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संक्षिप्त जैन इतिहास |
करनेकी प्रारम्भिक शिक्षा दी। बारहवें कुलकरका नाम मरुदेव था। उन्होंने नाविक शिक्षाके साथ २ लोगोंको दाम्पत्यजीवनका महत्व हृदयङ्गम कराया। उन्हीं के समय से कहना चाहिये कि कर्मशीक नर-नारियोंने घरगिरस्ती बनाकर रहना सीखा। शायद यही कारण है कि वैदिक साहित्य में भारतके यादि निवासी 'मुरुदेव' भी कहे गये हैं। अंतिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी रानी मरुदेवी थीं। इन्हीं दम्पतिके सुपुत्र भगवान ऋषभदेव थे ।
भगवान ऋषभदेवने ही लोगोंको ठीकसे सभ्य जीवन व्यतीत करना सिखाया था । उनके पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोंका ही यह सुफल था कि स्वयं इन्द्रने आकर उनके सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारमें सहयोग प्रदान किया था । कुटुंबको उनकी कार्यक्षमता के अनुसार उन्होंने तीन वर्गोंमें विभक्त कर दिया था, जो क्षत्री, वैश्य और शूद्रवर्ण कहलाते थे । जब धर्मतीर्थ की स्थापना होचुकी तब ज्ञानप्रसारके लिये ब्राह्मणवर्ग भी स्थापित हुआ । इसतरह कुल चार वर्णो समाज विभक्त करदी गई; किन्तु उसका यह विभाजन मात्र राष्ट्रीय सुविधा और उत्थान के लिये था । उसका बाधार कोई मौलिक भेद न था । उस समय तो सब ही मनुष्य एक जैसे थे । नैतिक व अन्य शिक्षा मिलनेपर जैसी जिसमें योग्यता और क्षमतादृष्टि पड़ी वैसा ही उसका वर्ण स्थापित कर दिया गया; यद्यपि सामाजिक सम्बन्ध - विवाह शादी करनेके लिये सब स्वाधीन थे । दक्षिण भारत में भी इस व्यवस्थाका प्रचार था, क्योंकि वहांके साहि १- भा० पर्व ३ व १२ । २ -संजेह० १।२१ ।
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