Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
Catalog link: https://jainqq.org/explore/035245/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા घाघासाहेब, लापनगर. झेन : ०२७८-२४२५३२२ 5171008 स्मारक ग्रन्थमाला नं० ७ संक्षिप्त जैन इतिहास । भाग ३ खण्ड १ "दिगम्बर जैन " के ३० वें वर्षका उपहारग्रन्थ | - बाबू कामताप्रसादजी-अलीगंज । www.umaragt Sudharmaswami Gyanbhandar Umar com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सविताबाई कापड़िया स्मारक प्रन्थमाला नं० ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ संक्षिप्त जैन इतिहास । भाग ३ - खण्ड १ [दक्षिणभारतके जैनधर्मका इतिहास ।] विभाग १. पौराणिक काल २. ऐतिहासिक काल: १- प्राचीन काल ( ई०पू० ९००० से १ ई०पू० ) २- मध्य काल ( सन्ः १ से १४०० ई० ) ३- अर्वाचीन काल ( उपरान्त )! लेखक:कामताप्रसाद जैन, एम. आर. ए. एस. सम्पादक- वीर व जैन सि० भास्कर, अलीगंज (एटा) प्रकाशक: मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगंबर जैन पुस्तकालय कापड़ियाभवन-सूरत । स्वर्गीय सो० सविताबाई, धर्मपत्नी, मूलचंद किसनशस कापडिया स्मरणार्थ " दिगम्बर जैन " के ३० वे वर्षके ग्राहकों को भेट | प्रथमावृत्ति ] वीर सं० २४६३ मूल्य - रू० १-०-0. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ प्रति १००० www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ("जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस, खपटिया चकला-सूरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ. सविताबाई- aa-स्मारक ग्रंथमागनं.७ - हमारी स्वर्गीय धर्मपत्नी सौ. सविताबाईका वीर सं. २४५६ भादों वदी १० को सिर्फ २२ वर्षकी भल्प मायुमें एक पुत्र चि० बाबूभाई और एक पुत्री चि० दमयंतीको ४ और २ वर्षके छोड़कर पीलियाके रोगसे स्वर्गवास होगया था, उनके स्मरणार्थ उस समय २६१२) का दान किया गया था। जिसमें से २०००) स्थायी शास्त्रदानके लिये निकाले थे, जिसकी आयसे. प्रति वर्ष एक२ ग्रन्थ नवीन प्रकट करके 'दिगम्बर जैन' या 'जैन महिलादर्श' के ग्राहकोंको उपहारमें दिया जाता है। भाज तक इस ग्रंथमालासे निम्न लिखित ६ ग्रंथ प्रकट हो चुके हैं जो, जैन महिलादर्श या दिगम्बर जैनके ग्राहकोंको भेट दिये नाचुके हैं। १-ऐतिहासिक स्त्रियां-(०६० चंदाबाईजी कृत ) ) २-संक्षिप्त जैन इतिहास-(द्वि० भाग प्र० खण्ड) १॥) ३-पंचरन-(वा० कामताप्रसादजी कृत ) ) ४-संक्षिप्त जैन इतिहास-(द्वि० भाग, दि० खण्ड) १३) ५-वीर पाठावली-(बा० कामताप्रसादजी कृत) ) ६-जैनत्व-(रमणीक वी० शाह वकील केत, गुजराती)।) - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और यह ७ वां ग्रन्थ संक्षिप्त बैन इतिहास तृतीय भाग-प्रथम खंड (बा० कामताप्रसादजी कृत) प्रकट किया जाता है जो 'दिगंबर जेन' पत्रके ३० वें वर्षके ग्राहकों को भेट बांटा जा रहा है तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं । भाशा है कि बहुत खोज व परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थोंका जैन समाजमें शीघ्र ही प्रचार होजायगा। इस ऐतिहासिक ग्रन्थ के लेखक बा० कामताप्रसादजीका दि० जैन समाजपर अनन्य उपकार है, जो वर्षोंसे मतीव श्रमपूर्वक प्राचीन जैन साहित्यको खोजपूर्वक प्रकाशमें कार।। ___ यदि जैन समाजके श्रीमान् शास्त्रदानका महत्व समझें तो ऐसी कई स्मारक ग्रन्थमालायें निकल सकती हैं और हजारों तो क्या लाखों अन्य भेट स्वरूप या लागत मूल्यसे प्रकट होसकते हैं, जिसके लिये सिर्फ दानकी दिशा ही बदलनेकी मावश्यक्ता है। पब द्रव्यका उपयोग मंदिरोंमें उपकरण भादि बनवानेमें या प्रभावना बंटवाने में करनेकी भावश्यक्ता नहीं है लेकिन द्रव्यका उपयोग विद्यादान और शास्त्रदानमें ही करनेकी भावश्यक्ता है। निवेदकवीर सं• २४६३ । मूलचन्द किसनदास कापडिया, बाश्विन वदी ३ ) प्रकाशक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार । " संक्षिप्त जैन इतिहास " के पहले दो भाग प्रगट होचुके हैं। आज उसका तीसरा भाग पाठकोंके हाथोंमें देते हुए हमें प्रसन्नता है । यह तीसरे भागका पहला खण्ड है और इसमें दक्षिण भारतके जैनधर्म और जैन संघका इतिहास - पौराणिककालसे प्रारंभिक ऐतिहासिक कालतकका संकलित है । सम्भव है कि विद्वान् पाठक पुराणगत वार्ताको इतिहास स्वीकार न करें, परन्तु उन्हें स्मरण होना चाहिये कि भारतीय शास्त्रकारोंने पुराण वार्ताको भी इतिहास घोषित किया है । जबतक इस पुराण वासके विरुद्ध कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध न हो तबतक उसे मान्य ठहराना हमारा कर्तव्य है । आखिर प्रा ऐतिहासिक कालके इतिहासको जाननेके वही तो एक मात्र साधन हैं - उन्हें हम भुला कैसे दें ? उनके एवं अन्य साक्षीके आधार से हमने दक्षिणभारत में अनधर्मका अस्तित्व अतिप्राचीन सिद्ध किया है । आशा है, विद्वज्जन हमारे इस मतको स्वीकार करने में संकोच नहीं करेंगे। इस अवसर पर हम इन पुराण और शास्त्रकारोंका आभार हृदयसे स्वीकार करते हैं। साथ ही अन्यान्य सम्माननीय लेखकोंके भी हम उपकृत हैं जिनकी रचनाओंसे हमने सहायता ग्रहण की है। यहां पर हम अध्यक्ष, श्री जैन सिद्धांत भवन - मारा और सेठ मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया को भी नहीं भुला सक्ते । उन्होंने आवश्यक साहित्य जुटाकर हमारे कार्यको सुगम बना दिया जिसके लिये वह हमारे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं। आशा है कि जबतक कोई इससे भी श्रेष्ठ जन इतिहास न रचा जाय, तबतक यह पाठकोंकी आवश्यकता की पूर्ति करेगा । एवमस्तु ! (एटा) ता० १६-८-३७ | } विनीत-कामताप्रसाद जैन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण | সও जैन - साहित्य - प्रकाशन के पुनीत कार्यमें Morn दत्त-चित्त, विवेकी मित्र श्री. ए. एन. उपाध्ये महोदय के कर-कमलों में सादर सप्रेम समर्पित । ক ন लेखक | ww Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) संक्षिप्त जैन इतिहास। [लेखक-बाबू कामताप्रसारजी जैन । ] प्रथम भाग-यह ईस्वीसन पूर्व ६०० वर्षसे पहिलेका इतिहास है । इसके ६ परिच्छेदोंमें जैन भूगोलमें भारतका स्थान, ऋषभदेव और कर्मभूमि, अन्य तीर्थंकर आदिका वर्णन है । थोड़ीसी प्रतियां बची हैं। मूल्य ॥3) दुसरा भागः प्रथम खण्ड-यह ईश्वी सन् पूर्व छठी शताब्दीसे सन् १३०० तकका प्रामाणिक जैन इतिहास है। इसे पढ़कर मालूम होगा कि पहले जमाने में जैनोंने कैसी वीरता बतलाई थी। इसमें विद्वत्तापूर्ण प्राकथन, म० महावीर, वीरसंघ और अन्य राजा, तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति, सिकन्दरका आक्रमण और तत्कालीन जैनसाधु, श्रुतकेवली, भद्रबाहु और अन्य भाचार्य, तथा मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त आदिका १२ अध्यायोंमें विशद वर्णन है। पृष्ठ संख्या ३०० मू० १॥) दुसरा भागः द्वितीय खंड-इसमें अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विषयोंका सप्रमाण कथन किया गया है। यथा-चौवीस तीर्थकर, जैन धर्मकी विशेषता, दिगम्बर संघभेद, श्वे० की उत्पत्ति, उपजातियोंकी उत्पत्ति और इतिहास, उत्तरी भारतके राजा और जैनधर्म, मवालियरके राजा व जैनधर्म, मुनिधर्म, गृहस्थ धर्म, अजैनोंकी शुद्धि, जैन धर्मकी उपयोगिता आदि १२५ विषयों का सुबोध और सप्रमाण कथन है । पृ० २०० मूल्य १०) मैनेजर, दिगम्बरजैनपुस्तकालय-सूरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। १-प्राककथन ... . ... २-पौराणिक काल (ऋषभदेव और भरत) ३-अन्य तीर्थकर और नारायण त्रिपृष्ठ .... ४-पोदनपुरके मन्य राना.... ५-चक्रवर्ती हरिषेण ... ६-गम, वक्ष्मण और रावण ७-नाना ऐलेय और उसके वंशज ८-कामदेव नागकुमार .... ९-दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काळ १०-भ० परिष्टनेमि, कृष्ण और पांडव ११-भगवान पार्श्वनाथ .... १२-महाराजा करकण्डु १३-भगवान महावीर .... १४-सम्राट् श्रेणिक, जंबुकुमार और विद्युञ्चर.... १५-नन्द और मौर्य सम्राट १६-मांध्र साम्राज्य १७-द्राविड राज्य ... .....११२ १८-पांड्य राज्य, चोल राज्य, चेर राज्य .... .....११५ १९-दक्षिण भारतका जैन संघ, जैन संघकी प्राचीनता ....१२९ २०-जैन सिद्धांत, श्वेताम्बर जैनी ....१३४ २१-श्री धरसेनाचार्य और श्रुत ऊद्धार .... ....१३७ २२-मुल संघ, श्री कुंदकुंदाचार्य २३-कुरक काव्य २४-उमास्वामी ( उमास्वाति) ....१४७ २५-स्वामी समंतभद्र ....१३९ ... ....१४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची। प्रस्तुत प्रन्थके संकलनमें निम्न ग्रन्थोंसे सहायता ग्रहण की गई . है, जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूपमें यथास्थान किया गया है म अशोकके धर्मख-लेखक श्री जनार्दन भट्ट एम० ५० (काशी, सं० १९८०)। महिए. 'मी हिस्ट्री माफ इन्डिया'-सर विसेन्ट स्मिथ एम. ए० (चौथो भावृत्ति)। मशोक०='पशोक' • सर विन्सेन्ट स्मिथ एम. एम. । .. भाक०='भाराधना कथाकोष' हे. ब्र. नेमिदत्त (जैनमित्र माफिस, सूरत)। माजी०-भाजीविक्स-भाग १ डॉ. वेनी माधव बारमा. डी. लिट् ( कलकत्ता १९२०)। - मासू'माचाराङ्ग सूत्र' मुल (श्वेतांबर नागम ग्रंथ )। पहिड्= बॉक्सफर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया-विन्सेन्ट स्मिथ एम.ए.। बभरिई० मनल्स बाव भंडारकर रिचर्स इंस्टीट्यूट, पूना । बाई-मारीजिनेस इन्नबीटेन्ट्स ऑव इंडिया, बाप्पट सा. कृत (मदास)। नापुलमादिपुराण, पं. लाळाराम द्वारा संपादित (इंदौर)। इऐ०-इन्डियन ऐन्टोकेरी (त्रैमासिक पत्रिका)। इरिई-इन्सायक्लोपेडिया बाफ रिलीजन एण्ड इथिक्स हैट्रिंग्स। ___इंसेजे० इन्डियन सेक्ट माफ दी जैन्स' बुल्हर । इंहिंकणा-इंडियन हिस्टोरीकल क्वार्टली-सं०टा० नरेन्द्रनाथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] इका० अथवा एका०-इपीप्रेफिया कर्नाटिका ( बंगलोर ) । इंए • = इंडियन एन्टीकेरी ( बम्बई ) । उद०='उवासगदसामो सुत्त०' - डॉ० हाणके (Biblo Indica). उपु०६०४. पु. = ' उत्तरपुराण' श्री गुणमद्राचार्य व पं. काळारामजी । उसू० = ' उत्तराध्ययन सूत्र' ( श्वेताम्बरीय आगम ग्रन्थ ) बार्ल कार्पेटियर ( उपसा ) | एइ० = 'एपिप्रेफिया इंडिका' । e= एइमे• या मेएइ० = एन्शियेन्ट इन्डिया एजडिस्क्राइब्ड माई 'मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन' - ( १८७७ ) । एड्ने० एन इपीटोम ऑफ जैनीज्म-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम०ए० । एमिक्षट्रा ० = ' एन्शियेन्ट मिड इंडियन क्षत्रिय ट्राइन्स ' डॉ० विमलचरण लॉ (कलकत्ता ) । एइ० = एन्शियेन्ट इंडिया एनडिस्काइन्ड बाई स्ट्रैबो मेक किंडल ( १८०१ ) । ऐरि०= ऐशियाटिक रिसर्चेन- सर विलियम जोन्स (सन् १७९९ व १९०९ ) । कजाइ० = कनिंघम, जागरफी ऑफ एंशियेन्ट इंडिया - (कलकत्ता १९२४ ) । , कलि०='ए हिस्ट्री ऑफ कनारीन लिट्रेचर ' ई० पी० राइस (H. L. S. 1921 ). कसू० =कल्पसूत्र मूळ ( श्वेतांबरी आगम ग्रन्थ ) । काले ० = कार माइकल लेक्र्स डॉ० डी० बार• भाण्डारकार - कैहिए• = कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया ऐन्शिपेन्ट इंडिया, भा०१- सा० (१९२२ ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] कच० - करकण्डुचरिय, प्रॉव्हीराकाळ द्वारा संपादित ( कारखा) । कुरेइं० = कृष्णस्वामी ऍगरकृत ऐन्शियेन्ट इंडिया (लंदन १९१९) 0= गुसापरि०= गुजराती साहित्य परिषद् रिपोर्ट- सातव ( भाव-नगर सं० १९२२ ) । गौबु० 'गौतमबुद्ध' के० जे० सॉन्डर्स ( H. L. S . ) गैब ० = गजेटियर ऑव बम्बई, भाण्डारकर व्यादि कृत । गेमकु० गैज़ेटियर ऑव मैसूर एण्ड कुर्ग । 0 0 चमभ० = ' "चन्द्रराज भण्डारी कृत भगवान महावीर' | जवि ओसो० = जनरल बाफ दी बिहार एण्ड ओडीसा रिसर्च सोसाइटी' | जम्बू ० = जम्बूकुमार चरित्र ( सूरत वीराब्द २४४० ) जमीसो० = जर्नल ऑफ दी मीथिक सोसाइटी - बेंगलोर । जराएसा० = जर्नल ऑफ दी रायक एसियाटिक सोसाइटी - लंदन | जैका०=' जैन कानून ' ( श्री० चम्पतरायजी जैन विद्यामा ० बिजनौर (१९२८ ) । बैग ० = " ० ' "जैन गजट ' अंग्रेजी ( लखनऊ ) | जैप्र० - जैनधर्म प्रकाश ब्र० शीतलप्रसादजं) (बिजनौर १९२७) । जैस्तू • = जैन स्तूप एण्ड मदर एण्टीकटीज ऑफ मथुरा - स्मिथ । जैसासं० = 'जैन साहित्य संशोधक' मु० जिनविजयजी (पूना) । जैसिभा० = जैन सिद्धान्त भास्कर श्री पद्मराज जैन (कलकत्ता) । जैशि सं०' जैन शिलालेख संग्रह'- प्रो० हीरालाल जैन (माणि-कचन्द्र प्रन्थमाळा । जैहि० = जैन हितैषी सं० पं० नाथूरामजी व पं० जुगल किशो-रजी (बम्बई ) । • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] असू० (Js.) जैन सूत्राज (S. E. Series, Vols. XXII & XLV ). जम्बू० जम्बूकुमार चरित (माणिकचन्द्र प्रन्थमाला, बम्बई) जैसाइं०-प्रो०एस० भार शर्मा कृत जैनीज्म इन साउथ इंडिया। टॉरा०-टॉडसा• कृत राजस्थानका इतिहास वेङ्कटेश्वर प्रेस । डिजेवा०= ए डिक्शनरी नाफ जैन बायोग्रेकी' श्री उमरावसिंह टॉक (बारा)। तक्ष ='ए गाइड टू तक्षशका'-सर जॉन मारशळ (१९१८)। तत्वार्थ-तत्वार्थाधिगम्सुत्र श्री उमास्वाति S. B.J. Vol.1 तिप = तिल्लोय पण्णत्त' श्री यति वृषभाचार्य (बैन हितेषी मा० १३ अंक १२)। दिजै०='दि० जैन मासिक पत्र सं. श्री. मुलचन्द किसनदास कापडिया (सूरत)। दीनि=०दीवनिकाय' ( P. T. S.) नाच =नायकुमार चरिउ ( माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई)। परि० परिशिष्ट पर्व-श्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजैछेसं० चाचीन जैन लेख संग्रह कामताप्रप्ताद जैन (वर्धा)। प्रसा० उपचनसार, प्रॉ० ए०एन० उपाध्ये द्वारा संपादित बंबई। पविमो जैस्मा बंगाल, बिहार, मोडीसा जैन स्मारक-मी.. ब्रह्मचारी शीतळप्रसादजी (सूरत)। बजैस्मा बंबई प्रांत के प्राचीन जैन स्मारक व शीतलप्रसादनी। बुइ-बुद्धिष्ट इंडिया प्रॉ० होस डेविड्स । बुस्ट -बुद्धिस्टिक स्टडीज, डा. विमचरण लॉ द्वारा संपादित कलकत्ता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] मपा० - भगवान् पाश्र्वनाथ-के० कामताप्रसाद जैन (सूरत) । भम० = भगवान महावीर 73 " " ango = भगवान महावीर और म०बुद्ध कामताप्रसाद जैन (सूरत) ममी० भट्टारकमीमांसा (गुजराती) सूरत । ममम० = भगवान महावीर की अहिंसा (दिल्ली ) भाई - भारतवर्षका इतिहास- डॉ० ईश्वरीप्रसाद डी० किट् ( प्रयाग १९२७ ) । 1 भामशो० = प्रशौक - डॉ० भाण्डारकर ( कळ रत्ता ) । भाप्रारा० = भारतके प्राचीन राजवंश श्री • विश्वेश्वर नाथ रेड बंबई | भाप्रासइ० = भारत की प्राचीन सभ्यताका इतिहास, सर रमेशचंद्र दत्त । मजैइ० = मराठी जैन इतिहास | . O मनि०= मज्झिम०=} मज्झिमनिकाय P. T. S. ममप्र ने मा० = मद्रासमैसूर के प्रा० जैनस्मारक ब्र० शीतकप्रसाद जी | - महा० महावग्ग ( S. B. E. Vol. XVII ). मिलिन्द्र० = मिलिन्द पन्ह ( S. B. Vol. XXXV.) मुरा० = मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू ड्रामेटिस वर्कस, विकसन । 'मुला०=मुळाचार वट्टकेर स्वामी (हिन्दी भाषा सहित बम्बई ) । ..मैबु० = मैन्युक ऑफ बुद्धिज्म - ( स्पेनहार्डी) । मैrशो० = शोक मैकफेक कृत ( H. L. S. ) मारि० = माडर्न रिभ्यू, सं० रामानंद चटर्जी (कलकत्ता) । मैकु० = मैसूर एण्ड कुर्ग फ्राम इंस्क्रिपशन्स - राइस (बंगलोर) । - मैबु - मैन्युल आफ बुद्धिज्म - ( स्पेनहार्डी ) मोद० = मोहेनजोदरो- - सर जॉन मारशळ ( लन्दन ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [24] रथा ० = रत्नकरण्ड श्रावकाचार सं० पं० जुगल किशोरजी (बम्बई) शइ० - राजपूतानेका इतिहास भाग १ - रा० ब० पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझा । रिइ० = रिलिंगस ऑफ दी इम्पायर -- ( लन्दन ) । लाभाम•=ठाइफ ऑफ महावीर का० माणिकचंद्रजी (इलाहाबाद ) । कामाई ० = भारतवर्षका इतिहास छा० काजपतरायकृत (लाहौर)। लाम० कार्ड महावीर एण्ड मधर टीचर्स ऑफ हिज टाइमकामताप्रसाद (दिल्ली ) । 0= ढावबु० = लाइफ एण्ड वर्कस ऑफ बुद्ध घोष - डॉ० विमलाचरण कॉ ( कलकत्ता ) । लामने ० कार्ड परिष्टनेमि, (दिल्ली ) । : G - बृजेश० बृहद् जैन शब्दार्णव- पं० बिहारीलाल चैतन्य । विर० = विद्वद् रत्नमाला पं० नाथूरामजी प्रेमी ( बम्बई ) । विभा०-विशालभारत, सं० श्री बनारसीदास चतुर्वेदी कळकत्ता | श्रव०-श्रवणबेळगोळा, रा० ब० प्रो० नरसिंहाचार एम० ए० ( मद्रास ) । श्रेच० = श्रेणिक चरित्र ( सूरत ) । समामिवा ० = तर माशुतोष मोरियल वॉल्यूम ( पटना ) । 