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सिवा अन्य कोई सत्यधर्मका प्रणेता नहीं—ऐसा जो पहिचानता नहीं और मार्ग दौड़ता है वह जीव मिथ्यात्वरूप महापापका सेवन करता है, उसमें धर्मके लिये योग्यता नहीं। ऐसा कहकर धर्मके जिहासुको सबसे पहले सर्व और सर्वश मार्मकी पहिचान करनेको कहा ।
अरे! तू ज्ञानकी प्रतीतिके बिना धर्म कहाँ करेगा ? रागमें बड़ा सर्वेशकी प्रतीति नहीं होती । रागसे जुदा पड़कर, ज्ञानरूप होकर सर्वशक होती हैं। इसप्रकार ज्ञानस्वभावके लक्ष्यपूर्वक सर्वज्ञकी पहिचान करके मलार धर्मकी प्रवृत्ति होती है। सम्यक्त्वी ज्ञानीके जो वचन है वे भी सर्वअनुसार है क्योंकि उसके हृदयमें सर्वशदेव विराजमान हैं। जिसके हृदयमें सर्व न हों उसके धर्मवचन सच्चे नहीं होते ।
देखो, यह प्रावकधर्मका प्रथम चरण ! यहाँ श्रावकधर्मका वर्णन करना है। सर्वशदेवकी पहिचान श्रावकधर्मका मूल है। मुनिके या भावकके जितने भी हैं उनका मूल सम्यग्दर्शन है । सर्वेशकी प्रतीतिके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, और सम्यग्दर्शनके बिना धावकके देशवत या मुनिके महावत नहीं होते; सम्पदर्शन सहित देशव्रती श्रावक कैसा होता है, उसके स्वरूपका इसमें वर्णन है, इसलिये इस अधिकारका नाम 'देशव्रतोद्योतन 'अधिकार' है । सर्वदेवने जैसा मात्मस्वभाव प्रगट किया और जैसा बाणी द्वारा कहा वैसा आत्माके अनुभव संहित निर्विकल्प प्रतीति करना सम्यक्दर्शन है । सर्वश, किस प्रकार हुए और उन्होंने क्या कहा, इसका यथार्थ ज्ञान सम्यकदृष्टिको ही होता है । अज्ञानीको तो सर्वश किस प्रकार हुए उसके उपायकी भी खबर नहीं और सर्वशदेवने क्या कहा उसकी श्री खबर नहीं है यहाँ तो कहते हैं कि जो सर्व के मार्गको नहीं पहचानता और विपरीत मार्गका आदर करता है उसकी बुद्धि भ्रमित है, वह भ्रमबुद्धि वाला है, मिथ्यात्वरूप महापापमें डूबा हुआ है । गृहस्थका धर्म भी उसे नहीं होता को धिमेकी बात ही क्या !
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'बाह्य और अन्तरंग सर्वसंग छोड़कर शुक्लध्यान द्वारा भगवान सर्वज्ञ हुए हैं।' सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञान तो पहले था, पीछे मुनि होने पर बाह्य सर्व परिग्रह छोड़ा, और अतरंगी अशुद्धता छोड़ो । जहाँ अशुद्धता छोड़ी वहाँ निमित्तरूपमें बासँग छोड़ा-ऐसा कहा जाता है । मुनिदशामें समस्त बाह्यसंगका त्याग है, देहके ऊपर का एक टुकड़ा भी नहीं होता, भोजन भी हाथमें लेते हैं, जमीन पर सोते