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भावकधर्म-प्रकाश
[१७ मायसे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। नरकमें भी यह सम्यग्दर्शन होता है तो वहाँ क्यों न होवे ? यहाँ कोई नरक जितनी तो प्रतिकूलता नहीं है? माप अपनी रुचि पलटाकर आत्माकी दृष्टि करे तो संयोग कोई विघ्न करते नहीं। अपनी रुचि न पलटावे और संयोगका दोष बतावे यह तो मिथ्याबुद्धि है।
यहाँ तो, पेसा होय अथवा पुण्य होय तो जीव प्रशंसनीय है ऐसा नहीं कहा है। परन्तु जिसके पास धर्म है वही जीव प्रशंसनीय है ऐसा कहा है । पैसा अथवा पुण्य ये क्या आत्माके स्वभावकी चीज है? जो अपने स्वभावकी चीज न हो उससे आत्माकी शोभा कैसे होवे ? हे जीव ! तेरी शोभा तो तेरे निर्मल भावोंसे है । अन्य तेरी शोभा नहीं। अन्तरस्वभावकी प्रतीति करके उसमें तू स्थित रह, इतनी ही तेरी मुक्तिकी देर है।
__अनुकूल-प्रतिकूल संयोगके आधारसे धर्म-अधर्मका कोई माप नहीं। धर्म होय उसे प्रतिकूलता आवे ही नहीं-ऐसा नहीं । हाँ इतना सत्य है कि प्रतिकूलतामें धर्मी जीव अपने धर्मको नहीं छोड़ता। कोई कहे कि धर्मीके पुत्र इत्यादि मरते ही नहीं, धर्माके रोग होता ही नहीं, धर्मीक जहाज डूबते ही नहीं, तो इसकी बात सच्ची ही नहीं। इसको धर्मके स्वरूपकी खबर नहीं। धर्मीको भी पूर्व पापया उदय होय तो ऐसा भी हो सकता है। कोई समय धर्मीके पुत्रादिकी आयु थोड़ी भी होवे और अज्ञानीके पुत्रादिकी आयु विशेष होय । परन्तु उससे क्या ? ये नो पूर्वके बँधे हुये शुभ-अशुभ कर्मके खेल हैं। इसके साथ धर्म-अधर्मका सम्बन्ध नहीं । धर्मीकी शोभा तो अपनी आत्मासे ही है। संयोगसे इसकी कोई शोभा नहीं । मिथ्याटिको संयोग कोई समय अनुकूल होवे, परन्तु अरे ! मिथ्यामार्गका सेवन यह महा दुःखका कारण है-इसकी प्रशंसा क्या ? कुदृष्टिकी-कुमार्गकी प्रशंसा धर्मी जीव करता नहीं।
सम्यक्प्रतीति द्वारा निज स्वभावसे जो जीव भरा हुआ है और पापके उदयके कारण संयोगसे रहित है ( अर्थात् अनुकूल संयोग उसे नहीं) तो भी उसका जीवन प्रशंसनीय है-सुखी है। मैं मेरे सुखस्वभावसे भरा हुआ हूँ और संयोगसे खाली हूँ ऐसो अनुभूति धर्मीको सदा ही वर्तती है, वह सत्यका सत्कार करने वाला है, आनन्ददायक अमृतमार्ग पर चलने वाला है। और जो जीव स्वभावसे तो खाली है-पराश्रयकी श्रद्धा करता है अर्थात् ज्ञानानन्दसे भरे हुए निज स्वभावको जो देखता नहीं और विपरीत दृष्टिसे रागको ही धर्म मानता है, संयोगसे और पुण्यसे अपनेको भरा हुआ मानता है, वह जीव बाहरके संयोगसे सुखी जैसा