1 सकौ ० = सम्यक्त्व कौमुदी ( बम्बई ) । सजै० = सानतन जैन धर्म - अनु०कामताप्रसाद ( कलकत्ता ) । संजैइ० - संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग कामताप्रसाद (सूरत) सडिजे ० =सम डिस्टिन्गुइझ्ड जेन्स उमरावसिंह टांक (आगरा) । संप्राजेस्मा ० = संयुक्त प्रांतके प्राचीन जैन स्मारक - ब्र० शीतल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] स्साइजैक स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म प्रो. रामस्वामी मायंगर । ससू०-सम्राट अकबर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (आगरा) सक्षदाएइ०सम क्षत्री ट्राइब्स इन एन्शियन्ट इंडिया-डा० विमलचरण ला। साम्स साम्स माफ दी ब्रदरेन । मुनि सुत्तनिपात (S. B. E.)। साइजै० स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म प्रो. रामास्वामी मायंगर । हरि०=हरिवंशपुराण-श्री जिनसेनाचार्य (कलकत्ता)। .. हॉवे. हॉट गाफ जैनीज्मः मिसेन स्टोकेसन (सादन)। । हिस्ट्री लाफ दी मार्यन रूक इन इंडिया-हैवेल । हिग्ली =हिस्टोरीकल ग्लीनिंगस-डॉ. विमलचरण लॉ। हिटे:-हिन्दू टेल्स-जे. जे. मेयर्स । हिडाव०=हिन्दू ड्रामेटिक व विलसन् । हिप्रोइफि हिस्ट्री नाफ दी प्री-बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी बारुमा (कलकत्ता)। हिलिन०=हिस्ट्रो एण्ड लिट्रेचर ऑफ जनीज्म-बारोदिया (१८०९) हिवि. हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रनाथ वसु (कलकत्ता)। क्षत्रीक्लेन्स-क्षत्रोक्लेन्स इन बुद्धिष्ट इंडिया-डा० विमलाचरणला। हमारू" " नानस नरूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः । संक्षिप्त जैन इतिहास | ।।। भाग तीसरा - खण्ड पहला । ( अर्थात् दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास ) Wwuote Vin प्राक्कथन । जैनधर्म तात्विकरूपमें एक अनादि प्रवाह है, वह सत्य है, एक विज्ञान है । उसका प्राकृत इतिहास वस्तुस्वरूप है । वस्तु सादि नहीं अनादि है, कृत्रिम नहीं अकृत्रिम है, नाशवान नहीं चिरस्थायी है, कूटस्थ नित्य नहीं पर्यायका घटनाचक्र है। इस लिये विश्वके निर्मापक पदार्थोंका इतिहास ही जैनधर्मका इतिहास है। और विश्वके निर्मापक पदार्थ तत्ववेत्ताओंने जीव और अजीव बताये हैं । चेतन पदार्थ यदि न हो तो विश्व अंधकारमय होजाय । उसे जाने और समझे कौन ? और यदि अचेतन पदार्थ न हो तो इस संसार में जीव रहे किसके आश्रय ? प्रत्यक्ष हमें विश्व और उसके अस्तित्वका ज्ञान है। वह है और अपने अस्तित्व से जीव और अजीवकी स्थिति सिद्ध कर रहा है | परन्तु यह जीव और अजीव आये कहांसे ? यदि इन्हें किसी नियत समयपर किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा बना हुआ कहा जाय तो यह अखण्ड और कृत्रिम या अनादि नहीं रहते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिम जैन इतिहास। खण्डोंके बने हुथे होने के कारण इन्हें नाशवान भी मानना पड़ेगा । पर अनुभव ऐसा नहीं है। चेतन कभी मरता नहीं देखा गया और न उसका ज्ञान टुकडोंमें बटा हुमा अनेकरूप अनुभवमें भाया । इसलिये वह अनन्मा है । संसारमें वह अनादिसे मजीवके संसर्गमें पड़ा हुमा संसरण कर म्हा है । जीव-मजीवका यह सनातन प्रवाह अनन्तका इतिहास है । उसका प्रत्यक्ष अनुभव पूर्ण ज्ञानी बननेपर होता है । जैन सिद्धान्त ग्रंथोंमें उसका रूपरङ्ग और उपाय वर्णित है । जिज्ञासुगण उनसे मानी मनस्तुष्टि कर सकते हैं। किन्तु धर्म अथवा वस्तुस्वरूपके इस सनातन प्रवाहमें उसका वर्तमान इतिहास जान लेना उपादेय है। वर्तमान में उसका निरूपण कैसे हुआ ? उसकी समवृद्धि कैसे हुई ? किन किन लोगोंने उसे कैसे अपनाया ? उसके यथार्थ रूपमे धब्बे कैसे कगे ? और उनसे उसके कौनरसे विकृत-रूप हुये ? उन विकृत रूपोंके कारण मूल धर्मका कसा हास हुभा ? इत्यादि प्रश्न हैं जिनका उत्तर पाये विना मनुष्य अपने जीवनको सफल बनाने में सिद्ध-मनोरथ नहीं हो सकता । इसीलिये मनुष्य के लिये इतिहास-शस्त्रो ज्ञानकी आवश्यक्ता है। वह मनुष्य के नैतिक उत्थान और पतन का प्रतिबिम्ब है। धर्म और अधर्म, पुण्य और पापके रङ्गमंच का चित्रपट है। उसका बाह्यरूप राज्योंके उत्कर्ष और अपकर्ष, योद्धाओंकी जय और पराजयका द्योतक है; परन्तु यह सब कुछ पुण्य पापका खेल ही है। इसलिये इतिहास वह विज्ञान है जो मनुष्यजीवनको सफल बनानेके लिये नैतिक शिशा खुली पुस्तककी तरह प्रदान करता है। वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न / [ ३ मनुष्य में विवेक, उत्साह और शौर्यको जागृत कर उसे बिजयी वीर बनाता है, इसीलिये उसकी आवश्यक्ता है । जैन धर्मका इतिहास उसके अनुयायियोंकी जीवन माथा है; क्योंकि धर्म स्वयं पगु है - वह धर्मात्माओं के आश्रय है । इस बातको लक्ष्य करके पहले जैन इतिहासके तीन खंड लिखे जा चुके हैं। उनके पाठसे पाठकगण जान गये हैं कि धर्मका प्रतिपादन इस कालमें सर्व प्रथम कर्मयुग के आरम्भ में भगवान ऋषभदेव द्वारा हुमा था । भगवान ऋषभदेव के पहले यहां भोगभूमि थी। यहांके प्राणियोंको जीवन निर्वाहके लिये किसी प्रकारका परिश्रम नहीं करना होता था । उनका जीवन इतना सरल था कि वह प्राकृतरूपमें ही अपनी व्यावश्यक्ताओं की पूर्ति कर लेते थे । जैन शास्त्र कहते हैं कि 'कल्पवृक्षों' से उन लोगोंको मनचाहे पदार्थ मिल जाते थे । वह मनमाने भोग भोगते और जीवनका मजा लूटते थे । किन्तु जमाना हमेशा एकसा नहीं रहता । वह दिन वीत गये जब यहां ही स्वर्ग था । लोग उतने पुण्यशाली जन्मे ही नहीं कि स्वर्ग-सुखके अधिकारी इस नरवाममें ही होते । जैन शास्त्र बताते हैं कि जब एक रोज कल्पवृक्ष नष्ट हो चले, लोगों को पेटका सवाल हल करने के लिये बुद्धि और बळका उपयोग करना नावश्यक होगया, परन्तु वे जानते तो थे ही नहीं कि उनका उपयोग कैसे करें ? वे अपने में मेधावी पुरुषोंको खोजने लगे, उन्होंने उनको कुलकर या मनु कहा । इन कुलकरोंने, जो कुल चौदह थे, लोगोंको जीवन निर्वाह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | करनेकी प्रारम्भिक शिक्षा दी। बारहवें कुलकरका नाम मरुदेव था। उन्होंने नाविक शिक्षाके साथ २ लोगोंको दाम्पत्यजीवनका महत्व हृदयङ्गम कराया। उन्हीं के समय से कहना चाहिये कि कर्मशीक नर-नारियोंने घरगिरस्ती बनाकर रहना सीखा। शायद यही कारण है कि वैदिक साहित्य में भारतके यादि निवासी 'मुरुदेव' भी कहे गये हैं। अंतिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी रानी मरुदेवी थीं। इन्हीं दम्पतिके सुपुत्र भगवान ऋषभदेव थे । भगवान ऋषभदेवने ही लोगोंको ठीकसे सभ्य जीवन व्यतीत करना सिखाया था । उनके पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोंका ही यह सुफल था कि स्वयं इन्द्रने आकर उनके सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारमें सहयोग प्रदान किया था । कुटुंबको उनकी कार्यक्षमता के अनुसार उन्होंने तीन वर्गोंमें विभक्त कर दिया था, जो क्षत्री, वैश्य और शूद्रवर्ण कहलाते थे । जब धर्मतीर्थ की स्थापना होचुकी तब ज्ञानप्रसारके लिये ब्राह्मणवर्ग भी स्थापित हुआ । इसतरह कुल चार वर्णो समाज विभक्त करदी गई; किन्तु उसका यह विभाजन मात्र राष्ट्रीय सुविधा और उत्थान के लिये था । उसका बाधार कोई मौलिक भेद न था । उस समय तो सब ही मनुष्य एक जैसे थे । नैतिक व अन्य शिक्षा मिलनेपर जैसी जिसमें योग्यता और क्षमतादृष्टि पड़ी वैसा ही उसका वर्ण स्थापित कर दिया गया; यद्यपि सामाजिक सम्बन्ध - विवाह शादी करनेके लिये सब स्वाधीन थे । दक्षिण भारत में भी इस व्यवस्थाका प्रचार था, क्योंकि वहांके साहि १- भा० पर्व ३ व १२ । २ -संजेह० १।२१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मायकन। स्वसे भी इन्हीं चार वर्णों का पता चलता है और इनके जीवननिर्वाहके लिये ठीक वही भाजीविकाके छह उपाय बताये गये हैं जो उत्तर भारतमें मिलते हैं।' जैन शास्त्रोंमें उत्तर और दक्षिण भारतके मनुष्योंमें कोई भेद नजर नहीं पड़ता । इससे मालूम होता है कि उनमें उस समयका वर्णन है, जब कि सारे भारतमें एक ही सभ्यता और संस्कृति थी। उस समय वैदिक मार्योका उनको पता नहीं था। प्राचीन शोध भी हमें इसी दिशाकी ओर लेजाती है। हरप्पा और मोहनजोदरोकी ईस्वीसे पांचहजार वर्षों पहलेकी सभ्यता और संस्कृति वैदिक धर्मानुयायी आर्योकी नहीं थी, ययपि उसका सादृश्य और साम्ब द्राविड़ सभ्यता और संस्कृतिसे था, यह माज विद्वानोंके निकट एक मान्य विषय है। साथ ही यह भी प्रकट है कि एक समय द्राविड़ सभ्यता उत्तर भारत तक विस्तृत थी। सारांशतः यह कहा जासक्ता है कि वैदिक मार्योंके पहले सारे भारतवर्षमें एक ही सभ्यता और संस्कृतिको माननेवाले लोग रहते थे। यही वजह है कि जैनशाम्रोंमें. उत्तर और दक्षिणके भारतीयोंमें कोई भेद दृष्टि नहीं पड़ता ! १-'थोलकाप्पियम्' जैसे प्राचीन ग्रंथसे यही प्रगट है। वोके नाम (१) बरसर अर्थात् क्षत्री, (२) मनयेनर अर्थात् ब्राह्मण, (३) वणिकर, (४) बिल्लालर (कृषक) क्षत्रीवर्ण जैन प्रन्योंकी भांति पहले बिना गया है। २-मास्शल, मोद. भा. १ पृ. १.९-११.१ * * comparison of the lndus and Vodio Culture shows in contostably that they were unrelated." (p. 110), Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित जैन इतिहास । किन्तु प्रश्न यह है कि वैदिक आर्योसे पहले जो लोग भार. तमें रहते थे वह कौन थे ? यदि हम मेजर जेनरल फरलाँग सा० के अभिमतको मान्य ठहरायें तो इस प्रश्नका उत्तर यह होगा कि वे द्राविड़ भौर जैनी थे । और सब ही मरुदेव या नाभिराय कुलकरकी सन्तान थे ।' उनकी एक सभ्यता थी, एक संस्कृति थी और एक धर्म था, जैसा कि कुलकरों और मादिब्रह्मा ऋषभदेवने निरधारित किया था। परन्तु इस प्रभपर जरा अधिक गहरा विचार वान्छनीय है-मनस्तुष्टि गंभीर गवेषणासे भली होती है। निस्सन्देह यह स्पष्ट है कि भारतके आदि निवासी वैदिक मान्यताके मार्य नहीं थे। उनके मतिरिक्त भारतमें दो प्रकारके मनुष्योंके रहनेका पता चलता है। उनमेंसे एक सभ्य थे और दुसरे विस्कुल असभ्य थे। पहले लोगोंका प्राचीन साहित्यमें नाग, ममुर, द्राविड़ आदि नामोंसे उल्लेख हुभा मिलता है और दूसरे प्रकारके मसभ्य लोग 'दास' कहे गये हैं। किन्हीं लोगोंका अनुमान है कि इन्हीं 'दास' गोगोंमेंसे शुद्र वर्णके लोग थे । सभ्य लोग १. फरलांग सा० लिखते हैं कि "अनुमानतः ई० पूर्व १५००से "८०० बल्कि अगणित समय से पश्चिमीय तथा उत्तरीय भारत तूगनी या द्राविड़ों द्वारा शासित था ।....उसी समय उत्तरीय भारतमें एक पुराना, सभ्य, सैद्धान्तिक और विशेषतः साधुओंका धर्म अर्थात् जैन धर्म भी विद्यमान था । इसी धर्मसे ब्राह्मण और बौद्ध धर्मोंके सन्यास शास्त्रोंने विकास पाया ।"Short studies in the Science of Comparative Religions, (pp. 243-4) २. अई, पृ० भू० ३ १ १-६४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथकन। [७ मुख्यतया असुर नामसे ही विख्यात थे। अब जरी देखिये, वैदिक साहित्यमें इन असुर लोगोंकी यह खास विशेषतायें वर्णित हैं: (१) मसुर लोग 'प्रजापति' की सन्तान थे और उनकी तुलना वैदिक देवताओंके समान थी। (२) मसुर लोगोंकी भाषा संस्कृत नहीं थी। पाणिनिने उन्हें व्याकरणके ज्ञानसे हीन बताया है। ऋग्वेद (७।१८-१३ ) में उन्हें 'विरोधी भाषा-भाषी' (of hostile speech) और वैदिक मार्योका शत्रु ( १।१७४-२) कहा है। (३) असुर ध्वचिह्न सर्प और गरुड़ थे। (४) असुर क्षात्रधर्म प्रधान थे। (५) असुर लोग ज्योतिष विद्यामें निष्णात थे। (ऋग्वेद १।२८।८) (६) माया या जादू (magic) असुरका गुण था। (ऋग्वेद १।१६०-२३) असुर लोगोंकी यह विशेषतायें आज भी जैनियोंके लिये भनूठी हैं । जैन शास्रो आदिब्रह्मा ऋषभदेव 'प्रजापति' भी कहे गये हैं।' आजके जैनी उनकी सन्तान हैं और वे भी अन्य हिन्दु ओंकी तरह आर्य ही हैं । जैनियोंकी भाषा संस्कृतसे स्थानपर प्राकृत रही है। जिसका व्याकरण अथवा साहित्यकरूप संस्कृतसे शायद भर्वाचीन है। प्राकृत संस्कृतसे भिन्न ही है। इसलिये जैनियों और असुरोंकी भाषा भी सदृश प्रगट होती है। असुर चिह्न सर्प १. महापुराण-जिनसहस्रनाम - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित न इतिहास । जैनोंमें विशेष रूढ़ है। एकसे अधिक जैन तीर्थकरों और शासन देवताओंसे उसका सम्बन्ध है। हां, गरुड़का चिह्न जैनोंमें उतना प्रचलित नहीं है । जैनोंके सब ही तीर्थङ्कर क्षत्री थे और उनकी शिक्षा प्रत्येक मनुष्यको क्षात्र धर्मका अनुयायी बना देती है। बैनियोंका माध्यात्मिक क्षात्रधर्म अनूठा है। ब्राह्मणों और बौद्धोंने जैनियोंको ज्योतिष विद्या निष्णात लिखा है और प्राचीन भारतमें जैन मान्यतानुसार ही कालगणना प्रचलित थी। इन विधर्मियोंने जैन तीर्थकरोंकी बाह्य विभूति देखकर उन्हें इन्द्रजालिया (जादुगर ) आदि कहा है। इस प्रकार असूर लोगोंकी खास विशेषतायें जैनोंमें मिलती हैं। उसपर उपरान्त मसूर लोगोंद्वारा मर्थवेदकी मान्यताका उल्लेख है, निसे ऋषि अङ्गरिसने रचा था। यह ऋषि अनरिस स्वयं एक समय जैन मुनि थे। इस साक्षीसे भी असुरोंका जैनधर्मसे सम्बंधित होना प्रगट है। अन्ततः वैदिक पुराण ग्रन्थोंके निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि असुर भी एक समय जैनधर्मानुयायी थे: (१) 'विष्णुपुराण' (म० १७-१८) में एक कथा है जिसका संक्षेप इसप्रकार है कि एक समय देवता और मसुरोंमें १. पञ्चतंत्र (१।१) प्रबोध चन्द्रोदय नाटक, न्यायविन्दु म. ३ भादि० । न्यायबिन्दु में लिखा है: “ यथाः सर्वज्ञ भाप्तो वा स ज्योतिर्बानादिकमुपदिष्टवान् । यथा ऋषभवर्धमानादिरिति । " २. बळवेखनीका भारत वर्ष देखो-उसने कालगणनामें अब. सर्पिणीका उल्लेख किया है। ३. बृहतस्वयंभूस्तोत्रादि । ४. "दिजै"-विशेषांक.... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रायन। बड़ा भारी युद्ध हुभा तब देवता हार गये और असुर जीत गये । हारे हुबे देवगण विष्णु भगवानकी शरणमें माये और बहुत स्तुति करके कहा कि महाराज, कुछ ऐसा उपाय कीजिये जिससे हम असुरोंपर विजय प्राप्त कर सकें। विष्णु भगवानने यह सुनकर अपने शरीरसे एक मायामोह नामका पुरुष उत्पन्न किया । वह दिगम्बर घुटे सिरवाला और मोर पिच्छिधारी था। इस मायामोहको विष्णुने उन देवोंको देकर कहा कि यह मायामोह अपनी माया ( जादु ) से असुरों या दैत्योंको धर्म-भ्रष्ट कर देगा और तब तुम विजयी होंगे। मायामोह देवोंके साथ भसुरोंके पास पहुंचा और उन्हें बहुत तरह समझाकर बताया कि आहेत (जैन) धर्म ही श्रेष्ठ है-इसे धारण करो। मसुरोंने मावामोहका उपदेश स्वीकार किया और वे धर्मभ्रष्ट होगये । तब देवोंने उन्हें जल्दी ही परास्त कर डाला। इस कथामें वर्णित मायामोह एक दिगम्बर जैन मुनि हैं और उन्हें मायाजाली (जादुगर) बताया १. इत्युक्तो भगवास्तेभ्यो मायामोहं शरीरतः । समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राह चेदं सुरोत्तमान् ॥ ४१ ॥ मायामोहोयमखिलान् दैत्यांस्तान मोहयिष्यति । ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्गबहिष्कृताः ॥ ४२ ॥ स्थितौ स्थितस्य मे बध्या पावन्तः परिपन्थिनः । ब्रह्मणो येऽधिकारस्था देवदैत्यादिका: सुराः ॥ ४३ ॥ तद्गच्छत नभीका महामोहोऽयममतः । गच्छत्वद्योपकाराय भवतां भविता मुराः ॥ ४४ ॥ इत्यादि। विष्णुपुराण १० १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] संक्षिप्त जैन इतिहास | है । उनका धर्म स्पष्ट रूपसे माईत मत (जैन धर्म) कहा गया है। नर्मदातटपर बसनेवाले असुरोंको उन्होंने जैनधर्म-रत बनाया था । मसुरोंकी पूर्वोल्लिखित विशेषतायें इन जैनी असुरोंमें मिल जाती हैं। (२) एक ऐसी ही कथा हिन्दू 'पद्मपुराण' ( प्रथम सृष्टि खड १३ पृ० ३३) पर अंकित है और उसमें भी मायामोह जो दिग म्बर मुंडे सिर और मोर पिच्छिकाधारी योगी (योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपत्रधरोशयं ) था, उसके द्वारा असुरोंका जैनधर्म रत होना लिखा है।' (३) 'देवी भागवत' ( चतुर्थ (कंघ अध्याय १३ ) में कथन है कि शुक्राचार्य अपने असुर दैत्यादि यजमानोंको देखने गये तो क्या देखते हैं कि छळवेषधारी बृहस्पतिजी उन असुरोंको जैन धर्मका उपदेश देते हैं । वह असुरोंको ' देवोंका वैरी' कहकर सम्बोधन करते हैं, जैसे कि ऋग्वेदमें असुरोंको कहा गया है । १. बृहस्पतिसाहाय्यार्थे विष्णुना मायामोहसमुत्पादनम् दिगम्बरेण मायामोहेन देस्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः दानवानां मायामोहमोहितानां गुरुणा दिगम्बर जैनधर्मदीक्षादानम् ।' ( पद्मपुराण- वेंकटे श्वर प्रेस बम्बई पृ० २) इस पुराणमें दैत्य, दानव और असुर शब्द समवाची पर्थ में व्यवहृत हुये हैं, क्योंकि अंत में लिखा है 'त्रयीधर्मसमुत्सृज्य मायामोहेन तेऽसुराः ।' २. 