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[ श्रावकधर्म-प्रकाश ]
हो तो वह शोभा पाता है और खानेवालेको तृप्ति देता है, उसी प्रकार चाहे प्रतिपरन्तु जो जीव सम्यग्दर्शनरूपी अमृतसे भरा हुआ है परमसुखको अनुभवता है और अमृत ऐसे सिद्धपदको
कूलताके समूहमें पड़ा होवे वह शोभता है, वह आत्माके प्राप्त करता है ।
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परमात्मप्रकाश' पृष्ठ २०० में कहा है कि
" वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन हि संयुतः ।
न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥ "
सम्यक्त्व सहित जीवका तो नरकवास भी भला है और सम्यक्त्व रहित जीव देवलोक में निवास भी शोभता नहीं । सम्यग्दर्शन बिना देवलोकके देव भी दुःखी ही हैं। शास्त्रमें तो उन्हें पापी कहा है- सम्यक्त्वरहित जीवाः पुण्यसहिता मपि पापजीवा भण्यन्ते । "
ऐसा जानकर श्रावकको सबसे पहले सम्यक्त्वकी आराधना करनी चाहिये ।
पहली गाथामें, भगवान सर्वशदेवकी और उनकी वाणीकी पहिचान तथा श्रद्धा होने पर ही श्रावकधर्म होता है-ऐसा बताया और दूसरी गाथामें ऐसी श्रद्धा करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होवें तो भी वे प्रशंसनीय हैं- ऐसा बताकर उसकी आराधनाका उपदेश दिया । अब तीसरी गाथामें श्री पद्यनंदी स्वामी उस सम्यग्दर्शन को मोक्षका बीज कहकर उसकी प्राप्तिके लिये परम उद्यम करनेको कहते हैं ।
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धर्म सुशर्ण जाणी,
आराध ! मभाव आणी;
अनाथ अकांत सनाथ थाशे,
∞∞盤盤888
सर्वज्ञका
आराध,
अना विना कोई न बांध सहाशे ।
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