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१४] संक्षिप्त न इतिहासा।"
६) पांव पारच्छे में गृहस्थ जीवन के लिये देवपूजा, तिकि सरकार बन्धु-बांधवों की सहा ता और मामोति करना माइक बताया है । भगवत् कुंद्रकुंवामीने भी देवपूना मना और दान देना तथा सामोजति परन एक गृहस्थ के लिये मुख्य कर्म बनाये हैं।
... (७) नवे परिच्छेदमें अतिथिको भोजन देने और मेहमानदारीका विधान है। जैन शाम्रो गृहस्थ के लिये एक मकन 'मतिषि संविभाग' व्रते है।
(2) उनीसवें परिच्छेदके अंतिम पदमें 'कु' मनुष्यको निज दोषोंकी मालोचना करनेका उपदेश देता है। जैनधर्ममें प्रत्येक गृहस्थके लिये प्रतिक्रमण-दोषों के लिये आलोचनादि करना लाजमी है।
(९) बीसवे परिच्छेदये छायाकी तरह पाप-कोको मनुष्यके साथ कंगा रहते और सर्वस्व नाश करते बताया है, जो सर्वथा जैन मान्यताके अनुकुल है। मरने पर भी जन्मान्तरों तक पाप कर्म मृतामासे लिप्त रहकर उसको कष्टका कारण बनते हैं, यह जैन मान्यता सर्वविदित है।
(१०) पचीसवें परिच्छेदमें जैन शास्त्रोंके सदृश ही निरामिष भोजनका उपदेश है। यदि कुरलका रचयिता जैन न होकर वैदिक ब्राह्मण अथवा बौद्ध होता तो वह इस प्रकार सर्वथा मांस-मदिरा त्याग करनेका उपदेश नहीं दे सकता था; क्योंकि उन लोगोंमें इनका सर्वचा निषेध नहीं है।
१-तत्त्वाधिगम सूत्र । २-भम म०, पृ०.१३-३७
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