'रूपधरं सौम्यं बोधयंत कुलेन तान् । जैनधर्म कृतं स्वेन यज्ञनिंदा परं तथा ॥ १४ ॥ भो देवरिपवः सत्यं ब्रवीमि भवतां हितम् । महिंसा परमो धर्मोऽहंतव्याद्याततायिनः ॥ ५५ ॥ इत्यादि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायकन । [११ (४) ' मत्स्यपुराण ' (० २४ ) में भी देवासुर युद्धका प्रसंग आया है और उसमें भी उनमें जैन धर्मका प्रचार होना वर्णित है।' इन उद्धरणोंसे सिद्ध है कि भारतके प्राचीन निवासी असुर लोगोंमें जैनधर्मका प्रचार रहा है। वे देवासुर संग्रामके समय जैनी थे । इसलिये वैदिक आर्योकी सभ्यता और संस्कृतिसे पृथक् और प्राचीन जो सभ्यता और संस्कृति सिन्धु उपत्ययकामें मिलती है वह जैन धर्मानुयायी असुर लोगोंकी कही जासकती है और उसका सादृश्य द्राविड़ सभ्यतासे है। इसलिये उन दोनोंको एक मानना मनुचित नहीं है । जैन ग्रन्थोंसे एक अखिल भारतीय सभ्यता और संस्कृतिका ही पता चलता है। मोहनजोदरोकी मुद्राओंपर विद्वानोंने ऐसी मूर्तियां और वाक्य पढ़े हैं जिनका सम्बन्ध जैन धर्मसे है । एक मुद्रापर 'जिनेश्वर' शब्द लिखा हुआ पढ़ा गया है। मुद्रामोंपर अङ्कित मूर्तियां योगनिष्ठ कायोत्सर्ग मुद्रावाली नम हैं, जैसी कि जैन मूर्तियां होती हैं। एक पद्मासन मूर्ति तो ठीक भगवान पार्श्वनाथकी सर्पफणमण्डल युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। उनकी नासाग्र दृष्टि, कायोत्सर्ग मुद्रा और वृषभादि चिह्न ठीक जिन मूर्तियोंके समान हैं। यह समानता भी उन मूर्तियोंको जैन धर्मानुयायी पुरुषोंद्वारा निर्मित प्रगट करती हैं। १. पुरातत्य, भा० ४ पृ. १७६ २. इंहिका० भा०८ परिशिष्ट पृ० ३० ३. Modern Review, August 1932, pp. 155-160 ४. मोद०, मा० १ पृ. ६० Plato XIII, 15, 16. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] संक्षिप्त जैन इतिहास । उधर जैन शास्त्रोंसे यह प्रगट ही है कि उत्तर भारतकी तरह दक्षिण भारतके देशोंमें भी सर्व प्रथम भ० ऋषमदेव द्वारा ही सम्यता और संस्कृतिका प्रचार हुमा था। जब वह समूचे देशकी व्यवस्था करने लगे थे, तब इन्द्रने सारे देशको निम्नलिखित ५२ प्रदेशोंमें विभक्त किया था:___"सुकौशल, अवंती, पुंड, उंडू, अश्मक रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, मुराष्ट्र, मामीर, कोंकण, वनवास, मांध्र, कर्णाट, कोशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, सूरसेन, अपरांत, विदेह, सिंधु, गांधार, यवन, चेदि, पल्लव, कांबोज, मारट्ट, वाल्हीक, तुरुष्क, शक, और केकय ।" १. " देशाः सुकोशलावतीपुड्रोडाश्मकरम्यकाः । कुरुकाशीकलिंगांगबंगसुह्याः समुद्रकाः ॥ १५२ ॥ काश्मीरोशीनरानर्तवत्सपंचाळमालवाः । दशाः कच्छमगधा विदर्भा कुरुजांगलं ॥ १५३ ॥ करहाटमहाराष्ट्रसुराष्ट्राभीरकोंकणाः । बनवासांध्रकर्णाटकोशलाश्चोलकेरलाः ॥ १५४ ॥ दार्शभिसारसौवीर शूरसेनापरांतकाः । विदेहसिंधुगांधारयवनाश्वेदिपल्लवाः ॥ १५ ॥ कांबोजाग्वाल्हीमापाशककेकयाः । निवेशितास्तथान्येपि विमक्ता विषयास्तदा" ॥ १५६ ॥ - मादिपुराण पर्व १६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथान। [१३ इनमें अश्मक रम्यक, करहाट, महाराष्ट्र, आमीर, कोंकण, वनवास, मांध्र, कर्णाट, चोल, केरल आदि देश दक्षिण भारतमें मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि भ० ऋषभदेव द्वारा इन देशोंका मस्तित्व और संस्कार हुमा था । अतः दक्षिण भारतमें जैन धर्मका इतिहास उस ही समय अर्थात् कर्मममिकी आदिसे ही प्रारंभ होता है। इस अपेक्षा हमें उसे दो भागोंमें विभक्त करना उचित प्रतीत होता है; अर्थात्:(१) पौराणिक काल:-इस अन्तरालमें भगवान ऋषभ देवसे २१ वें तीर्थकर भ. नमिनाथ तकका संक्षिप्त इतिहास समाविष्ट होजाता है। (२) ऐतिहासिक काल:-इस अन्तराळमें उपरान्तके तीर्थङ्करों और भाजतक हुये महापुरुषोंका इतिहास गर्भित होता है। यह अन्तराल निम्न प्रकार तीन भागोंमें बांटना उपयुक्त है। अर्थात्:(१) प्राचीनकाल (ई० पूर्व ५००० से ई० पूर्व १) (२) मध्यकाल ( सन् १ से १३०० ई० ) (३) अर्वाचीनकाल ( उपरान्त ) भागेके पृष्टोंमें इसी उपर्युक्त क्रमसे दक्षिण भारतके जैन इतिहासका वर्णन करनेका उद्योग किया गया है। पहले ही 'पौराणिक काल' का विवरण पाठकोंके समक्ष उपस्थित किया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० जैन इ० भाग ३ खंड १. पौराणिक काल । दक्षिण भारतका इतिहास । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। ("भ० ऋषभदेव और सम्राट् भरत") भगवान ऋषभदेव अथवा वृषभदेव जैन धर्ममें माने गये इस भबसर्पिणीकालके पहले तीर्थङ्कर थे। जैन धर्ममें तीर्थङ्करसे भाव उस महापुरुषसे है जो इस संसार-समुद्रसे पार उतारने के लिये और मोक्षस्थानको प्राप्त होने के लिये एक धर्म-तीर्थकी स्थापना करते हैं। ऋषभदेव एक ऐसे ही तीर्थङ्कर थे । पर साथ ही उनको 'कुलकर' या 'मनु' भी कहा गया है । वह इसलिये कि उन्होंने ही वस्तुतः मनुष्यको सभ्य और संस्कृत जीवन व्यतीत करना सिखाया था। यह पहले लिखा जाचुका है कि भगवान ऋषभदेव मन्तिम कुलकर नाभिराय और उनकी रानी मरुदेवीके सुपुत्र थे । हिन्दु पुराण ग्रन्थों में उनकी गणना अवतारोंमें की गई है और उन्हें माठवां अवतार कहा गया है। भगवानका जन्म चैत्र कृष्णा ९ को अयोध्यामें हुमा था और उनका जन्म-महोत्सव खूब धूमधामसे मनाया गया था। वह धर्मके प्रथम उपदेष्टा थे, इसलिये उनका नाम 'श्री वृषभनाथ' रक्खा गया था। जिस समय वह रानी मरुदेवीके गर्भमें थे, उस समय उनकी मांने सोलह शुभ स्वप्न देखे थे, जिनके अंतमें एक सुन्दर बैल था । संस्कृतमें बैलको 'वृषभ' कहते हैं और मलं. कृत भाषामें वह धर्मतत्वके लिये व्यवहृत हुआ है।' इसलिये ही १-भम० पृ० १२-४७: दी परमानेन्ट हिन्दी भाष इंडिया देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । भगवानका ध्वजचिन्ह भी ' वृषभ ' ( Bull) था । भगवान ऋषभ - देवकी जो मूर्तियां मिलती हैं उनमें यह बैलका चिह्न मिलता है। " भगवान ऋषभदेव स्वयं ज्ञानी थे। मानवोंमें सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी युवावस्थाकी चेष्टायें परोपकार के लिये होती थीं। उनसे जनताका वास्तविक हित साधा था। वे स्वयं गणित, छंद, अलंकार, व्याकरण, लेखन, चित्रलिपि आदि विद्याओं और कलाओंके ज्ञाता थे और उन्होंने ही सबसे पहले इनका ज्ञान लोगों को कराया था । पूर्ण युवा होनेपर उनका विवाह कच्छ महाकच्छ नामक दो राजाओंकी परम सुंदरी और विदुषी नंदा और सुनंदा नामक दो राजकुमारियोंके साथ हुआ था । रानी सुनन्दा के समस्त भरतक्षेत्रका पहला सम्राट् भरत चक्रवर्ती नामका पुत्र और ब्राह्मी नामकी कन्या हुई थी। ऋषभदेवने ब्राह्मीको ही पहले पहले लेखनकलाकी शिक्षा दी थी। इसीलिये भारतीय आदि लिपि ' ब्राह्मी लिपि' कहलाती है । दूसरी रानी सुनन्दा के महाबलवान बाहुबलि और परमसुंदरी सुन्दरी नामकी कन्या हुई थी । भरतके वृषभसेन आदि भट्ठानवे भाई और थे । इन सब पुत्रको विविध प्रदेशोंमें राजप्रतिष्ठ करके ऋषभदेव निश्चित हुये थे । यह हम पहले लिख चुके हैं कि प्रजाकी आदि व्यवस्था १. मोहनजोदरोकी मुद्राओंपर कतिपय कायोत्सर्ग मुदाकी नग्न मूर्तियां अंकित हैं जिनपर बैठका चिह्न भी है। रा० ब० रामप्रसाद्ग चन्दा महाशय उन्हें भ० ऋषभदेवकी मूर्तिके समान प्रगट करते हैं । म० ऋषभदेवने कायोत्सर्ग मुद्रामें तपश्चरण किया था । ( Modern Review, Aug 1932, p. 159 ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A पौराणिक काल । [१९ भ० ऋषभदेव द्वारा ही हुई थी । भरत युवराज थे और ऋषभदेवके मुनि होजाने पर राज्याधिकारी हुये थे। उनके भाइयों से कतिपयका राज्य दक्षिण भारतके निम्न लिखित प्रदेशोंमें था: अश्मक, मूलक, कलिंग, कुंतल, महिषक, नवराष्ट्र, भोगवर्द्धन इत्यादि। भगवान ऋषभदेव और उनकी सन्तान 'इक्ष्वाकु क्षत्रिय' कहलाते थे। यही इक्ष्वाकुवंश उपरान्त 'सूर्य' और 'चन्द्र' वंशों विभक्त होगया था। सम्राट् भरतने सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारके लिये छहों खंड पृथ्वीकी दिग्विजय की थी। उन्हींके नामकी अपेक्षा यह देश 'भारतवर्ष ' कहा जाता है। भारतके उत्तर और दक्षिण भागोंका एक ही नाम होना इस बातका प्रमाण है कि समूचा देश भरत महाराजके अधिकारमें था। सारे भारतका तब एक ही राजा, एक ही धर्म और एक ही सभ्यता थी। नृत्यकारिणी नीलांजसाको नृत्य करते करते ही विलीयमान होता देखकर ऋषभदेवको वैराग्य उत्पन्न हुमा । चैत्र वदी नवमीके दिन भगवान् दिगम्बर मुनि हो तपश्चरण करने लगे। उनके साथ चार हजार अन्य राजा भी मुनि होगए । परन्तु कठिन मुनिचर्याको वह निभा न सके। इसलिये मुनिपदसे भ्रष्ट होकर वे नाना पाखण्डोंके प्रतिपादक हुये । इनमें भ० ऋषभदेवका पौत्र मरीचि प्रधान था उसने सांख्य मतके सदृश एक धर्मकी नींव डाली थी। आखिर भ० ऋषभदेव सर्वज्ञ परमात्मा हुये और तब उन्होंने सारे देश में विहार करके लोकका महान कल्याण किया था। यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | इस कालमें बादि धर्म देशना थी । भगवानने काशी, अवंती, कुरुजांगल, कोशल, सुझ, पुंडू, चेदि, अंग, बंग, मगध, अंत्र, कलिंग, भद्र, पंचाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि देशोंमें विहार किया था । लोगोंको सन्मार्गपर लगाया था ! अन्ततः कैलास पर्वत पर जाकर भगवान बिराजमान हुये थे और वहींसे माघ कृष्णा चतुर्दशीको भगवान निर्वाणपदके अधिकारी हुये । भरत महाराजने उनके स्मारक में वहां उनकी स्वर्ण-प्रतिमा निर्मित कराई थी । * दक्षिण भारतके प्रथम सभ्राट् बाहुबलि । भगवान ऋषभदेवके दूसरे पुत्र बाहुबलि थे । यह महा बलवान और अति सुंदर थे । इसीलिये इनको पहला कामदेव कहा गया है । भगवान ऋषभदेवने बाहुबलिको अश्मक - रम्यक अथवा सुरम्य देशका शासक नियुक्त किया था और वह पोदनपुर से प्रजाका पालन करते थे । अपने समयके अनुपम सुन्दर और श्रेष्ठ शासकको पाकर उनकी प्रजा व्यतीव संतुष्ट हुई थी। यही वजह है कि आज भी उनकी पवित्र स्मृति लोगों के हृदयों में सजीव है । दक्षिण भारत के लोग उन्हें 'गोमट्ट' अर्थात् 'कामदेव' नामसे स्मरण करते हैं और निस्सन्देह वह कामदेव थे । परन्तु कामदेव होते हुये भी बाहुबलि नीति और मर्यादा धर्मके आदर्श थे । साथ ही उनकी मनोवृत्ति स्वाधीन और न्यायानुमोदित थी । वह अन्याके प्रतिकार और कर्तव्य पालनके लिये मोह ममता और कायरता से * विशेषके लिये ब्यादिपुराण व संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। [२१ परे रहते थे । 'स्वार्थ' नहीं-'कर्तव्य' उनका मार्गदर्शक था । इसीलिये वह एक आदर्श सम्राट् और महान योगीके रूपमें प्रसिद्ध हुए । _ 'चक्रवर्ती'-पदको सार्थक बनानेके लिये अपने और पराये सब ही शासकोंको एकदफा नतमस्तक बना देना आर्य राजनीतिका तकाज़ा रहा है । सम्राट् भरतको चक्रवर्ती होना था। उन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी जीत ली थी। परन्तु उनके भाई अभी बाकी थे । सम्राट्ने चाहा कि उनके भाई केवल उनकी आन मान लें । पर वे सब स्वाधीन वृत्तिके क्षत्री थे। उन्होंने भाई के स्वार्थ और ऐश्वर्यमदको विवेक नेत्रसे देखा और सोचा-"यह पृथ्वी पिताजीने हमें दी है। हमारे बड़े भाई उसपर अपना अधिकार चाहते हैं। हम इससे मोह क्यों करें ? पिताजी इसे छोड़ गये। चलो, हम भी इसे त्याग दें।" उन्होंने जैसा सोचा वैसा कर दिखाया। वे सब तीर्थकर ऋषभदेवके चरणतलमें जाकर मुनि होगये। भरतके भाइयोंमें बाहुबलि बाकी रहे । भरत महाराजने मंत्रियोंकी सम्मतिको आदर देकर अपना दूत उनके पास मेजा। इतने बहुतसी उतार चढावकी बातें कहीं; परन्तु बाहुबलिपर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ। उन्होंने दुतके द्वारा भरत महाराजको रणागणमें मानेके लिये निमंत्रण भिजवा दिया। सम्राट् भरत पहलेसे ही इस अवसरकी प्रतीक्षामें थे। उन्होंने अपनी चतुरंगणी सेना सजाई और वह लावलश्कर लेकर पोदनपुरके लिये चल दिये । उधर बाहुबलिको सेना भी शस्त्रास्त्रले सुसजित हो रणक्षेत्र भाडटी। दोनों सेनायें मामने-सामने युद्ध के लिए तैयार थीं । दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास । नरपुंगवोंकी जवान हिलाने भरकी देर थी कि लाखों नरमुंड धरातल पर लोटते दिखाई देते । परन्तु दोनों शासकोंके राजमंत्रियोंका विवेक जागृत हुमा । उन्होंने देखा, यह निरर्थक हिंसा है-अनर्थदण्ड है। इसे क्यों न रोका जाय ? दोनोंने नरशार्दूलोंको समझाया । निरपराध मनुष्योंकी अमूल्य जानें क्यों जाँयें ? स्वयं भारत और बाहुबलि ही अपने बल पौरुषकी परीक्षा करलें । यही निश्चित हुआ। मलयुद्ध-नेत्रयुद्ध मादि कई प्रकारके युद्धोंमें दोनों वीरोंने अपने भाग्योंकी परीक्षा की; परन्तु बाहुबलिका पौरुष महान था । भरत उनको न पा पाये। वह खिसिया गये। भपमानके परितापसे वह ऐसे क्षोभित हुए कि उन्होंने अपने भाई पर ही चक्र चला दिया; किन्तु सगोत्री होने के कारण चक्र भी बाहुबलिका कुछ न विगाड़ सका। हाँ, भरतकी यह खार्थपरता देखकर उनके हृदयको गहरी चोट पहुँची। उनको राज-पाट हेय जंचने लगा। उन्होंने मनुष्यकी माया ममताको धिक्कारा भौर वस्त्राभूषण त्याग कर दिगम्बर मुनि होगए। भरत नतमस्तक होकर अयोध्या लौट आये । पोदनपुर में बाहुबलिका पुत्र राज्यशासन करने लगा मौर उन्हींकी सन्ततिका वहां अधिकार रहा । पोदनपुरमें रहकर बाहुबलिने घोर तपश्चरण किया। वह कायोत्सर्ग मुद्रामें शान्त और गंभीर बने हुए एक सालतक लगातार ध्यानमम रहे। चीटियोंने उनके पांवोंके सहारे बांबियां बनाली, लतायें उनके शरीर पर चढ़ गई; परन्तु उनको ज़रा भी खयाल न हुमा । उधर भरतमहाराजको भी भाईके दर्शन करनेकी अभिलाषा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। हुई। वह पोदनपुर गये। उन्होंने बड़े प्रेमसे राजर्षि बाहुबलिको वन्दना की। बाहुबलि निराकुल हुए। उन्होंने अपने ध्यानको और भी विशुद्ध बनाया और घातिया कर्मों का नाश कर दिया। वह केवलज्ञानी होगए । देवोंने उत्सव मनाया। भरतमहाराजने उनके केवलज्ञानकी पूजा की। बाहुबलिने चातक श्रोताओंको धर्मामृत पान कराया। और वह सारे देशमें विहार करने लगे । भातमहाराजने उनकी पवित्र स्मृतिमें पोदनपुरमें एक स्वर्णमूर्ति उन्हींके भाकारकी स्थापित कराई; जो वहाँ एक लम्बे समय तक विद्यमान रही। विहार करते हुए राजर्षि बाहुबलि कैलाश पर्वतपर पहुंचे और वहाँपर उन्होंने पूर्ण ध्यानका आश्रय लिया, जिसके परिणाम स्वरूप वह निर्वाणके अधिकारी हुए। विद्वानोंका अनुमान है कि बाहुबलि ही दक्षिणमारतके पहले सम्राट् धर्मामृत वर्षा करके मोक्षकाम करनेवाले पहले मनुष्य थे।' हमारे विचारसे यह मान्यता है भी ठीक; क्योंकि बाहुबलिका राज्यप्रदेश अश्नकरम्यक और पोदनपुर दक्षिणभारतमें ही अबस्थित प्रमाणित होते हैं। यद्यपि कोई २ विद्वान् पोदनपुरको भारतकी पश्चिमोत्तर सीमा भवस्थित और प्रायः तक्षशिला ही अनुमान करते हैं; परन्तु उनकी यह मान्यता युक्तिपुरस्सर नहीं है। निम्न पंक्तियों पाठकगण पोदनपुरको प्राचीन दक्षिणापथमें अवस्थित " सिद्ध हुआ पढ़ेंगे। जैन संघमें पोदनपुरका कथन अनेक स्यलोंपर भाया है और १-पद्मपुराण चर्य पर्व को• ६७-७७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] संक्षिप्त जैन इतिहास। उनका उल्लेख मागेके पृष्ठोंने पाठकगण यथास्थान पढ़ेंगे। सबसे पहले इसका उल्लेख बाहुबलिजीके सम्बन्धमें हुमा मिलता है। 'महापुराण' में लिखा है कि भरतके इतने पोदनपुरको शालिचावल और गन्नेके खेतोंसे लहलहाता पाया था और वह · संख्यात' दिनोंमें ही वहां पहुंच गया था। 