्रतीति करके सम्यग्दर्शनमें निश्चलरूपसे स्थिति करता है। ऐसे जीव जगतमें तीनोंकालमें विरल ही होते हैं । वे भले ही थोड़े हों तो भी वे प्रशंसनीय हैं । जगतके सामान्य जीव भले उन्हें नहीं पहिचानें परन्तु सर्वज्ञ भगवन्तों, सन्तों और ज्ञानियोंके द्वारा वे प्रशंसा पात्र हैं, भगवान और सन्तोंने उन्हें मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है । जगत् में इससे बड़ी अन्य कोई प्रशंसा है ? बाहरमें चाहे जैसा प्रतिकूल प्रसंग हो तो भी सम्यग्दृष्टि-धर्मात्मा पवित्र दर्शनसे चलायमान नहीं होता ।
प्रश्नः - चारों ओर प्रतिकुलतासे घिरे हुए ऐसे दुखियाको सम्यग्दर्शन प्राप्तिका अवकाश कहांसे मिलेगा ?
उत्तरः- भाई ! सम्यग्दर्शनमें क्या कोई संयोगकी आवश्यकता है ? प्रतिकूल संयोग कोई दुःखका कारण नहीं और अनुकूल संयोग कोई सम्यक्त्वका कारण नहीं; आत्मस्वरूपमें भ्रांति ही दुःखका कारण है और आत्मस्वरूपकी निर्भ्रात प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन सुखका कारण है । यह सम्यग्दर्शन कोई संयोगोंके आश्रयसे नहीं, परन्तु अपने सहज स्वभावके ही आश्रयसे है । अरे ! नरकमें तो कितनी असह्य प्रतिकूलता है । वहाँ खानेको अन्न या पीनेको पानी नहीं मिलता, सरदी गरमीका पार नहीं, शरीरमें पीड़ाका पार नहीं, कुछ भी सुविधा नहीं, तो भी वहां पर ( सातवें नरकमें भी ) असंख्यात जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने किस आधारसे पाया ? संयोगका लक्ष्य छोड़कर परिणतिको अंतर में लगाकर अपने आत्माके