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दक्षिण भारतका जैन-संघ। [१९५६ हुये थे। उन्होंने संघर्ष नवमीबन डाला था। इसीलिये मूल-संघले साधुगण अपनेको 'कुन्दकुन्दान्वयी' घोषित करने में गौरवका गनु. भव माज पर्यंत करते भाये हैं। यह बात भगवान कुन्दकवस्वामीके व्यक्तित्वकी महानताको प्रगट करनेके लिये पर्याप्त है। ऐसे माचार्यप्रवरका संक्षिप्त परिचय पाठकोंको अवश्य रुचिकर होगा-आइवे, उसकी एक झांकी यहां ले देखें। मात्र जेन-संघमें अंतिम तीर्थंकर भ. महावीर बर्द्धमान और
गणधर गौतमस्वामीके उपरांत भगवान भ० कुन्दकुन्दाचार्य। कुन्दकुन्दको ही स्मरण करनेकी परि--
पाटी प्रचलित है। जिससे कुंदकुंदस्वामीके आसनकी उच्चता स्पष्ट होती हैं। शिलालेखोंमें उनका नाम कोण्डकुंद लिखा मिलता है, जिसका उद्गम द्राविड़ भाषासे है। उसीका श्रुतिमधुररूप संस्कृत साहित्यमें कुंदकुंद प्रचलित है।' कहते हैं कि इन भाचार्यप्रवरका यथार्थ नाम पद्मनंदि था, परन्तु वह कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एकाचार्य और गृद्धपिच्छ नामोंसे भी प्रसिद्ध थे। वह कुंडकुंद नामक स्थानके अधिवासी थे, इसी कारण वह १-"मंगलं भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यः, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥" २-जैन शिलालेखसंग्रह (मा० अं०) भूमिका देखो। ३-एका० मा० २ नं० ६४, ६६, इंऐ० मा० २३ पृष्ठ १२६ ।
वक्रग्रीव और गृपिच्छ नामके दूसरे भाचार्य मिलते हैं । इसलिये कुन्दकुन्दस्वामीके ये दोनों नाम विद्वानों द्वारा अस्वीकृत है। इसी तरह उनका विदेह-गमन भी संदिग्ध दृष्टिसे देखा जाता है।'
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