'हरिवंशपुराण' में लिखा है कि दुत अयोध्यासे पश्चिम दिशाको चलकर पोदनपुर पहुंचा था। इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि पोदनपुर अयोध्यासे बहुत ज्यादा दूर नहीं था और न वह अयोध्यासे उत्तर दिशामें था; जैसे कि तक्षशिला होनी चाहिये। उसके आसपास शालिचावल और गन्ना होते थे। तक्षशिलामें यह चीजें शायद ही मिलती हों। साथ ही तक्षशिलामें एक बृहत्काय बाहुबलि मूर्तिके मस्तित्वका पता नहीं चलता, जोकि पोदनपुरका खास स्मारक था। बाहुबलिके अतिरिक्त पोदनपुरका खास उल्लेख भगवान पार्श्वनाथके पूर्वभव चरित्रमें मिलता है। भगवान पार्श्वनाथ अपने पहले भवमें पोदनपुरके राजा अरविन्दके पुरोहित विश्वभूतिके सुपुत्र मरुभूति थे। उनके भाई कमठ थे । कमठ दुष्ट प्रकृतिका मनुष्य था । उसने मरुभूनिकी स्त्रीसे व्यभिचार सेवन किया, जिसका दण्ड उसे देशनिकाला मिला। १-'शालिवप्रेषु'-'शालीक्षुगीरकक्षेत्रवृतः' ( ३६ पर्व) "क्रमेण देशान् सिंधूश्च देशसंधीच सोऽतियन् । प्रापत् संख्यातरात्रैस्तत्पुरं पोदनाक्षयम् ।" २-हरिवंशपुराण, सर्ग ११ श्लोक ७९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। [१५ वह पोदनपुरसे चलकर भूताचल पर्वतपर एक तापसाश्रममें कुतप तपने लगा। मरुभूति मरकर मलयपर्वतके कुब्जकसल्लकी वनमें हाथी हुआ। वह वहां वेगवती नदीके किनारेपर रहता था। 'उत्तरपुराण' में स्पष्ट शब्दोंने पोदनपुरको दक्षिणभारतके सुरम्यदेश में अवस्थित लिखा है।' श्री वादिराजसरिने भी पोदनपुरको मुरम्पदेशमें शालिचावलोंके खेतोंसे भरपूर लिखा है। वहांसे भूताचल पर्वत अधिक दूर नहीं था। श्रीजिनसेनाचार्यने भूताचलके स्थानपर रामगिरि पर्वत लिखा है। अब यह देखना चाहिये कि पोदनपुरके निकटवर्ती उपरोक्त स्थान कहांपर थे ? पहले ही भूताचळ या रामगिरि पर्वतको लीजिये । भी जिनसेनाचार्यने रामगिरिका उल्लेख भूताचलके लिये किया है, इसलिये यह अनुमान करना ठीक है कि रामगिरि और भूताचा एक ही पर्वतके मिन्न नाम थे, अथवा एक पर्वतकी दो शिखिरोंके नाम थे। रामगिरि नागपुर डिवीजनका रामटेक है, जो भाज भी एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। श्री उग्रादित्याचार्यने रामगिरिके जैब मंदिरमें ही बैठकर ग्रंथ रचना की थी। उन्होंने उसे त्रिकलिङ्ग देशमें भवस्थित १-"जबूविभूषणे द्वीपे भरते दक्षिणे महान् । सुरम्यो विषयस्तत्र विस्तीर्ण पोदनं पुरं ॥" २-पार्श्वनाथचरित् प्रथम सर्ग श्लोक ३७-३८, ४८ व सर्ग २ श्लोक ६५ ३-पार्वाभ्युदयकाव्य-'यो निर्मत्सै'-इत्यादि पद्य देखो। ४-जैन सिद्धांत भास्कर (जैसिमा०) मा० ३ पृ. १३-१४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | लिखा है, जिसे विद्वज्जन आधुनिक मध्यप्रांत ही प्रगट करते हैं । " अब जब रामगिरि रामटेक है तो भूताचल भी वहीं कहीं होना चाहिये । 3 हमारे मित्र श्री गोविन्द पै नागपुर डिवीजनके वेतूल जिलेको भूताचल अनुमान करते हैं। उसके आसपास पर्वत हैं और वह मश्मक देश से भी दूर नहीं है, जैसे कि प्राचीन भारतके नकोसे स्पष्ट है । हिन्दू ' मत्स्यपुराण' से एक ' तापस' नामक प्रदेशका दक्षिणापथके उत्तर भागमें होना प्रगट है, जो यूनानी लेखक टोमीका मध्यदेशवर्ती 'तबसे' (Tabassoi) प्रतीत होता है। अतः यह संभव है कि कमठ व तापस देशमें स्थित भूताचल या रामगिरि पर्वतपर कुतप तपने गया था। जो हो, यह स्पष्ट है कि पोदनपुर के निकट अवस्थित उपरोक्त पर्वत दक्षिणापथके उत्तरी भागमें विद्यमान थे । भन मलय पर्वत और कुब्जकसल्लकी बनको लौजिये । कर्निघम सा०ने मलयपर्वतको द्राविड़ देशमें स्थित बताया है। * चीनदेशके यात्री व्हानुत्सांगने उसे कांचीसे दक्षिणकी ओर ३००० १- वेशीश त्रिकलिङ्ग देश.... रम्ये रामगिराविंद.... । ' - जेसिभा० ३ पृ० ५३ । २ - प्रो० 10 मुकरजीकी 'Fundamental Unity of India' नामक पुस्तक में लगा हुआ प्राचीन भारतका नकशा देखो । . ३ - मत्स्यपुराण (Panini office ed., S. B. H. Vol. XVII) ch. CXIV. ४ - ज० पृ० ६२७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काळ । [ २७. मीलकी दूरीपर लिखा है। वेगवती नदी भी द्राविडदेशमें है । " मलयपर्वतपर चन्दन वृक्षोंका वन था । वही कुब्जकसल्लकी वन अनु मान किया जासकता है । इसप्रकार पोदनपुरके पास में अवस्थित ये उपरोक्त स्थान भी दक्षिण भारतमें मिलते हैं । पोदनपुर इनसे उत्तरकी ओर होना चाहिये; क्योंकि 'भुजबलि चरित्' में उल्लेख है कि. गङ्ग सेनापति चामुण्डराय पोदनपुरकी यात्रा करने के लिये उत्तर की ओर चलते हुये श्रवणबेलगोल पहुंचे थे । 3 रोह रहा सुरम्य देश, जिसकी राजधानी पोदनपुर थी । यह देश भी दक्षिणापथमें अवस्थित मिलता है। यूनानी लेखक टोलमीने 'श्मनै' (Ramnai) नामक एक प्रदेश मध्यप्रदेशमें लिखा है, जो वर्तमान के मध्यप्रान्त, बरार और निजाम राज्यके कुछ अंश जितना था । संभवतः यह रमने ही जैनोंका सुरम्य देश है । 'आदिपुराण' में इसीका नाम संभवतः अश्मकरम्यक है । अब जरा अजैन साक्षीपर भी ध्यान दीजिये। बौद्ध जातकों में पोदनपुर अश्मक देशकी राजधानी कहा गया है तथा 'सुत्तनिपात' में अस्सकदेश गोदावरी नदीके निकट सक्य पर्वत, पश्चिमी घाट और दण्डकारण्यके मध्य अवस्थित लिखा है। संस्कृत भाषा के कोष 'बृहदाभिधान्' में पौण्ड्य राजा अइमककी राजधानी कही गई हैं और 'रामायण' (किष्किन्धाकाण्ड) में अश्मक देश भारत के दक्षिण १- पूर्व० पृ० ७४१ । २ - पूर्व ० पृ० ७३९ । ३ - श्रवणबेळगोळ पृ० १०-११ । ४- प्रजेग ० १० भाग २२ पृ० २११ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | या दक्षिण पश्चिमोत्तर भाग में बताया गया है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या अजैन ग्रंथोंका पोदन या पौण्ड्य और अश्मकदेश जैनशास्त्रों का पोदनपुर और सुरम्यदेश है ? हमारे ख्यालसे उन्हें एक मानना युक्तिसंगत है । आदिपुराणानुसार सुरम्यदेशका अपरनाम यदि अश्मक - रम्यक माना जाय तो अश्मक देशको सुरम्य माना जासकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अश्मका अपर नाम रम्यक या सुरम्य था अथवा यह भी संभव है कि उसके उपरान्त दो भाग अश्मक और रम्यक होगए हो। यह ष्ट ही है कि अश्मक और रम्यक प्रायः एक ही दक्षिणापथवर्ती प्रदेश था । 'हरिवंशपुराण' में अश्मकको दक्षिण देश ही लिखा है। " जैन लेखकोंने भी अइपकको दक्षिणभारतका देश लिखा है। वराहमिहिर ने आंध्र के बाद अश्मकको गिना है। राजशेषरने भी 'काव्यमीमांसा' में अश्मकको दक्षिणदेश लिखा है। शाकटायनने साल्व (आंध्रों ) के बाद अश्मकका उल्लेख किया है। कौटिल्यने अश्मको हीरोंके लिये प्रख्यात और राष्ट्रिकोंके बाद लिखा है। विन्ध्याचलके परे प्राचीन दक्षिणापथ में हमें हीरोंकी प्रसिद्ध ५ १ - जैग • मा० २२ पृ० २११ । २ - हरि० सर्ग १९ श्लोक ७०-७१ । ३ - वराहमिहिरसंहिता परि० १६० ११ । G. O. S., Vol. I, eh. XVH P. 9. १ - ( २|४|१०१ ) ६ - अर्थशास्त्र, अधिकार २ प्रकरण २९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौराणिक काल । [ २९ खान गोलकुन्डा मिल जाती है । इसलिये अश्मकदेश आजकलका बरार और निजाम राज्यका कुछ अंश जितना था । उधर सुरम्यदेश भी मध्यप्रान्त, बरार और निजाम राज्यको अंशको अपने में लिये हुये था, यह पहले ही लिखा जाचुका है। अतः दोनों देशोंको एक अथवा एक देशके दो भाग मानना युक्तिसंगत है। इस अवस्थामें पोदनपुर भारतकी पश्चिमोत्तर सीमापर नहीं माना जासकता । कवि धनपालने 'भविष्यदत्त कथा' में हस्तिनापुर के राजा और पोदनपुर के शासक में युद्ध होनेका उल्लेख किया है । इन दोनों राज्योंके बीच में कच्छ देशकी स्थिति वैसी ही थी जैसी कि गत यूरोपीय महायुद्ध में बेलजियमकी थी । यह कच्छ देश सिंधुदेशके समीप स्थित कच्छ नहीं हो सकता; क्योंकि वह दोनों राज्यों के बीच में नहीं पड़ता । हां, यदि यह कच्छ देश ग्वालियर राज्यके नरवरजिलेमें रहे हुये कच्छवाहे क्षत्रियों का प्रदेश माना जाय, जिसका मानना ठीक प्रतीत होता है, तो उसकी स्थिति दोनों राज्योंके ठीक बीचमें आजाती है । कवि धनपालने पोदनपुर नरेशको साकेत नरेन्द्र भी लिखा है, जिसका भाव यही है कि वह साकेत (अयोध्या) के राजवंश से सम्बन्धित थे । पोदनपुर राजकुलके आदिपुरुष बाहुबलि साकेत - राजाके सुपुत्र और युवराज थे। कवि धनपालने पोदनपुरको सिंधुदेशमें लिखा है सो ठीक है, क्योंकि यवन्तीके आसपासका प्रदेश सिन्धुनदीकी अपेक्षा सिन्धुदेश भी कहलाता था । अतः बाहुबलि 1-G. O. S., Vol. XX. Intro: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । नरेशकी राजधानी पोदनपुर दक्षिणापथमें ही प्रमाणित होती है।' बाहुबलि दक्षिण भारतके पहले सम्राट थे और पहले साधु थे। दक्षिण भारतमें आज भी उनकी बृहत्काय पाषाणमूर्तियां इस • स्मारकको जीवित बनाये हुए हैं। “अन्य तीथकर और नारायण तृपृष्ट।" भगवान् ऋषभदेवके अतिरिक्त पौराणिक कालमें भगवान अजितनाथसे भगवान् मरिष्टनेमि पर्यन्त २१ तीर्थङ्कर और हुये थे। इन तीर्थक्करोंने भी केवलज्ञान प्राप्त करके उत्तर और दक्षिणभारतमें "विहार किया और धर्मोपदेश दिया था। 'उत्तरपुराण' में लिखा है। 'कि मलयदेशके भद्रपुरमें तीर्थक्कर शीतलनाथका जन्म हुआ था। और वहींपर मुंडशालयन नामक एक ब्राह्मण रहता था; जिसने लोम कषायके वश हो करके ऐसे शास्त्रोंकी रचना की कि जिनमें ब्राह्म• णोंको सोने चांदीका दान देनेका वर्णन था। उन शास्त्रोंको राजदरबार में उपस्थित करके उसने दान दक्षिणामें बहुतसा धन प्राप्त किया था। यहींसे मिथ्या मतका प्रचार हुआ कहा गया है। मलयदेश द्राविड़ क्षेत्रमें माना जाता है । इसलिये भद्रपुर भी वहीं अवस्थित प्रगट होता है; किन्तु भाधुनिक मान्यतानुसार शीतलनाथ भगवानका जन्मस्थान वर्तमान भेलसा है, जो मध्यप्रदेशमें भवस्थित है। इस मान्यताका क्या माधार है, यह ज्ञात नहीं है । १-विशेषके लिये 'बूलनर कमोमेरेशन वाल्यूम' (लाहोर ) में "हमारा 'पोदनपुर और तक्षशिला' शीर्षक लेख देखो। २-उपु० ५६।२३-८५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य तीर्थकर और नारायण तृपृष्ट । [ ३१ दूसरे तीर्थकर भ० अजितनाथ के समयमें सगर चक्रवर्ती हुये थे। उन्होंने षट्खंड दिग्विजय किये थे, जिसका अर्थ यह होता है कि उन्होंने दक्षिणभारतको भी विजय किया था। उनके पश्चात् काळानुसार मघवा, सनत्कुमार, सुभौम, पद्म, हरिषेण यदि चक्रवर्ती हुये थे, जिन्होंने भी अपनी दिग्विजयमें दक्षिणभारत पर अपनी विजय- वैजयन्ती फहराई थी। म० श्रेयांसनाथके समय में दक्षिणापथवर्ती पोदनपुरके राजा प्रजापति थे । उनकी महारानीका नाम भगवती था । उनके एक भाग्यशाली पुत्र जन्मा, जिसका नाम उन्होंने तृपृष्ट रक्खा । यही तृपृष्ट जैनशास्त्रों में पहले नारायण कहे गये हैं । तृष्पृष्टकी विमाता से उत्पन्न विजय नामक भाई पहले बलदेव थे । तृपृष्ट और विजयमें परस्पर बहुत ही प्रेम था । नारावण तृष्टष्टने प्रतिनारायण अश्वग्रीवको युद्धमें हराकर दक्षिण भारतको अपने आधीन किया था । तृपृष्टकी पट्टरानी स्वयंप्रभा थी और उसके ज्येष्ठ पुत्रका नाम श्रीविजय था । श्रीविजयका विवाह ताराके साथ हुआ था । तृपृष्टके बाद पोदनपुर के राजा श्री विजय हुये थे। उनके भाई विजयभद्र युवराज थे। ताराको एक विद्याधर हर लेगया था । श्रीविजयने युद्ध करके ताराको उस विद्याधर से वापस लिया था । राजा प्रजापति और बलदेव विजयने त्रित धारण कर कर्मो का नाश किया था; परन्तु तृपृष्ट बहु परियही होने के कारण नरकका पात्र बना था। तो भी इसमें शक नहीं कि दक्षिण भारतका वह दूसरा प्रसिद्ध और बलवान राजा था। १- पर्व ५७ व पर्व ६२ देखो। ૧ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] संक्षित जैन इतिहास। नारायण द्विपृष्ट । दूसरे नारायण द्विपृष्ट भगवान वासुपूज्यके समयमें हुये थे । यद्यपि उनका जन्म द्वारामती नगरीमें हुआ था, परन्तु उनके पूर्वभवका सम्बन्ध दक्षिण भारतसे अवश्य था। अपने पूर्वभवमें वह कनकपुरके राजा सुषेण थे । उनकी गुणमंजरी नामक नृत्यकारिणी सुंदरी और विद्वान थी । मलयदेशके विंध्यपुर नगरमें राजा विध्य. शक्ति राज्य करता था। उसने गुणमंजरीकी प्रसिद्धि सुनी और सुनते ही उसने सुषेणसे उसे मंगवा भेजा । और जब सुषेणने उसे राजीसे नहीं दिया तो वह सुषेणको युद्ध में परास्त करके जीत लाया। सुषेण मुनि होगया और आयु पूरी कर स्वर्गमें देव हुआ। वहांसे चयकर वही नारायण द्विपृष्ट हुआ। विंध्यशक्तिसे उसका पूर्व वैर था-उसे वह भुला नहीं। विध्यशक्तिका जीव संसारमें रूल कर भोगवर्द्धनपुरके राजाके यहां तारक नामक श्यामवर्ण पुत्र हुमा । तारक राजा होनेपर एक प्रभावशाली शासक और विजेता सिद्ध हुआ। तारकने द्विपृष्टसे भी कर मांगा, परन्तु द्विपृष्टने इसे अपना अपमान समझा । इसी बातको लेकर दोनोंमें घमासान युद्ध हुआ, जिसमें तारकको आने प्राणोंसे हाथ धोने पड़े। द्विपृष्टने तीन खंड पृथ्वीका स्वामित्व प्राप्त किया । दिग्विजय करके उन्होंने प्रतीप नामक पर्वतपर श्री वासुपूज्य स्वामीकी वन्दना की। द्विपृष्ट यद्यपि बलवान राजा था, परन्तु वह इन्द्रियोंका गुलाम था। इसी लिये शास्त्रोंमें कहा गया है कि वह मरकर नरकका पात्र हुआ। १-उपु० ५८६१-७७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुरके अन्य राजा। पोदनपुरके अन्य राजा। तीर्थकर विमलनाथके समयमें गणधर मेरुमंदर और मुमि संजयंत हुये थे। उनके पूर्वभवके वर्णनमें पोदनपुरके राजा पूर्णचन्द्रका उल्लेख है। राजा पूर्णचन्द्रको साकेतके राजा मादित्यबलकी पुत्री हिरण्यवती ब्याही गई थी। उनका पुत्र सिंहचंद्र था।' पूर्णचंद्रकी पुत्री रामदत्ताका व्याह सिंहपुरके राजा सिंहसेनके साथ हुआ था।' तीर्थकर अनंतनाथके सुप्रम नामक बलभद्र और पुरुषोत्तमनारायण हुये थे। उनके पूर्वभवान्तरोंमें पोइनपुरके राजा वसुसेनका उल्लेख है। वसुसेनकी महारानी नंदा परमपवित्र और अनुपम सुंदरी थीं। वसुसेनका मित्र मलयदेशका राजा चंडशासन था। एकदा वह उससे मिलने आया। रानी नंदाके रूपलावण्यपर वह मासक्त होगया और किसी उपायसे उसे हरकर वह अपने नगर लेगया। राजा वसुसेन विरक्त हो मुनि होगया।' राजर्षि बाहुबलीकी ही वंशपरंपरामें उपरांत श्रेष्ट राजा तृणर्पिगल हुआ। उसकी पट्टरानीका नाम सर्वयशादेवी था। उनके मधुपिंगल नामक सुन्दर पुत्र था। अयोध्याके सगरने चालाकीसे उसे दूषित शरीर ठहरवाकर एक स्वयंवरसे निकलवा दिया था; जिस क्रोधको लेकर वह मरा और महाकाल नामका व्यंतर हुमा । इस महाकालने अपना वैर चुकानेके लिये यज्ञमें पशुओंको होमनेकी प्रथाका श्रीगणेश किया था। १-उपु० १९:२०८-९। २ हरि० २७५५ । ३-उपु० ६०१५०-१७। ४-उपु० ६७२२३-२५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संक्षिप्त जैन इतिहास। पोदनपुरके एक अन्य राजा सुप्रतिष्ठ थे । यह राजा सुस्थित और रानी सुलक्षणाके सुपुत्र थे । कारण पाकर यह विरक्त होकर सुधर्माचार्यकै चरण-कमलोंमें मुनि होगये । हरिवंशके महापुरुष अंधकवृष्णि आदिने इन सुप्रतिष्ठ मुनिराजसे धर्मोपदेश सुनकर मुनिव्रत धारण किये थे। मुनिराज सुप्रतिष्ठका शौरसेन देशमें कईबार विहार हुमा था । आखिर वहींके गंधमादन पर्वतपर उन्हें कैवल्य प्राप्त हुभा था और वे मोक्षपदके अधिकारी हुये थे। ___ पांडवोके समयमें पोदनपुरका राजा चन्द्रवर्मा था। वह राजा चंद्रदत्त और रानी देविलाका पुत्र था । राजा द्रुपदके एक मंत्रीने उसके साथ द्रौपदीका व्याह करनेकी बात कही थी। 'भविष्यदत्त कथा' में पोदनपुरके एक राजाका युद्ध हस्तिनापुरके राजा भूपालके साथ हुआ वर्णित है। इस युद्ध में पोदनपुर नरेशको पराजित होना पड़ा था। चक्रवर्ती हरिषेण । तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथजीके समयमें चक्रवर्ती हरिषेण हुये थे। उनका जन्म भोगपुरके महाराज इक्ष्वाकुवंशी राजा पद्मकी रानी ऐरादेवीकी कोखसे हुआ था । भोगपुर संभवतः दक्षिण भारतका १-उपु. ७०-१३७....! २-उपु. ७२-२०१...! ३-भविष्य संवि १३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती हरिषेण । [ ३५ कोई नगर था। इसी नगरमें उनके पहले प्रतिनारायण तारकका नन्म हुआ था । दक्षिण भारतमें इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंका राज्य एक समय रहा था । इसलिये ही यह अनुमान ठीक है कि हरिषेण चक्रवर्तीका सम्बंध दक्षिण भारतसे था । हरिषेण बाल्यकालसे ही धर्मरुचिको लिये हुए थे। एक रोज वह अपने पिता राजा पद्मनाम के साथ अनन्ततीर्थ मुनिराजकी वंदना करने गये । मुनिराजसे उन्होंने धर्मोपदेश सुना । राजा पद्मनाभ विरक्त होकर मुनि होगये और हरिषेणने श्रावक के व्रत लिये । जब पद्मनाभको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब ही हरिषेण चक्रवर्तीको चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई । हरिषेणने पहले केवली भगवानकी वन्दना की, पश्चात् षट्खण्ड पृथ्वीको विजय किया । इस दिग्विजय में उन्होंने निस्सन्देह दक्षिण भारतको भी विजय किया था । हरिषेण धर्मात्मा सम्राट् थे । उन्होंने एकदा अष्टान्हिका महाव्रतकी पूजा की, जिससे उनके परिणाम धर्मरससे सलिल होगये । उन्होंने अट्टालिका पर बैठे२ पूर्णचन्द्रको राहुप्रसित देखा, जिससे उन्हें वैराग्य होगया । अपने पुत्र महासेनको राज्य देकर उन्होंने सीमंतक पर्वत पर श्री नाग मुनीश्वरके निकट दीक्षा ग्रहण करली | मुनि हरिषेणने खूब तप तपा और समाधिमरण द्वारा आयु समाप्त करके सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्रपद पाया । १ - उ५० ३७ - ८४............. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३६] संक्षिा जैन इतिहास । श्री राम, लक्ष्मण और रावण । भगवान मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थकालमें बलदेव और नारायण श्री राम और लक्ष्मण हुये थे। वे अयोध्याके पूर्व भव। राजा दशरथके सुपुत्र थे । बाल्यावस्थासे हो । ___उनकी प्रतिभा और पौरुषका प्रकाश हुआ था । यपि उनका जन्म और प्रारम्भिक जीवन उत्तर भारतमें व्यतीत हुआ था, परन्तु उनका सम्बन्ध दक्षिण भारतसे उनके उस जन्मसे भी पहलेका था और उपरांत युवावस्थामें जब वे दोनों भाई वनवासमें रहे तब उनका अधिकांश समय दक्षिण भारतमें ही व्यतीत हुमा था। अच्छा, तो राम और लक्ष्मणके जीव अपने एक पूर्वभवमें दक्षिण भारतकी मुभमि पर केलि करते थे। दक्षिणके मलय देशमें एक रत्नपुर नामका नगर था। उस नगरका प्रजापति नामका राना था। उसका एक लड़का था, जिसका नाम चन्द्रचूल था । चन्द्रचूलका प्रेम राजमंत्री के पुत्र विषयसे था। अपने मां-बापके यह दोनों इकलौते बेटे थे। दोनोंका बेढब गड़ प्यार होता था। लाड़प्यारकी इस मधिकताने उन्हें समुचित शिक्षासे शून्य रक्खा । मां-बापके अनुचित मोह-ममताने उनके जीवन बिगाड़ दिये । वे दोनों दुराचारी होगये । रलपुरमें कुबेर नामका एक बड़ा व्यापारी रहता था। उसका बड़ा नाम और बड़ा काम था। कुबेरदत्ता उसकी कन्या थी। वह अनुपम मुन्दरी थी। युवावस्थाको प्राप्त होने पर कुवेरदसने अपनी उस कन्याका व्याह उसी नगरमें रहनेवाले एक दूसरे प्रख्यात् सेठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण । वैश्रवणके सुपुत्र श्रीदत्तके साथ करना निश्चित किया । उधर रानकुमार चन्द्रचूलके कान तक कुबेरदत्साके अनुपम रूप-सौन्दर्य की वार्ता पहुंची। वह दुराचारी तो था ही-उसने कुबेरदचाको अपने भाधीन करनेके लिये कमर कस ली । राजकुमारका यह अन्याय देख कर वैश्य समुदाय इकट्ठा होकर राजदरबारमें पहुंचा और उन्होंने इस अत्याचारकी शिकायत महाराज प्रजापतिसे की।। महाराज प्रजापति अपने पुत्रसे पहले ही अप्रसन्न थे। इस समाचारको सुनने ही वह आग-बबूला होगये। उन्होंने न्यावदण्डको हाथमें लिया और कोतवालको चंद्रचूल तथा उसके मित्र विजयको प्राणदण्ड देनेकी आज्ञा दी । राजाके इस निष्पक्ष न्याय और कठोर दण्डकी चरचा पुरवासियोंमें हुई। बुड्ढे मंत्रीका पुत्रमोह जागा । वह नगरवासियोंको लेकर राजाकी सेवामें उपस्थित हुआ। सबने राजासे प्रार्थना की कि वह अपनी कठोर माशा लोग '-राज्यका एक मात्र उत्तराधिकारी चंद्रचूल है, उसको प्राणदान दिया जाय ।' किन्तु राजाने यह कहकर उन लोगोंकी प्रार्थना मस्वीकृत कर दी कि 'माप लोग मुझे न्यायमार्गसे च्युत करना चाहते हैं, यह अनुचित है ।' सब चुप होगए । राजहठ गौर सो भी समुचित ! किसका साहस था नो मुंह खोलता। इस परिस्थितिमें मंत्रीने अपनी बुद्धिसे काम लिया । उन्होंने दोनों युवकोंको प्राणदण्ड देनेका भार अपने ऊपर लिया। वह अपने पुत्र और राजकुमारको लेकर बनगिरि नामक पर्वतपर गए। वहांपर महाबल नामक मुनिराज विराजमान थे। तीनों ही मागंतुकोंने उन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] संक्षिप्त जन इतिहास । साधु महारानकी वन्दना की और धर्मोपदेश सुना, जिससे उनके भाव शुद्ध होगये। उन्हें अपने पर बहुत ग्लानि हुई। अपनी करनीपर वह पछताने लगे । संसारसे उन्हें वैराग्य हुमा -नाशवान जीवनमें उन्होंने अमरत्वका रस पाया। बे झटपट गुरुके चरणोंमें गिर पड़े। गुरु विशेष ज्ञानी थे, उन्होंने अपने ज्ञान-नेत्रोंसे उनका भावी अभ्युत्थान देखा । चटसे उन्होंने उन दोनों युवकोंको अपना शिष्य बना लिया। मंत्री यह देखकर बड़ा प्रसन्न हुमा और अपना काम बनाकर वह रत्नपुर लौट गया। मुनि होकर चन्द्रचूल और विजय नये जीवनमें पहुंच गये। उनकी कायापलट होगई। ममिमें तपकर सोना विशुद्ध होजाता है ठीक वैसे ही तपकी ममिमें प्रवेश करके उन दोनों युवकोंकी मात्मायें मपनी कालिमा खोकर बहुत कुछ शुद्ध होगई। किन्तु इस उच्च दशायें भी उन्हें एक कामनाने अपना शिकार बनाया। उन्होंने निदान किया कि हम दोनों को क्रमशः नारायण और बलभद्रका ऐश्वर्यशाली पद प्राप्त हो। वह आयुके अंतमें इस इच्छाको लिये हुए मरे। मरते समय उन्होंने शुभ आराधनायें आराधीं। दोनों कुमारोंके जीव सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुए। देव पर्यायके सुखभोगकर वे चये गौर भयोध्या राम और लक्ष्मण हुए। .. जब राम और लक्ष्मण युवक कुमार थे तब भारतपर भर्द्धबरवर ___ देशके रहनेवाले म्लेच्छोंका भाक्रमण हुआ। राम और लक्ष्मण। राजा जनकने राम और लक्ष्मणकी सहाय तासे इन म्लेच्छोंको मार भगाया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण। [३९ युद्धमें बचे हुये म्लेच्छ अपने प्राण लेकर विंध्याचलकी पहाड़ियोंमें जा छिपे और रहने लगे। यह अर्द्धवरवर देश मध्य एशियासे ऊपरका देश अनुमानित होता है। इस देशके राजाकी अध्यक्षतामें श्याममुख, कर्दमवर्ण आदि म्लेच्छ भारतमें भाये थे। इन म्लेच्छोंको मार भगाने में राम और लक्ष्मणने खासी वीरता दर्शाई थी। जनक उन रानकुमारोंपर मोहित हुये और उन्होंने अपनी राजकुमारियों का व्याह उनके साथ करना निश्चित कर लिया। स्वयंवर रचा मया और उसमें भी राम और लक्ष्मणने अपना धनुकौशल प्रगट किया। सीताने रामके गलेमें वरमाला डाली । रामचन्द्रके साथ उनका व्याह हुमा । मन्य राजकुमारी लक्ष्मणको व्याही गई। दोनों राजकुमार सानन्द कालक्षेप करने लगे। राम और लक्ष्मण राजा दशरथके बेटे थे। दशरथने वृद्धा वस्थाको आया देखकर अपना आत्महित वनवास। करना विचारा, वह संसारसे विरक्त हुये। ज्येष्ठ पुत्र रामचंद्र थे। उन्हें ही राजपद मिलना था। भरतकी माता कैकयीने भी यह बात सुनी । वह राजा दशरथके पास गई और उन्हें मुनि-दीक्षा लेनेसे रोकने लगी; परन्तु दशरथ महाराजके दिलपर वैराग्यका गाढा रंग चढ़ गया था। कैकयीकी बात उनको नहीं रुची। तब कैकयीने अपनी बात कही। एक दफा युद्धमें कैकयीकी वीरतापर प्रसन्न होकर दशरथने उसे एक वचन दिया था। कैकयीने वही वचन पूरा करनेके लिये दशरथसे प्रार्थना की। दशरथ मार्य राजत्वके मादर्श थे। उन्होंने रानीसे कहा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] संक्षिप्त जैन इतिहास | 'खुशी से जो चाहो मांगलो ।' कैकयी प्रसन्न हुई । उसने कहा कि ' भरतको राज्य दीजिये और रामचन्द्रको वनवास ।' दशरथ यह सुनकर दंग रह गये। रानीका इठ था और वह स्वयं वचनबद्ध थे । जो कैकयीने माँगा वह उन्हें देना पड़ा । परन्तु इस घटनाने उन्हें ऐसा मर्माहत किया कि वह अधिक समय जीवित न रहे । तत्काल ही घर छोड़कर मुनि होगये । भरत राजा हुये, रामचन्द्र वनवासी बने । बनवास में रामचन्द्रजी के साथ उनकी पत्नी सीता और उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी थे। वे दोनों रामचन्द्रनीके दुख-सुखमें बराबर साथी रहे । भरतको भी रामचन्द्रसे अत्यधिक प्रेम था। वह भ्रातृप्रेम से प्रेरित होकर उन्हें वापिस लौटा लाने के लिये वनमें गये, परन्तु रामचन्द्रने उनकी बात नहीं मानी। बल्कि बनमें ही अपने हाथसे उनका राज्याभिषेक कर दिया । भरत अयोध्या लौट आये । राम, लक्ष्मण और सीता आगे बढ़े। मालवदेश के राजाकी उन्होंने सहायता की और उसका राज्य उसे दिलवा दिया। आगे चलकर बाल्यखिल्ल नरेशको उन्होंने विध्यारवीके म्लेच्छोंसे छुड़ाया। वह अपने नलकूवर नगरमें जाकर राज्य करने लगा। म्लेच्छ सरदार रौद्रभूत उसका मंत्री और सहायक हुआ । इस प्रकार एक राज्यका उद्धार करके राम-लक्ष्मण आगे चले और ताप्ती नदीके पास पहुंचे । वहाँ एक यक्ष नारायण - बलभद्र के सम्मान में एक सुन्दर नगर रचा, जिसका नाम रामपुर रक्खा | वहाँसे चले तो वे विजयपुर पहुंचे | लक्ष्मणके वनवासमें दक्षिण भारतका प्रवास । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामबाण और रावण । [४१ वियोगमें तड़फती वहांकी राजकुमारी वनमाला उन्हें पाकर मति प्रसन हुई। लक्ष्मणके समागमसे उसके प्राण बचे। यहांसे रघुकुल का अपमान करनेवाले नन्धावर्तके राजाको दण्ड देनेके लिये राम और लक्ष्मण गए । वह राजा उनसे परास्त होकर मुनि होगया। रामलक्ष्मण वंशधर पर्वतके निकट वंशस्थळ नगरमें पहुंचे। उस पर्वतपर रातको भयानक शब्द होते थे, जिसके कारण नगरनिवासी भयभीत थे। साहसी भाइयोंने उस पर्वतपर रात विताना निश्चित किया । वे परोपकारकी मूर्ति थे-लोकका कल्याण करना उन्हें अभीष्ट था । रातको वे पर्वतपर रहे-वहां साधु युगलकी वंदना की। उन साधुओंपर एक दैत्य उपसर्ग करता था, इसी कारण भयानक शब्द होता था । राम और लक्ष्मणने उस दैत्यका उपसर्ग नष्ट किया । उन दोनों मुनिरानोंको उपसर्ग दूर होते ही केवलज्ञान उत्पन्न हुभा। उनका नाम कुलभूषण भौर देशभूषण था। बहाइप्रांतीय कुंथलगिरि पर भाज भी इन मुनिराजोंका स्मारक विद्यमान है । रामचंद्रजीने भी उनके स्मारक स्वरूप वहांपर कई जिनमंदिर बनवाये थे। ___वहांसे आगे चलकर रामचन्द्रजी दण्डकारण्यमें पहुंचे। उस समय तक वह मनुष्यगम्य नहीं था; परन्तु रामचन्द्रजीके साहसके सामने कुछ भी भगम्य न था। वह उसमें प्रवेश करके एक कुटिया बनाकर रहने लगे। वहीं उन्होंने दो चारण मुनियोंको माहारदान दिया, जिसकी अनुमोदना एक गिद्ध पक्षीने भी की। राम लक्ष्मणके साथ रहकर वह श्रावकाचार पालने लगा। रामने इसका नाम जटायु रक्खा । दण्डकवनमें आगे घुसकर राम और लक्ष्मणने कौंचवा नदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१] संक्षिप्त जैन इतिहास । पार की और वे दण्डकगिरिक पास जाकर ठहरे। वहां उन्होंने नगर बसाकर रहना निश्चित कर लिया था। इसका अर्थ यह होता है कि वे वहां अपना उपनिवेश स्थापित करके रहना चाहते थे। किन्तु वहां एक अघटित घटना घट गई। लक्ष्मणके हाथसे धोखेमें खरदूषण के पुत्र शम्बुकी मृत्यु होगई । खरदुषणने राम-लक्ष्मणसे युद्ध ठान दिया। रावणका वह बहनोई था। उसने उसके पास भी सहायताके लिये समाचार भेज दिये । राम और लक्ष्मण नर-पुंगव थे । वे इस आपत्तिको देखकर जरा भी भयभीत नहीं हुये। राम युद्धके लिये उद्यत हुये, परन्तु लक्ष्मणने उन्हें जाने नहीं दिया। वह स्वयं युद्ध लड़ने गये और कह गवे कि यदि मैं सिंहनाद करूं तो मेरी सहायताको भाइये । राम और लक्ष्मण वीर पुरुष थे, उनका पुण्य भक्षय था। खरदुषणका शत्रु विराधित उनकी सहायता करनेके लिये स्वयं मा उपस्थित हुमा। खरदृषणका भाशा भरोसा लंकाका राजा रावण था। रावणने तीनखंड पृथ्वीको जीतकर अपना पौरुष प्रगट रावण। किया था। वह बड़ा ही कर परन्तु पराक्रमी था। उसने भनेक विद्यायें सिद्ध की थीं। वह राक्षस नामक विधाघरोंके राजवंशका अग्रणी था। अमुरसंगीत नगरके राजा मयकी पुत्री मन्दोदरी रावणकी पटरानी थी। रावणने दिग्विजयमें दक्षिणभारतके देशोंको भी अपने आधीन बनाया था। रावणके सहायक हैहय, टंक, किहिकन्ध, त्रिपुर, मलय, हेम, कोल मादि देशोंके राजा थे। रावण अपनी दिग्विजयमें विंध्याचलपर्वतसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण । [ ४३ होता हुआ नर्मदा तटपर आया था और वहां डेरा डाले थे । बह जिनेन्द्रभक्त था । इस संग्रामक्षेत्र में भी वह जिनपूजा करना नहीं भूलता था । रावणने जिस स्थानपर पड़ाव डाला था, वहांसे कुछ दूरीपर माहिष्मती नगरीका राजा सहस्ररश्मि जलयंत्र के द्वारा जल बांधकर अपनी रानियों सहित क्रीड़ा कर रहा था । अकस्मात् बंधा हुआ जल टूट गया और नर्मदामें बेढब बाढ़ आने से रावणकी पूजा में भी विन पड़ा। रावणने सहस्ररश्मिको पकड़ने के लिये आज्ञा दी । रावण के योद्धा चले और वायुयानोंपर से युद्ध करने लगे, जिसे देवोंने अन्याय बताया, क्योंकि सहस्ररश्मि भूमिगोचरी था, उसके पास वायुयान नहीं थे । * हठात् रावणके योद्धा पृथ्वीपर आये और सहस्ररश्मिसे युद्ध करने लगे। सहस्ररश्मि ऐसी वीरता से कड़ा कि रावणकी सेना एक योजन पीछे भाग गई । यह देखकर रावण स्वयं युद्ध क्षेत्र में भाया। उसके आते हीं संग्रामका पासा पलट गया । उसने सहस्ररश्मिको जीता पकड़ लिया किन्तु मुनि शतबाहुके कहनेसे रावणने उन्हें छोड़ दिया और अपना सहायक बनाना चाहा, परन्तु वह मुनि होगये । उस दिग्विजयमें. रावण जहां जहां जाता वहां वहां जिनमंदिर बनाता था, अथवा उनका जीर्णोद्धार कराता था और हिंसकोंको दण्ड तथा दरिद्वियोंको दाम देकर संतुष्ट करता था । दक्षिण भारतके पूदी पर्वत आदि * इससे स्पष्ट है कि रावण भारतवर्षका निवासी नहीं था, उसकी लंका भारतवर्ष के बाहर कहीं पर थी, यह अनुमानित होता है। विशेषके लिये 'भगवान पार्श्वनाथ' नामक पुस्तक देखिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmv ४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । स्थानोपर उसने जिन मूर्तियां स्थापित कराई थीं - इस प्रकार रावणने अपना प्रताप चहुंओर छिटका रक्खा था । खरदूषणने उसको अपनी सहायताके लिये बुलाया। और वह माया भी। मार्गमें आते हुये रावणने सीताको देखा । वह उसके रूप-सौन्दर्यपर मुग्ध होगया । धोखा देकर वह सीताको हरकर लंका लेगया । राम और लक्ष्मण जब युद्धसे लौटे तो उन्होंने सीताको नहीं पाया । वे उनके वियोगमें माकुल-व्याकुल होगये और उनकी तलाशमें वन. वन भटकने लगे। __ बाली द्वीपमें बानरवंशी विद्याधर राजा रहते थे। उनके वंशज वहांसे राज्यच्युत होकर दक्षिण भारतमें मा राम-रावण युद्ध । रहे । मिष्किन्धापुर उनकी राजधानी थी। तब वहां सुग्रीव नामका राजा राज्य करता था । रामचंद्रने उसकी सहायता करके उसे अपना मित्र बनाया। सुग्रीवने मीताका पता लगानेके लिये शपथ ली और वह उस कार्यमें सफल हुआ। राम भौर लक्ष्मणको पता चल गया कि सीता राव. गके यहां लंकामे है । लक्ष्मणने दक्षिण भारतकी कोटिशिलाको घुटनोंतक उठाकर अपने भतुल बलका परिचय विद्याधर राजाओंको दिया, जिससे वे रामका साथ देकर रावणसे लड़नेके लिये तत्पर होगये । - अब हनुमानजीको सीताके समाचार लेनेके लिये भेजा गया। वह दक्षिण भारतके महेन्द्र पर्वतपरसे होकर लंका गये थे। वहां x कच० ५-५-१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण । [ ४५ पहुंचकर सीताजी से मिले और रावण एवं उसके परिजनों को समझाया; परन्तु रावणने एक न मानी। हनुमानजी लौटकर रामके पास आये और सब समाचार कह सुनाये। इसपर राम और लक्ष्मणने रावणपर आक्रमण किया और भयानक युद्धके उपरान्त लक्ष्मणके हाथ से रावणका बघ हुआ । सीता रामको मिलीं | लंकाका राज्य विभीषणको दिया गया । राम, लक्ष्मण और सीता वनवासका काल व्यतीत करके अयोध्या लौट आये। राम राजा हुये और सानंद राम और लव-कुश । राज्य करने लगे । भरत मुनि होगये । रामने सीताको घरमें वापस रख लिया, इस बात को लेकर प्रजाजन उच्छृंखल होने लगे । इस पर रामने सीताको वनवासका दंड दिया । सीता गर्भवती थी, बनमें असहाय खड़ी थी कि पुण्डरीकपुरके वज्रजंघ राजाने उसकी सहायता की । वह सीताको अपने नगर लिवा लेगया और धर्मभगिनीकी तरह उसे रक्खा | वहां सीताके लव और कुश नामक दो प्रतापी पुत्र हुये । युवावस्था प्राप्त करके यह दिग्विजय करनेके लिये निकले । पोदनपुर के राजाके साथ इनकी मित्रता होगई और ये उसके साथ अनेक देश देशांतरोंको विजय करने में सफल हुए । आंध्र, केरल, कलिंग आदि दक्षिण भारत के देशों को भी इन्होंने जीता था, परन्तु अयोध्या तक वह नहीं पहुंचे थे । नारदने राम-लक्ष्मणका वृतांत दोनों माइयोंसे कहा, जिसे सुनकर वे क्रोधित हो उनपर सेना लेकर चढ़ गये । पिता-पुत्रका युद्ध हुआ, किन्तु क्षुल्लक सिद्धार्थने उनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | परस्पर संधि करादी | लव कुश अयोध्या में पहुंचे। सीताकी अनि परीक्षा हुई जिसमें उनकी सहायता देवोंने की। रामने सीता से घर चलनेकी प्रार्थना की, परन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार किया और पृथ्वीमति आर्यिका के निकट साध्वी होगई। साध्वी सीताकी वन्दना राम लक्ष्मणने की । इस प्रकार दक्षिण भारत से राम और लक्ष्मणका सम्पर्क था । * राजा ऐलेय और उसके वँशज । भगवान् मुनिसुव्रतनाथजी के समयमें सुव्रत के पुत्र दक्ष नामके राजा हुये थे । यह हरिवंशी क्षत्रिय थे। उनकी रानीका नाम इला था । उनसे राजा दक्षके ऐलेय नामका पुत्र और मनोहरी नामक पुत्री हुई थी । पुत्री अतिशय रूपवती थी। राजा दक्ष स्वयं अपनी पुत्रीपर आसक्त था । उसने धर्ममर्यादाका लोप करके मनोहरीको अपनी पत्नी बना डाला ! इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि दक्षके विरोधी स्वयं उसके परिजन होगये । रानी इला अपने पुत्र ऐलेयको सरदारों सहित लेकर विदेशको चल दी। अनीतिपूर्ण राज्यमें कौन रहे ? दुर्ग देशमें पहुंचकर उन्होंने इलावर्द्धननगर बसाया और वहां ही वे रहे । ऐलेय हरिवंशका तिलकस्वरूप प्रमाणित हुआ । उसने अपने शौर्य और पुरुषार्थसे ताम्रलिप्त नगर बसाया और दक्षिण दिग्विजयके लिये वह नर्मदातट पर आया । वहां उसने माहिष्मती नगरीका नींबारोपण किया। वहीं उसकी * उपु० पर्व ६७ व प्राबै० भा० २५० ९०-१५० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - राजा ऐलेय और उसके वंशज । [४७ राजधानी रही । कई देशोंको जीतकर ऐलेयने धर्मराज्य किया। वृद्धावस्थामें वह अपने कुणिम नामक पुत्रको राज्य देकर तपके लिये .वनमें चला गया। शत्रुभोंको संताप देनेवाले राजा कुणिमने विदर्भदेशमें वरदा नदीके किनारे एक कुंडिनपुर नामका नगर बसाया। कुणिमके पश्चात् उनका पुत्र पुलोम राजा हुमा, जिसने पौलोमपुर नामका नगर बसाया । इनके पौलोम और चरम नामक दो पुत्र थे। पुलोमके मुनि होनेपर वे ही राजा हुवे। उन्होंने कई गजाओंको जीता था। दोनोंने मिलकर रेवानदीके किनारे इन्द्रपुर बसाया और चरमने जयन्ती और वनवास नामक दो नगर प्रथक बसाये । उपरान्तकालमें यह दोनों नगर दक्षिणभारत के इतिहासमें खूब ही प्रसिद्ध हुये थे । राजा चरमका पुत्र संजय और पौलोमका महीदत्त हुआ। उनके उपरान्त वे ही राज्याधिकारी हुये। महीदत्तने कल्पपुर बसाया। अरिष्टनेमी और मत्स्य - ये दो उनके पुत्र थे । राजा मत्स्यने भद्रपुर और हस्तिनापुरको जीत लिया और वह इस्तिनापुर भाकर गज्य करने लगा था। मत्स्यके पश्चात् आयोधन नामका गजा हुमा, जिसकी सन्तान जाकर विदेइदेशमे राज्य करने लगी थी। इन्हीं मिथिलानाथकी सन्तति एक मभिचन्द्र नामका पराक्रमी राजा हुमा; जिसने विंध्याचलपर्वतके पृष्ठभागपर चेदिराष्ट्र की स्थापना की एवं शुक्तिमती नदीके तटपर शक्तिमती नामकी नगरी बसाई। राजा अभिचन्द्रका विवाह उग्रवंशसे उत्पन्न रानी वसुमतीसे हुमा था। इन्हींका पुत्र वसु था; जिसने जिहालम्पटताके वश ो 'मज शब्दका अर्थ 'शालि' न बताकर 'बकरा' बताया मोर यज्ञोंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८] संक्षिा जैन इतिहास। हिंसाको स्थान दिया था। इस प्रकार दक्षिणापथके एक प्राचीन नगरसे वेदोंमें हिंसक विधानोंको स्थान मिला था जैसे कि पहले भी लिखा जाचुका है। राजा वसुके पुत्र सुवसु और बृदध्वज वहां न रह सके। सुवसु भागकर नागपुरमें जारहा मौर बृहध्वज मथुरामें मा बसा ! जिसके वंशमें प्रतापी राजा यदु हुमा था ।* कामदेव नागकुमार। कनकपुरके पास राजा जयन्धर थे। उनकी एक रानी विशा. लनेत्रा थी, जिससे उनके एक पुत्र श्रीधर नामका था। एक रोज जयन्धर राजासे किसी वणिकने आकर कहा कि सौराष्ट्रदेशस्थ गिरिनगरके राजाकी पृथ्वीदेवी नामकी कन्या अति सुन्दरी है, जिसे वह राजा उन्हें ब्याहनेके लिये उत्सुक है । जयन्धर यह समाचार सुनकर प्रसन्न हुआ और उनका विवाह पृथ्वीदेवीके साथ होगया। कालान्तरमें रानी पृथ्वीदेवीके एक महा भाग्यशाली और परम रूपवान पुत्र हुआ, जिसका नाम उन्होंने प्रजाबंधु रक्खा । किन्तु उस नवजात शिशुके साथ एक अद्भुत घटना घटित हुई। वह किसी तरह राजधायके हाथोंसे निकलकर नागलोगोंकी पल्लीमें जा पहुंचा। नाग-सरदारने उस शिशुको बड़े प्यारसे पाला, पोषा और उसे शस्त्रास्त्र में निष्णात बना दिया । भारतीय साहित्यमें इन नागलोगोंका वर्णन अलंकृत रूपमें है। उसमें इनको वापियों और कुओंमें * हरि० सर्ग १७ संभवतः निजाम राज्यका मलादुर्ग नामक स्थान इलापर्धन नगर है। कहते हैं वहां हजारों जिनमूर्तियां जमीदोस्त हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ऐलेय और उसके वंशज। [४९ " रहते लिखा है तथा इन्हें सर्प अनुमान किया है । वास्तवमें इसका भाव यही है कि वे मनुष्य थे। विद्वानोंका कथन है कि भारतवर्षके आदि निवासी असुर जातिसे नागलोगोंका सम्पर्क था। उनका वजचिह्न सर्प था और वे ब्राह्मणों को मान्यता नहीं देते थे। एक समय वे सारे भारत ही नहीं बल्कि मध्य ऐशिया तक फैले हुये थे। नर्मदा तटपर उनका अधिक आवास था। उनमें जैनधर्मका प्रचार एक अति प्राचीनकालसे था। तामिल देशके शास्त्रकारोंने दक्षिण भारतके प्राचीन निवासियों में नाग लोगोंकी गणना की है। ऐतिहासिक कालमें नागराजाओंकी कन्याओं के साथ पल्लवंशके राजाओंके विवाह सम्बन्ध हुए थे। तामिल देशका एक भाग नाग लोगोंकी अपेक्षा नागनादु कहलाता था। जैन पद्मपुराणमें नागकुमार विद्याधरोंका भी उल्लेख है। राजा जयंधरके पुत्र इन्हीं नाग लोगोंके एक सरदारके यहां शिक्षित और दीक्षित हुए थे। संभव है, इसी कारण उनका अपरनाम नागकुमार था। उनका सम्बंध अवश्य नागोंसे रहा था। 'विष्णुपुराण' में नौ नागराजाओंमें भी एक नागकुमार नामक थे । परन्तु यह स्पष्ट नहीं कि वह हमारे नागकुमारसे अमिन्न थे । नाग लोग अपने रूप सौंदर्य के लिये प्रसिद्ध थे । सुन्दर कन्याको 'नागः कन्या' कहना लोकप्रचलित रहा है। नागकुमार भी अपने अलौकिक रूपके कारण स्वयं कामदेव कहेगये हैं। । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । दक्षिण भारतकी अन्य राजकन्याओंसे उनका विवाह हुमा प्रगट है, परन्तु पल्लव देशकी राजकन्याओंको उन्होंने नहीं व्याहा था। शायद इसका कारण यही हो कि स्वयं नागकन्यायें पल्लवोंको व्याही गई थीं। यह सब बातें कुछ ऐसी हैं जो नाग लोगोंसे नागकुमारकी धनिष्टताको ध्वनित करती हैं। होसकता है कि वे नाग बंशज ही हों ।* जो हो, युवा होनेपर नागकुमार अपने माता- पिलाके पास कनकपुर लौट आये और वहां सानंद रहने लगे। किन्तु उनके सौतेले भाई श्रीधरसे उनकी नहीं बनी। भाइयोंकी इस अनबनको देखकर राजा जयंघरने थोड़े समयके लिये नागकुमारको दुर हटा दिया । ज्येष्ठ पुत्र श्रीधर था और उसीका अधिकार राज्यपर था । नागकुमार मथुरा जापहुंचा । वहांके राजकुमारों-व्याल और महाव्यालसे उसकी मित्रता होगई । उनके साथ नागकुमार दिग्विजयको गया। और बहुतसे देशोंको जीता एवं राजकन्याओंको व्याहा। महाव्यालके साथ नागकुमार दक्षिण भारतके किमिन्धमलय देशस्थ मेघपुरके राजा मेघवाहनके अतिथि हुए । राजा मेघवाहनकी पुत्रीको मृदंगवादनमें परास्त करके नागकुमारने उसे व्याहा। फिर मेघपुरसे नागकुमार तोयाबलीद्वीपको गये। वहांसे लौटकर वह पांख्य देश आये थे। पांड्य नरेश ने उनकी खूब भावभगत की थी। * नाग लोगोंके विषय में जाननेके लिये हमारी 'भगवान पार्श्वनाथ' पुस्तक तथा 'णायकुमार चरित' (कारंजा)की भूमिका देखिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा रेव और उसके बँधन। [५१ उनसे विदा होकर वह मांध्र देश पहुंचे। ऐसे ही धूमते हुने माखिर राजा जयन्धरने उन्हें बुल्ग भेजा और उनका राज्याभिषेक कर दिया। नागकुमार राजाधिराज हुये और नीतिपूर्वक उन्होंने कारविशेष तक राज्यशासन किया । वृद्धावस्थाके निकट पहुंचने पर उन्होंने राज्यभार अपने पुत्र देवकुमारको नौंषा और स्वयं दिगम्बर मुनि हो तप तपने लगे । न्याल, महाव्याल, अचेय और मछेव नामक राजकुमारोंने भी उनके साथ मुनित्रत धारण किया था। तपश्चरण द्वारा कर्मोका नाश करके वे पांचों ऋषिवर भष्टापद नामक पर्वतसे मोक्षधाम सिधारे थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । ( भाग ३ खण्ड १ ) ऐतिहासिक काल । (प्राचीन खण्ड) दक्षिण भारतका इतिहास | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक-काल। (प्राचीन खण्ड) भारतवर्षके इतिहासका प्रारम्भ कबसे माना जाय ? यह एक ऐसा प्रश्न है कि जिसका ठीक उत्तर भारतके इतिहासका आजतक नहीं दिया जासका है। विद्वाप्रारम्भ । नोंका इस विषयपर भिन्न मत है। भार तीय विद्वान आर्य सभ्यताकी जन्मस्थली भारतभूमि मानते हैं और उसके इतिहासका आरम्भ एक कल्पनातीत समयसे करते हैं। जैन शास्त्र भी इसी मतका प्रतिपादन करते हैं, किन्तु उनके कथनमें यह विशेषता है कि वे भारतभूमिका आदि धर्म जैनधर्म और प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव द्वारा संस्थापित सभ्यताको आदि सभ्यता प्रगट करते हैं। जैन शास्त्रोंके इस कथनका समर्थन माधुनिक ऐतिहासिक खोजसे भी होता है। प्रो० हेल्मुथ फॉन ग्लासनप्प सदृश यूरोपीय विद्वान् जैनधर्मको ही भारतका सर्व प्राचीन धर्म घोषित करते हैं।' उधर भारतीय पुरातत्वसे यह स्पष्ट है कि वैदिक (ब्राक्षण) आर्योंके अतिरिक्त और उनसे पहले भारतवर्ष में एक सभ्य और संस्कृत जातिके लोग निवास करते थे। वे लोग असुर, द्राविड, नाग मादि नामोंसे विख्यात थे और उनमें जैनधर्मका प्रवेश एक अत्यंत प्राचीनकालमें ही होगया था। जैनोंके प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव सुर, मसुर, नाग मादि द्वारा 9-Der Tainismus Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ संक्षिप्त जैन इतिहास | पूजित प्राचीन जैन शास्त्रों में कहे गये हैं ।' और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि भारत के आदि निवासी असुर ही वैदिक मायसे प्राचीन मनुष्य हैं जो भारतवर्ष में रहते थे। सिंधु उपत्ययकाकी सभ्यता उन्हीं लोगों की सभ्यता थी और बहांकी धर्मउपासना जैन धर्मसे मिलती जुलती थी । किन्तु इस मान्यता के विरुद्ध भी एक विद्वत्समुदाब है, जिसमें अधिकांश भाग यूरोपीय विद्वानोंका है। वे लोग भारतको आर्योका जन्मस्थान नहीं मानते। उनका कहना है कि वैदिक आर्य भारत में मध्य ऐशियासे आये और उन्होंने यहोंके असुर दास आदि मूल निवासियोंको परास्त करके अपना अधिकार और संस्कार प्रचलित किया । इस घटना को वे लोग आजसे लगभग पांच है हजार वर्ष पहले घटित हुआ प्रगट करते हैं और इसीसे भारतीय इतिहासका प्रारम्भ करते हैं । किंतु सिन्धु उपत्ययकाका पुरातत्व भारतीय इतिहासका आरम्भ उक्त घटनासे दो-चार हजार वर्ष पहले प्रमा १ - ' सुर असुर गरुल गहिया, चेहयरुक्खा जिणवगणं ॥ ६-१८॥॥॥ - समवायाङ्ग सूत्र | << एस सुरासुर मणुसिंद, बंदिदं घोदघाइकम्ममलं । पणमामि वड्ढाणं, तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ १९ ॥ " कर्मान्तकुन्महावोरः सिद्धार्थ कुळसंभवः । एते सुरासुरौघेण पूजिता विमलत्विषः ॥ ५ ॥ B प्रवचनसार । - देवशास्त्रगुरुपूजा | MA २- महिइं० पृ० ४ - २५. O Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काळ । [ ५७ णित करता है। हां, वह अवश्य है कि उस समयका ठीक हाल हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । उसको ढूँढ निकालने के लिये समय और शक्ति अपेक्षित है। किंतु यह स्पष्ट है कि भारतीय इतिहासका जो आदिकाल योरुपीय विद्वान मानते हैं वह ठीक नहीं है । यह तो हुई समूचे भारतके इतिहासकी बात; परन्तु हमारा सम्बन्ध यहां पर दक्षिण भारतके इतिहाससे दक्षिण भारतका है। हमें जानना है कि दक्षिण भारतका इतिहास कबसे व्यारम्भ होता है, और उसमें जैनधर्मका प्रवेश कबसे हुआ ? यह इतिहास | प्रथक नहीं था तो प्रगट ही है कि दक्षिण भारत समूचे भारतसे और इस दृष्टिसे जो बात उत्तर भारतके इतिहास से सम्बद्ध है वही बात दक्षिण भारत के इतिहामसे लागू होना चाहिये । साधारणतः यह कथन ठीक है और विद्वान यह प्रगट भी करते हैं कि एक समय सारे भारतमें वे ही द्राविड़ लोग मिळते थे जो उपरांत दक्षिण भारत में ही शेष रहे। किंतु दक्षिण भारतकी अपनी विशेषता मी है । वह उत्तर भारत से अपना प्रथक् अस्तित्व भी रखता है और वहां ही आज प्राचीन भारतके दर्शन होते हैं। मैसूर के चन्द्रदल्ली • १- बरई०, पृष्ठ २३ - "Step by step the Dravidians receded from Northern India, though they never left it altogather.” २-“India, south of the Vindhyas – the Peni. nsular India-still continues to be India proper. Here the bulk of the people continue distinctly Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ५८] संतिम जैन इतिहास । नामक स्थानसे मोहन जोदडो जैसी और उतनी प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई। बस, जब हम उसके स्वतंत्ररूपये दर्शन करते हैं और उसके इतिहासका प्रारम्भिक काल टटोलते हैं तो वहां भी धुंधला प्रकाश ही मिलता है। विद्वानोंका तो कथन है कि दक्षिण भारत के इतिहासका यथार्थ वर्णन दुर्लभ है । सर विन्सेन्ट स्मिथने लिखा था कि 'दूरवर्ती दक्षिण भारतके प्राचीन राज्य यद्यपि धनजन सम्पन्न और द्राविड़ जातिके लोगोंसे परिपूर्ण थे, परन्तु वे इतने मप्रगट थे कि शेष दुनियां को-स्वयं उत्तर भारतके लोगोंको उनके विषयमें कुछ भी ज्ञान न था। भारतीय लेखकोंने उनका इतिहास भी सुरक्षित नहीं रक्खा । परिणामतः आज वहांका ईस्वी आठवीं शताब्दिसे पहले का इतिहास उपलब्ध नहीं है।' एल्फिन्सटन सा० to retain their pre-Aryan features; their preAryan languages, their pre-Aryan institutions." -Pillai's Tamil Antiquities. जैनशास्त्र में भी कहा गया था कि इस काल में दक्षिणभारत में हो जैनधर्म जीवित रहेगा। क्या यह उसके प्राचीन रूपका द्योतक है ? १-"The ancient kingdoms of the fer south, although rich and populous, inhabited by Dra ridian nations......were ordinarily 80 secluded -- from the rest of the civilised world, inoluding northern India, that their affairs remained hidden from the eyes of other nations and native annalists being lacking, thoir history provious to the year 800 of the obristian era, has almost wholly perished......" -EHI. P. 7. - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [५९ ने स्पष्ट लिखा था कि प्राचीनकालमें दक्षिण भारतकी राजनैतिक घटनाओं का सम्बन्धित विवरण लिखा ही नहीं जा सकता। भाज भी यह कथन एक हदतक ठीक है। परन्तु इस दरमियानमें जो ऐतिहासिक खोज और अन्वेषण हुये हैं, उनके आधारसे दक्षिण भारतका एक क्रमबद्ध ऐतिहासिक विवरण ईस्वी प्रारम्भिक शताब्दियोंसे लिखा जा सकता है। किंतु वह समय दक्षिण भारतके इतिहासका भारम्भ-काल नहीं कहा जा शकता । भले ही ईस्वी पूर्व शताब्दियोंके दक्षिण भारतका क्रमबद्ध विवरण न मिले, परन्तु उसकी सम्यता और संस्कृतिके अस्तित्व मौर अभ्युत्थानका पता बहुत समय पहले तक चलता है। सिंधु उपत्ययकाका पुरातत्व और वहांकी सभ्यता द्राविड़ सभ्यतासे मिलती जुलती थी।' चन्द्रहल्लीका पुरातत्व इसका साक्षी है। सुमेरु जातीय लोगोंसे भी द्राविड़ोंका सादृश्य था। और यह सुमेरु लोग सिंधुसुवर्ण अथवा सिंधु सुवीर देशके मूल अधिवासी थे । सु-राष्ट्र या सौराष्ट्रसे ही जाकर वे मेसोपोटेमिया आदि देशोंमें बस गये थे। गुजरातके जैनी वणिक इस सु-वर्ण जातिके ही वंशज अनुमान किये जाते हैं। सिंधु, सुमेरु और द्राविड़-इन तीनों जातियों की सभ्यता और संस्कृतिका सादृश्य उन्हें सम-सामायिक सिद्ध करता है। इसलिये द्राविड़ देश अर्थात् दक्षिण भारतका इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि सुमेरु जातिका है, बल्कि संभव तो यह १-Ibid. २-मोद० भा० १ पृ० १०९। ३-विभा० भा. १८ अंक ५ पृ० ६३१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.] संतिम जैन इतिहास। है कि वह उनसे भी प्राचीन हो क्योंकि सुमेरु लोगोंने भारतसे जाकर मेसोपोटेमियामें उपनिवेशकी नीव डाली थी। महाराष्ट्र, निजाम हैदराबाद और मद्रास प्रान्तमें ऐसे प्राचीन स्थान मिलते हैं जो प्राग् ऐतिहासिक कालके अनुमान किये गये हैं और वहांपर एक अत्यंत प्राचीन समयके शिलालेख भी उपलब्ध हुये हैं । यह इस बातके सबूत हैं कि दक्षिण भारतका इतिहास ईस्वी प्रारम्भिक शताब्दियोंसे बहुत पहले आरम्भ होता है। उधर प्राचीन साहित्य भी इसी बातका समर्थक है। तामिळ साहित्यके प्राचीन काव्य ‘मणिमेखले' और 'सीलप्पद्धिकारम् ' में एवं प्राचीन व्याकरण शास्त्र - थोलप्पकियम् ' में दक्षिण भारतके खूब ही उन्नत और समृद्धिशाली रूपमें दर्शन होते हैं और यह समय ईसासे बहुत पहलेका था । अतः दक्षिण भारतके इतिहासको उत्तर भारत जितना प्राचीन मानना ही ठीक है ! अब जरा यह देखिये कि दक्षिण भारतमें जैनधर्मका प्रवेश कब हुआ ? इस विषयमें जैनियोंका दक्षिण भारतमें जो मत है वह पहले ही लिखा जाचुका जैनधर्मका प्रवेश। है। उनका कथन है कि भगवान ऋष भदेवके समयमें ही जैनधर्म दक्षिण भारतमें पहुंच गया था। उधर हिन्दु पुराणोंकी साक्षीके आधारसे हम यह देख ही चुके हैं कि देवासुर संग्रामके समय अर्थात् उस प्राचीन कालमें जब भारतके मूल निवासियोंमें ब्राह्मण आर्य अपनी वैदिक -सभ्यताका प्रचार कर रहे थे, जैनधर्मका केन्द्र दक्षिण पथके नर्मदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [६१ तटपर मौजूद था। जैन मान्यता भी इसके अनुकूल है। उसमें नर्मदा तटको एक तीर्थ माना है और वहांसे अनेक जैन महापुरु. षोंको मुक्त हुमा प्रगट किया है। वैसे भी हिंदू पुराणों के वर्णनसे नर्मदा तटकी सभ्यता अत्यंत पाचीन प्रमाणित होती है. यद्यपि अभी. तक वहांकी जो खुदाई हुई है उसमें मौर्यकालसे प्राचीन कोई वस्तु नहीं मिली है। होसक्ता है कि नर्मदा तटका वह केन्द्रीय स्थान अभी अप्रगट ही है कि जहां उसकी प्राचीनताकी द्योतक अपूर्व सामग्री भूगर्भ में सुरक्षित हो। सारांश यह कि जैन ही नहीं बल्कि प्राचीन भारतीय मान्य. तानुसार जैनधर्मका प्रवेश दक्षिणमारत में एक अत्यन्त प्राचीनकालसे प्रमाणित होता है। परन्तु आधुनिक विद्वजन मौर्यकालमें ही जैन धर्मका प्रवेश दक्षिणभारतमें हुआ प्रगट करते हैं। वे कहते हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहुने जब उत्तरभारतमें बारहवर्षका अकाल होता जाना तो वे संघ सहित दक्षिणभारतको चले माये और उन्होंने ही यहांकी जनताको जैनधर्ममें सर्व प्रथम दीक्षित किया। इसके विपरीत कोई कोई विद्वान् जैनधर्मका प्रवेश दक्षिणभारतमें इससे किंचित् पहले प्रगट करते हैं। उनका कहना है कि जब लंकामें जैनधर्म इस घटनासे पहले अर्थात् ईस्वीपूर्व पांचवी शताब्दिमें ही पहुंचा हुआ मिलता है तो कोई वजह नहीं कि तब १-नवग्रह बरिष्ट निवारक विधान पृ० ४१। २-'सरस्वती' भाग ३८ अंक १ पृष्ठ १८-१९ । । ३-महिई० पृ० १५४, कैहिई, पृ० १६५, कलि०, पृ० १८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ૨ उसका अस्तित्व दक्षिणभारत में न माना जावे।' आन्ध्रदेशमें जैन धर्म प्राड् मौर्यकाल से प्रचलित हुआ प्रगट किया ही जाता है। किन्तु हमारे विचारसे जैनधर्मका प्रवेश इस काळसे भी बहुत पहले दक्षिण भारतमै होचुका था । उपरोक्त साक्षीके अतिरिक्त प्राचीन जैन और तामिल साहित्य तथा पुरातत्व इस विषय में हमारा समर्थन करते हैं । पहले ही जैन साहित्यको लीजिये ! उसमें बगबर श्री ऋषभदेव के समय से दक्षिणभारतका उल्लेख मिलता है, जैसे कि पौराणिक कालके वर्णन में लिखा जाचुका है। और आगे के पृष्टोंमें और भी लिखा जायगा । सचमुच जैनोंको लक्ष्य करके जैन ग्रंथोंमें दक्षिणभारत के पल्लवदेश, दक्षिणम १-“If this information (of the 'Mahavamsa') could be relied upon, it would mean that Jainism was introduced in the island of Ceylon, so early as the fifth century B. C. It is impossi ble to conceive that a purely North Indian religion could have gone to the island of Ceylon without leaving its mark in the extreme south of India, unless like Buddhism it went by sea from the north. ''—— Studies in South Indian Jainism, -Pt. I p. 33. " २- Jainism in the Andhra desh, at least, was probably pre-Mauryan...... — Ibid., Pt. II. p. 2. 29 ३ - ६५० पृ० ६०९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [६३ थुरा,' पोलासपुर, महिल, महाशोकनगर इत्यादि स्थानोंका प्राचीन वर्णन मिलता है। दक्षिणमथुराको स्वयं पाण्डवोंने बसाया था। पल्लचदेशमें भगवान अरिष्टनेमिका विहार हुआ था, जैसे कि हम भागे देखेंगे। ये ऐसे उल्लेख हैं जो दक्षिणभारतमें जैनधर्मके अस्तित्वको भद्रबाहु स्वामीसे बहुत पहलेका प्रमाणित करते हैं। यही बात तामिल साहित्यसे सिद्ध होती है। तामिल साहित्यमें मुख्य ग्रन्थ " संगम-काल" के हैं, जिसकी तिथिके विषयमें भिन्न मत हैं। भारतीय पंलि उस कालको ईस्वीरन्से हजारों वर्षों पहले लेजाते हैं; किन्तु आधुनिक विद्वान् उसे ईस्वीसन से चार-पांचसौ वर्ष पहले ईस्वी प्रथम शताब्दितक अनुमान करते है। यह जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट ही है कि 'संगमकाल' के ग्रंथ प्राचीन और प्रमाणिक हैं। इनमें 'तोल्काप्षियम्' नामक ग्रन्थ सर्व प्राचीन है। इसका रचनाकाल ईस्वीपूर्व चौथी शताब्दि बताया जाता है और यह भी कहा जाता है कि यह एक जैन रचना है। इसका स्पष्ट मर्थ यही है कि जैनधर्मका प्रचार तामिलदेशमें मौर्यकालसे पहले होचुका था। तामिल के प्रसिद्ध काव्य 'मणिमेरूलै' और 'सीलप्पद्धिकारम्' हैं और यह क्रमशः एक बौद्ध और जैन लेखककी रचनायें हैं। इनमें जैनधर्मका खास वर्णन मिलता है। बौद्धकाव्य 'मणिमेखलै' से १-ज्ञातृधर्म कथांग सूत्र पृ० ६८० व हपु० पृ० ४८७ । २-अंतगड़दशांग सूत्र पृष्ठ २२ । ३-अन्तगडदशांग सुत्र पृ० ११। ४-भगवती पृष्ठ १९५८ । ५-बुसृ० ( Budhistic Studies ) पृष्ठ ६७१। ६-बुस्ट०, पृ० ६७४ मोर जैसाई• भा• १० ८९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] संक्षिप्त जैन इतिहास। स्पष्ट है कि उसके समयमें जैनधर्म तामिल देशमें गहरी जड़ पकड़े हुये था। वहां जैनियोंके विहारों और मठोंका वर्णन पदपदपर मिलता है। जनतामें जैन मान्यताओंका घर कर गना उसकी बहु प्राचीनताकी दलील है।' सीलप्पदिकारम्' भी इसी मतका पोषक है।' ____ उपलब्ध पुरातत्व भी हमारे इस मतकी पुष्टि करता है कि जैनधर्म दक्षिण भारतमें एक अत्यंत प्राचीनकालमें पहुंच गया था। जैन ग्रन्थ 'करकंडु चरित' में जिन तेरापुर धाराशिव आदि स्थानोकी जैन गुफाओं और मूर्तियोंका वर्णन है, वे आज भी अपने प्राचीन रूपमें मिलती हैं। उनकी स्थापनाका समय म० पार्श्वनाथ ( ई० पृ० ८ वीं शताब्दि) का निकटवर्ती है। इसलिये उन गुफाओं और मूर्तियों का अस्तित्व दक्षिण भारतमें जैनधर्मका अस्तित्व तत्कालीन सिद्ध करता है। इसके अतिरिक्त मदुरा और रामनद जिलोंमें ब्राह्मी लिपिके प्राचीन शिलालेख मिलते हैं। इनका समय ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दि अनुमान किया गया है । इनके पास ही जैन मंदिरोंके अवशेष और तीर्थकरोंकी खंडित मूर्तियां मिली हैं। इसी लिये एवं इनमें अकित शब्दोंके आधारसे विद्वानों ने इन्हें जैनोंका प्रगट किया है। इसके माने यह होते हैं कि उस समयमें जैनधर्म वहांपर अच्छी तरह प्रचलित होगया था । अलगरमलै ( मदुरा) एक प्राचीन जैन १-बुस्ट०, पृ० ३ व ६८१ । २-साईजे०, पृ० ९३-९४ । ३-अमेरिई०, भा० १६ प्र० सं० १-२ और करकण्डु चारेय (कारंजा) भूमिका । ४-साइजै०, भा० १ पृ. ३३-३४। - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल । [ ६५ स्थान था और वहांवर ई० पूर्व तीसरी शताब्दि के लेख पढ़े गये हैं । इन उल्लेखोंसे भी दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी प्राचीनताका समर्थन होता है । निस्सन्देह यदि दक्षिण भारत में जैन धर्मका व्यस्तित्व एक अति प्राचीनकाल से न होना तो मौर्यकाल में श्रुतकेवली भद्रबाहु जैन संघको लेकर वहां जानेकी हिम्मत न करते 1 हालचे प्रॉ० प्राणनाथने काठियावाड़ से मिले हुये एक प्राचीन ताम्रपत्रको पढ़ा है । इनकी लिपि रोमन, सिंधु, सुमेर आदि लिपियोंका मिश्रण है। प्रॉ० सा० इसे बैबीलनक राजा ने बुन्दनेभर प्रथम ( ई० पूर्व ११४०) अथवा द्वितीय ( ई० पूर्व ६०० ) का बताते हैं। उस ताम्रत्रका अर्थ उन्होंने निम्नप्रकार प्रगट किया है:" रेवानगर के गजबका स्वामी, सु... जातिका देव, नेवुश ૧ १ - जमीसा० भा० २७ पृष्ठ १२३-१२४ । २-“ Dr. Pran Nath, Professor at the Hindu University, Benares, has been able to decipher the copper-plate grant of Emperor Nebuchadnezzar I ( circa 1140 B. C. ) or II ( circa 600 B. C.) of Babylon, found recently in Kathiawar. The inscription is of great historical value, and it shows a peculiar mixture of the characters used by the Romans, The Sindha valley people and the Semites. It may go a long way in proving the antiquity of the Jain religion, since the name of Nemi appears in the inscription. " -The Times of India, 19th March 1935, p. 9. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ; www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास ! दनेज़र आया है । वह यदुराज (कृष्ण) के स्थान ( द्वारिका ) आया देव नेमि कि जो स्वर्ग है | उसने मंदिर बनवाया. सूर्य.. समान रेवतपर्वत के देव हैं ( उनको ) हमेशा के लिये अर्पण किया ।" जैन " भाग ३५ अंक १ पृष्ठ २ । इसमें गिरनार (रेवत) पर्वत देवरूपमें नेमि' का उल्लेख हुमा है और यह प्रगट ही है कि 'जैन तीर्थंकर नेमिनाथ गिरनार ( रक्त ) पर्वत से निर्वाण सिवारे थे। वह रेवत पर्वतक देव हैं । साथ डी अन्यत्र यह अनुमान किया गया है कि गुजरात जैनी वणिक 'सु' जातिके हैं।' अतः इस तत्र धर्म प्राचीनता सिद्ध होती है । परन्तु इसमें खास बात हमारे विषयकी यह है कि नेवुश दनेज़ को रेवा नगरका स्वामी कहा है । इससे प्रतीत होता है कि उसका राज्य भारत में भी था, क्योंकि रेवा नगर दक्षिण भारत में अवस्थित होसकता है । प्राचीन प्राकृत ' निर्माणकांड' में भारतकी दक्षिण दिशा में स्थित रेवनदी सिद्धवरकूटका उल्लेख है । होसता है कि उक्त रेव नगर बहीं रेवनदी निकट हो। इन ददा में यह ताम्रपत्र दक्षिण पथमे जैनधर्म के अस्तित्वको अति प्रचीनकालमें प्रगट करता है । . · उपर्युल्लिखित वार्ताको ध्यान में रखते हुये यह मानना अनुचित नहीं है कि दक्षिण भारतमें जैन ऐतिहासिक काल | धर्मका इतिहास एक अत्यंत प्राचीनकालसे प्रारम्भ होता है । उसके पौरा किालका वर्णन पूर्व पृष्ठोंमें लिखा जाचुका है। अब ऐतिहासिक ४ - विभा० भा० १८ अंक ५ पृष्ठ ६३१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [६७ कालके वर्णनमें उसका प्राचीन इतिहास लिखना अभीष्ट है । इसे हम भगवान् अरिष्टनेमिके वर्णनसे प्रारम्भ करेंगे भौर भ० महावीर के उपरांत उसके दो भाग कर देंगे, क्योंकि सुदूर दक्षिण भारतकी ऐतिहासिक घटनायें विन्ध्याचलके दक्षिणस्थ निकटवर्ती भारतसे भिन्न रही हैं। पहले · दक्षिणापथ' का ऐतिहासिक वर्णन निम्नलिखित छः कालोंमें विभक्त होता है (१) आन्ध्रकाल-ईस्वी पांचवीं शताब्दि तक । (२) प्रारम्भिक चालुक्य-(ईस्वी ५ वीसे ७वीं शताब्दि) एवं राष्ट्रकूट काल ( ७ वींसे १३ वीं शताब्दि तक ) (३) अन्तिम चालुक्य काल-(१० वीसे १४वीं श०) (४) विजयनगर साम्राज्य काल । (५) मुसलमान मराठा काल । (६) और ब्रिटिश राज्य । इसीके अनुसार सुदुरवर्ती दक्षिण भारतके निम्नलिखित छै काल होते हैं: (१) प्रारम्भिक काल-ईस्वी पांचवीं शताब्दि तक। (२) पल्लव काल-ईस्वी ५ वींसे ९ वीं शताब्दि तक । (३) चोल प्राधान्य काल-ई० ९वींसे १४वीं शतक । (४) विजयनगर साम्राज्य काल-ई० १४ वींसे १६ वीं शताब्दि तक। (५) मुसलमान-मराठा काल-ई० १६वींसे १८ वी शताब्दि तक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] संक्षिप्त जैन इतिहास । (६) ब्रिटिश राज्य-( उपरांत) प्रस्तुत 'प्राचीन खण्ड' में हम दोनों भागोंके पहले कालों तकका इतिहास लिखनेका प्रयत्न निम्न पृष्ठोंमें करेंगे। अवशेष कालोंका वर्णन आगेके खण्डोंमें प्रस्तुत करनेका प्रयत्न किया जायगा। आशा है, जैन साहित्य संसारके लिये हमारा यह उद्योग उपयोगी सिद्ध होगा। आरंभिक-इतिहास। भगवान अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । उत्तर भारतके क्षत्रिय वंशोंमें हरिवंश मुख्य था । इस वंशके राजाओंका राज्य मथुराम था, यद्यपि यादव वंश। इनके आदि पुरुष मगधकी ओर राज्य करते थे । हरिक्षेत्रका आर्य नामक एक विद्य पर अपनी विद्याधरी के साथ आकाशमार्ग द्वारा चम्पानगरमें पहुंचा था। उस समय चम्पानगर अपने राजाको खोनेके कारण अनाथ हो रहा था । विद्याधर आर्य चम्पाका राजा बन बैठा।' उसका पुत्र हरि हुमा, जो बड़ा पराक्रमी था। उसने अपने राज्यका खुब विस्तार किया। उसीके नामकी अपेक्षा उसका वंश · हरि' नामसे प्रसिद्ध हुमा । यद्यपि यह राजालोग विदेशी विद्याधर थे; परन्तु फिर भी उनको शास्त्रकारोंने क्षत्रिय संभवतः इसलिये लिखा है कि विद्याघरोंके आदि राजा नमि-विनमि भारतसे गये हुये क्षत्रिय पुत्र थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ६९ धीरे-धीरे इस वंशके राजाओंने अपना अधिकार मगध बर जमा लिया और वहाँ इस वंशमें राजा सुमित्रके सुपुत्र तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ जन्मे थे । मुनिसुव्रतनाथ स्वपुत्र सुव्रतको राज्य देकर धर्मचक्रवर्ती हुये थे । सुव्रत के उपरांत इस वंशमें अनेक राजा हुये और वे नाना देशोंमें फैल गये। उनमें राजा वसुका पुत्र बृहदध्वज मथुरा में आकर राज्याधिकारी हुआ और उसकी सन्तान वहां सानंद राज्य करती रही । तीर्थङ्कर नमिके तीर्थमें मधुराके हरिवंशी राजाओं यदु नामका एक तेजस्वी राना हुआ । यह राजा इतना प्रभावशाली था कि आगे हरिवंश इसीके नामकी अपेक्षा ' यादव वंश' के नामसे प्रसिद्ध होगया । राजा युदुके दो पोते शूर और सुवीर उसीकी तरह पराक्रमी हुये । सुवीर मथुराका राजा हुआ और शूरने कुशद्यदेशमें शौर्यपुर बसाकर वहां अपना राज्य स्थापित किया । अंधकवृष्णि आदि इनके अनेक पुत्र थे । सुवीरके पुत्र भोजकवृष्ण आदि थे । सुवीरने मधुराका राज्य उनको दिया और स्वयं सिंधुदेशमें सौवीरपुर बसाकर वहांका राजा हुआ । अंधकवृष्णिके दश पुत्र थे, अर्थात् समुद्र विजय, अक्षयोभय, स्विमित, सगर, हिमवन, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र और वासुदेव । इनकी दो बहिनें कुन्ती और मन्त्री थीं, जो पाण्डु और दमघोषको व्याहीं गई थीं । । कृष्ण वासुदेव और देवकीके पुत्र थे और नही उस समाप यादवोंमें प्रमुख राजा थे। पाण्डुराज हस्तिनापुरमें राज्य करते थे, और उनकी सन्तान पाण्डव नामसे प्रसिद्ध भी । कृष्णके भाई बलभद्र थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास। शौर्यपुरमें राजा समुद्रविजय रहते थे। उनकी रानीका नाम शिवादेवी था। उन्होंने कार्तिक कृष्ण तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि । द्वादशीको अन्तिम रात्रिने सुन्दर सोलह स्वप्न देखे; जिनके अर्थ सुननेसे उनको विदित हुआ कि उनके बावीसवें तीर्थङ्कर जन्म लेंगे। दम्पति यह बानकर अत्यन्त हर्षित हुवे । आखिर श्रावण शुक्ला पंचमीको शुभ मुहूर्तमें सती शिवादेवीने एक सुंदर और प्रतापी पुत्र प्रसव किया। देवों और मनुष्योंने उसके सन्मानमें आनन्दोत्सव मनाया । उनका नाम मरिष्टनेमि रक्खा गया। अरिष्टनेमि युवावस्थाको पहुंचते-पहुंचते एक अनुपम वीर प्रमाणित हुये। मगधके राजा जरासिंघुसे यादवोंकी हमेशा कड़ाई ठनी रहती थी। अरिष्टनेमिने अपने भुज विकमका परिचय इन संग्रामोंमें दिया था। जरासिंधुके आये दिन होते हुये अाक्रमोंसे तंग आकर यादवोंने निश्चय किया कि वे अपने चचेरे भाई सुवीरकी नाई मुराष्ट्रमें जा रमे । उन्होंने किया भी ऐसा ही। सब यादवगण मुराष्ट्रको चले गये गये जऔर वहां समुद्रतटपर द्वारिका बसाकर राज्य करने लगे। इस प्रसंगमें सु-राष्ट्रके विषयमें किंचित् लिखना अनुपयुक्त नहीं है। मालूम ऐसा होता है कि सु-राष्ट्रका परिचय । यादवोंका सम्बन्ध सु-जातिके लोगोंसे था; जिन्हें सु-मेर कहा जाता है और जो मध्य ऐशियामें फैले हुये थे । किन्तु मूलमें वे भारतवर्षके ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ७१ निवासी थे; यही कारण है कि उनके निवासकी मूल भूमि काठि यावाड़ 'सुवर्णा' अथवा ' सु-राष्ट्र' नाम से विख्यात् थी । 'महाभारत' में 'सिन्धु - सुवर्णा- प्रदेश' और जातिका उल्लेख है । 'सुवर्णा' का अर्थ 'सु' जाति होता है । जैन शास्त्रोंमें सिन्धु - सौवीर' देशका उल्लेख हुआ मिलता है ।" सौवीर देश अपनी प्रमुख नगर सौवीरपुर के कारण ही प्रख्यातिमें आया प्रतीत होता है जिसे यादवराजा सुवीरने स्थापित किया था। सुबीरका अर्थ 'सु'जातिका वीर होता है । इनके पहले और उपरान्त काटिया का उल्लेख 'सु-राष्ट्र' नामसे जैन शास्त्रोंमें भी हुआ है । इन सु-कीर लोगों की सभ्यताका सादृश्य सिंधु उपत्ययकाकी सभ्यतासं था । ४ भारतीय विद्वानोंका मत है कि सु-जातीय ( Sumerian ) सभ्यताका विकास सिंधु सभ्यतासे हुआ था । सु-जातिके लोग सुराष्ट्रसे ही जाकर मेसोपोटेमिया में बसे थे।" जैन शास्त्रोंमें हमें एक प्रसंग मिलता है जिसमें कहा गया है कि कच्छ - महाकच्छके १- " विशाल भारत” भा० १८ अंक ५ पृष्ठ ६२६ में प्रकाशित " सुमेर सभ्यताकी जन्मभूमि भारत" शीर्षक लेख देखना चाहिये । २- भगवती सूत्र पृ० १८६३ ( सिंधुसोवीरेसु जणवरसु ) व हरि० ३-३-७; ११-६८ इत्यादि । ३–Lord Aristanemi, p. 37. ४- हरि० ११-६४-७६ व ४९ - १४; आक० १-१००; नाच० १ - १९-७; कच० ३-५-६ । ५ - " विशालभारत” भा० १८ अंक ५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | पुत्र नभि - विनभिको नागराज धरणेन्द्र अपने साथ लेगया था और उन्हें विद्याधरोंका राजा बनाया था। उन्हींकी सन्तान विद्याधर नामसे मध्य ऐशिया आदिमें फैल गये थे । यादवोंके पूर्व पुरुष भी विद्याधर थे । उपर्युल्लिखित विद्याधरों के पूर्वज नमि-विनमि कच्छ महाकच्छ अथवा सुकच्छ के पुत्र थे, जिसका अर्थ यह होता है कि उनका आवास भी सुराष्ट्र ( काठियावाड़ ) था । उनके पिता कच्छ महाकच्छ देशके प्रमुख निवासी होनेके कारण ही उस नाम से प्रसिद्ध हुये प्रतीत होते हैं। और कच्छ महाकच्छ अथवा सुकच्छ देश आजकल के कच्छ देशके पास अर्थात् सिंधु सुवर्ण आदि ही होना चाहिये । इससे भी यही ध्वनित होता है कि सुराष्ट्रमे ही सुजातिके लोग मध्य ऐशिया आदि देशोंमें जारहे थे । सुमेर अथवा सुजातिके राजाओंके नाम भी प्रायः वे ही मिलते हैं जो कि भारतके सूर्यवंशी राजाओं के हैं । सुमेर राजाओंकी किशवंशावली में इक्ष्वाकु, विकुक्षि ( जिनके भाई निमि थे ), पुरंजय, अनेतु (नक्ष), सगर, ग्बु, दशरथ और रामचंद्र के नाम मिलते हैं । O मापु० सर्ग १८ श्लो० ९१-९२ व हरि ० सर्ग ९ श्लो १२७-१३० । २ - 'सु-कच्छ' नाम क्या उन्हें 'सु' जातिले सम्बन्धित नहीं प्रमष्ट करता ? ' उत्तरपुराण' (पर्व ६६ श्लोक १७) में एक 'सुकच्छ ' नामक देशका स्पष्ट उल्लेख है । इ देशके निवासी सु-जातीय होने के कारण महाकच्छ सुकच्छ नाम से प्रसिद्ध हुए प्रतीत होते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwww भगवान अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [७३ यदि ऋषभदेवको इक्ष्वाकु माना जाय जिनसे नमि विन मिने राज्यकी याचना की थी, तो किश वंशके विकुक्षि और उनके भाई निमि जैन शास्त्रके नमि विनमि अथवा सुकच्छके पुत्र विकच्छ हो सकते हैं। उधर बैबीलनके राजाने बुशदनेजर अपनेको 'सु'जातिका देव (=नरपति) और रेवा नगर के राज्यका स्वामी लिखता ही है, जिसे हम दक्षिण भारतमें अनुमान कर चुके हैं। यह राजा अपने दानपत्रमें यदुराज (कृष्ण) की राजधानी द्वारिकामें आनेका विशेष उल्लेख करता है और वैत पर्वतसे निर्वाण पाये हुए भ० नेमिके सम्मानमें एक मंदिर बनवाकर उन्हें अर्पण करने में गौरव अनुभव करता है। इससे स्पष्ट है कि यदुराजके प्रति उसके हृदयमें सम्मान ही नहीं बल्कि प्रेम था। उसका कथन ऐसा ही भासता है जैसे कि कोई नया भादमी अपने पूर्वजोंकी जन्मभूमिपर पहुंचकर हर्षोद्वार प्रगट करता हो। यादवोंका मथुरा छोड़कर सुराष्ट्रमें आना भी उनको सुजातिसे सम्बंधित प्रगट करता है। क्योंकि आपत्तिके समय अपने ही लोगोंकी याद आती है । मधुरामें जरासिंधुले दुःखी होकर यादव सुराष्ट्र में आये, इसका अर्थ यही है कि उनको सुराष्ट्रवासियोंपर विश्वास था-वे उनके आशा भोमा थे। उनके एक पूर्वज हीसुबीर नामसे प्रसिद्ध हुये ही थे और उधर सुजातिके नृप यदुराजके प्रति प्रेम और विनय प्रगट करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] संक्षिप्त जैन इतिहास। इस सब वर्णनसे यह स्पष्ट है कि यादवोंका सुराष्ट्रवासियोंसे विशेष सम्बन्ध था और मध्य ऐशियाके सु मेरे राजा भी उन्हीं के सजातीय थे। जैन शास्त्रोंमें कहा गया है कि कृष्णका राज्य वैताव्य पर्वतसे समुद्र पर्यन्त विस्तृत था। यह वैताढ्य पर्वत ही विद्याधरोंका भावास और नमिविनमि के राज्याधिकारमें था। इससे स्पष्ट है कि कृष्णके साम्राज्यमें मध्य-ऐशिया भी गर्भित था। प्राचीन भारतका आकार उतना संकुचित नहीं था, जैसा कि वह आज है । उसमें मध्य ऐशिया आदि देश सम्मिलित थे। सिन्धु और सुमेर सभ्यताओंके वर्णनसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि एक समय मध्यऐशिया तक एक ही जातिके लोगोंका भावास-प्रवास था। पूर्वोल्लिखित दानपत्रमें सुमेरनृप नेवुशदनेजर अपनेको रेवानगरका स्वामी लिखता है जो दक्षिण भारतमें रेवा (नर्मदा ) तटपर होना चाहिये । इससे प्रगट है कि नर्मदासे लेकर मेसोपोटेमिया तक उसका राज्य विस्तृत था। एक गज्य होने के कारण वहांके लोगोंमें परस्पर व्यापारिक व्यवहार और आदान-प्रदान होता था । यही कारण है कि भारतीय सभ्यता जैसी ही सभ्यता और सिके एवं वैलीप मध्यऐशियाके लोगोंमें भी तब प्रचलित थी। एक विद्वानका कथन है कि इन सु-जातिके लोगोंके धर्ममे से जैनधर्म उत्पन्न हुमा और गुजरात तथा सुराष्ट्रके जैन वणिक इन्हीं १-ज्ञातृधर्मकथाङ्गसूत्र (हैदराबाद) पृ. २२९ व हरि० पृष्ठ ४८१-४८२। २-"सरस्वती" भाग ३८ अंक १ पृष्ठ २३-२४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ७५: लोगोंके वंशज हैं ।' निःसन्देह यह कथन सत्यांशको लिये हुये है; क्योंकि इसका अर्थ यही हो सकता है कि सु-राष्ट्रवासी नमि - विनमिने भगवान ऋषभका धर्म ग्रहण करके उसका प्रचार अपने विद्याधर जातिके लोगों में किया था, जो उपरान्त मध्य ऐशिया में बहुतायत से मिलते थे । मध्य ऐशियाकी जातियों में र्जनधर्मका सद्भाव था । यह हम अन्यत्र प्रगट कर चुके हैं। उधर यह प्रगट है कि सुराष्ट्र जैनधर्मका केन्द्र रहा है। ૨ सुवर्ण और जैनधर्म | प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवक पुत्रोंके अधिकार में सिन्धु-सुवीर और सुराष्ट्र थे । अन्तमें वे मुनि होगये थे और उन्होंने जैनधर्मका प्रचार किया था । उनके पश्चात् भी सुराष्ट्रमें जैनधर्म के अस्तित्वका वर्णन शास्त्रोंमें मिलता है। स्वयं एक तीर्थकरने सुराष्ट्र तपस्या और धर्मप्रचार किया था। इससे सुराष्ट्र और वढांके निवासियों में जैनधर्म की मान्यता १४ है ! डाँ, तो इस सु-राष्ट्र आकर यादवगण बस गये । द्वारिका उनकी राजधानी हुई और कृष्ण उनकेभ० अरिष्टनेमिका राजा । तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि कृष्णके चचेरे भाई थे। उन्होंने राजकुमारी राजुल के साथ अरिष्टनेमिका विवाह कर विवाह | १ - " विशाल भारत" मा० १८ अंक ५ पृष्ठ ६३१ । २"भगवान पार्श्वनाथ" पृ० १४० - १७८ । ३ - हरि० सर्ग १३ श्लोक६४ - ७६ । ४ - हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण आदि ग्रंथ देखो । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | देना निश्चित किया । अरिष्टनेमि दूल्हा बने - बारातके बाजा बजे और ध्वजा निशान उड़े। परन्तु अरिष्टनेमिका विवाह नहीं हुआ । उन्होंने किन्हीं पशुओंको भूखप्यास से छटपटाते हुये बाड़ेमें बन्द देखा । इस करुण दृश्यने उनके हृदयको गहरी चोट पहुँचाई । उनका कोमल हृदय इस अदयाको सहन न कर सका । पशुओं को उन्होंने बन्धन मुक्त किया; परन्तु इतने से ही उन्हें - सन्तोष नहीं हुआ । उन्होंने सोचा संसार के सब ही प्राणी प्रारव्त्र और यमदूतके चुंगलमें फंसे हुये शरीरबन्धन में पड़े हुये हैं वह स्वयं भी तो -स्वाधीन नहीं है ! क्यों न पूर्ण स्वाधीन बना जाय ? यही सोच-समझकर अरिष्टनेमिने वस्त्राभूषणों को उतार फेंका। पालकीसे उत्तर - कर वह सीधे रैवतक ( गिरनार ) पर्वतकी ओर चल दिये । वहां उन्होंने श्रावण शुक्ला षष्टीको दिगम्बर मुद्रा धारण करके तपस्या करना आरम्भकी घोर तपश्चरणका सुफल केवलज्ञान उन्हें नसीब हुआ । गिरिनार पर्वत के पास सहस्राम्रवन में ध्यान माड़कर उन्होंने घातिया कर्मों का नाश अश्विन कृष्ण अमावस्या के शुभ दिन किया 1 अब भरिष्टनेमि साक्षात् सर्वज्ञ तीर्थंकर हो गये। देव और मयों उन्हें मस्तक नमाया और उनका धर्मो देश चाव से सुना । समान उत्तर प्रमुख शिष्य हुआ । कुमारी राजुल भी साध्वी होकर सार्मिकाओंमें अग्रणी हुई । १- हरि०, पृष्ठ ४१३-५०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव। [७७. एक सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थकरके रूसमें भगवान अरिष्टनेमिने नानादेशोंमें विहार करके धर्म-प्रचार किया। भगवानका हरिवंश पुराण' में लिखा है कि भगवान्. विहार। अरिष्टनेमिने क्रमसे सोठ ( सु-राष्ट्र ), लाटोरु, शूरसेन, पाटचा, कुरुजांगल, पांचाळ, कुशाग्र, मगध अनन, अंग, बंग कलिंग भादि देशोंमें विहार किया था। इम विहार में भगवान : शुभागमन मलयदेशके भदिलपुरमें" भी हुआ। वहांक राजा पौंडूने भक्तिपूर्वक भगमनकी वन्दना की। वहीं सेठ सुदृष्टिके यहां कृष्णकी रानी देवकीके छ युगलिया पुत्र रहते थे। वे भी भगवानकी वन्दना करने आये और धर्मोपदेश सुनकर मुनि हो भगवान के साथ होलिये। आगे भगवान् का विहार पल्लवदेशमें भी हुमा । उस समय दक्षिण मथुरामें पांचों पाण्डव रह रहे थे। उन्होंने जब यह सुना कि भगवान अरिष्टनेमि वहां माये हैं तो उन्होंने जाकर भगवामकी वन्दना की। इसप्रकार भगवानने दक्षिणके देशोंमें विहार किया। पल्लवदेशमें वे कईवार पहुचे थे। उनके इसप्रकार धर्मप्रचार कानेसे दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी प्रगति खुब हुई थी। उधर अपने चचेरे भाई मरिष्टनेमिके मुनि हो जानेके पश्चात् कृष्ण लोटकर द्वारिका गये और वहां सानन्द राज्य करने लगे। १-पृष्ठ १५४ । २-हरि• पृ० ५९४। ३-हरि० सर्ग ६३ श्लोक ७६-७७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । देना निश्चित किया । अरिष्टनेमि दूरहा बने-बारातके बाजा बजे और ध्वजा निशान उड़े। परन्तु अरिष्टनेमिका विवाह नहीं हुआ। उन्होंने किन्हीं पशुओंको भूखप्याससे छटपटाते हुये बाड़ेमें बन्द देखा । इस करुण दृश्यने उनके हृदयको गहरी चोट पहुँचाई । उनका कोमल हृदय इस भदयाको सहन न कर सका। 'पशुओंको उन्होंने बन्धन मुक्त किया; परन्तु इतनेसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने सोचा संसारके सब ही प्राणी प्रारब्ध और यमदुतके चुंगल में फंसे हुये शरीरबन्धनमें पड़े हुये हैं-वह स्वयं भी तो स्वाधीन नहीं है ! क्यों न पूर्ण स्वाधीन बना जाय ? यही सोचसमझकर मरिष्टनेमिने वस्त्राभूषणोंको उतार फेंका। पालकीसे उतर कर वह सीधे रैवतक ( गिरनार ) पर्वतकी ओर चल दिये । वहां उन्होंने श्रावण शुक्ला षष्टीको दिगम्बर मुद्रा धारण करके तपस्या करना आरम्मकी ' घोर तपश्चरणका सुफल केवलज्ञान उन्हें नसीब हुआ। गिरिनार पर्वतके पास सहस्राम्रवनमें ध्यान माड़कर उन्होंने धातिया कर्मों का नाश अश्विन कृष्णा अमावस्याके शुभ दिन किया । अब अरिष्टनेमि साक्षात् सर्वज्ञ तीर्थकर होगये । देव और मनुष्योंने हें मस्तक नमाया और उनका धर्मो देश चावसे सुना। खमा वादा उनका प्रमुख शिष्य हुआ । कुमारी राजुल भी साध्वी झेकर शामिकाओंमें अग्रणी हुई। १-हरि०, पृष्ठ ४१३-६०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ७७ एक सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर के रूप में भगवान् अरिष्टनेमिने नानादेशोंमें विहार करके धर्म प्रचार किया । ' में लिखा है कि भगवान्. हरिवंश पुराण अरिष्टनेमिने क्रमसे सोरठ (सु.राष्ट्र ),. भगवानका बिहार | 6 लाटोरु, शूरसेन, पाटच', कुरुजांगल, पांचाळ, कुशाग्र, मगध अंजन, अंग, बंग कलिंग आदि देशोंमें विहार. किया था ।" 1 ૨ इम विहार में भगवान का शुभागमन मलयदेशके भद्विलपुर में" भी हुआ। वहां राजा पौंड्रने भक्तिपूर्वक भगवानकी वन्दना की ।वहीं सेठ सुपिके यहां कृष्णकी रानी देवकीक छै युगलिया पुत्र : रहते थे । वे भी भगवानकी वन्दना करने आये और धर्मोपदेश सुनकर मुनि हो भगवान के साथ होलिये। आगे भगवान् का विहार पल्लवदेश में भी हुआ । उस समय दक्षिण मथुरा में पांचों पाण्डव रह रहे थे। उन्होंने जब यह सुना कि भगवान अरिष्टनेमि वहां आये हैं तो उन्होंने जाकर भगवानकी वन्दना की। इसप्रकार भगवानने दक्षिणके देशोंमें विहार किया । पल्लवदेशमें वे कईबार पहुंचे ये उनके इसप्रकार धर्मप्रचार करनेसे दक्षिण भारत में जैनधर्मकी प्रगति खूब हुई थी। 3 उधर अपने चचेरे भाई अरिष्टनेमिके मुनि हो जाने के पश्चात् कृष्ण लोटकर द्वारिका गये और वहां सानन्द राज्य करने लगे । १- पृष्ठ १९४ । २ - हरि० पृ० ५९४ । श्लोक ७६-७७ । ३ - हरि० सर्ग ६३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | जब भगवान् अरिष्टनेमि केवलज्ञानी हुये, लब वह उनकी वन्दना करने आये। उनके साथ अनेक यादवगणने तीर्थकर अरिष्टनेमिका शिष्यत्व ग्रहण किया था। उपरान्त श्री कृष्णने दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया। और अपने अतुल पौरुषसे सारे दक्षिणभारत क्षेत्रको विजय किया । इसके पश्चात् कृष्णने आठ वर्षतक खूब भोग भोगे और अन्य राजाओं को वश किया। उपरान्त उन्होंने 'कोटिशिला ' नेके लिये गमन किया । और उसे उठाकर अपने शारीरिक - बलका परिचय जगतको करा दिया। यहां से वह द्वारिका आये - और वहां उनका राज्याभिषेक हुआ । अब कृष्ण राजराजेश्वर बनकर नीतिपूर्वक राज्य करते रहे । उधर हरितनापुर में पांडव सानंद रह रहे थे कि उसका विरोध कौरवसे हुआ | युधिष्ठ शांतिप्रिय थे । उन्होंने इस विशेषको भेटनेका पश्च पाण्डव । उद्योग किया । परन्तु यह गृहामि शांत न हुई। कौरवोंने दुष्टताको ग्रहण किया। उन्होंने पांडवको लाखा मारमें जला डालनेका उद्योग किया, परन्तु वे सुरंग के रास्ते से भाग निकले । हस्तिनापुर से चलकर पांचों पांडव और कुन्ती दक्षिण भारसमें पहुंचे। वर्षों उधर ही विचरते रहे और उस ओरके राजाओंसे उन्होंने विवाह सम्बन्ध किये । | १- हरि० सर्ग ६३, कोटिशिका दक्षिण भारत में ही कहीं अवस्थित थी । श्रीमान् ब्र० सीतलप्रसादजीने इसे कलिंगदेशमें कहीं चीन्हा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव। [७९ ___अर्जुनका व्याह काम्पिल्य नगरके राजा द्रुपदकी राजकुमारी द्रौपदीसे पहले ही होचुका था ! आखिर पांडव दक्षिण मथुरा बसा कर वहीं राज्य करने लगे थे। आज भी पांडवोंके स्मारकरूपमें दक्षिण भारतमें 'पांडव मलय' आदि स्थान मिलते हैं।' एक दफा जब भगवान अरिष्टनेमि गिरनार पर्वतपर विराज मान थे, श्रीकृष्ण सपरिवार उनकी वन्दना द्वारिकाका नाश। करने गये। वन्दना करके उन्होंने तीर्थकर भगवानसे पूछा कि द्वारिकाका भविष्य क्या है ! भगवानने उत्तरमें बताया कि द्वारिकाका नाश द्वीपायन मुनिके निमित्तसे होगा। उद्धत यादव युवक मदमत्त हो द्वीपायन मुनिको छेड़ेंगे और उनकी कोपानिमें सारे यादवों सहित द्वारिका भस्म होजायगी-केवल कृष्ण और बलराम शेष रहेंगे। वे दोनों निराश होकर दक्षिण मथुराकी ओर पांडवों के पास जायगे कि रास्तेमें कौशांबवनके मध्य जरत्कुमारके बाणसे कृष्णका स्वर्गवास होगा। तीर्थकरके मुख से यह भविष्यवाणी सुनकर यादवगण भयभीत होगये और उन्होंने द्वारिकाकी रक्षाके लिये सतत् उपाय किये । परन्तु भावी अमिट थी। द्वारिकाका नाश द्वीपाइनकी क्रोधागिसे १-हरि० सग ४५ व ५४ । २-ममे स्मा०, पृ० ६१.... । २-ततेण अहा मरिनेमी दण्ड वासुदेवं एवं पयासी-एवं खलु कण्ह ! तुम मारवतिए णयरीए सुरिग्मी दीवायणे को विनिहाए सम्मापियरो णि ग्गवि पहुणे रामेण बलदेवेण सद्धि दाहिणे वेयोलियभिमुहे जुडेहल पामोक्खाणं पंचाहं पंडवाणं पंडूराय पुत्ताणं पास डनहुरं सपत्यिते कोसंत्र काणणेणं नगोहवर पायस्स अहे पुढविसिलापट्टर वियएक छाइय सरीरे....इत्यादि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] संक्षिप्त जैन इतिहास । हुआ। कृष्ण और बकराम ही उस प्रलयंकरी अमिसे बच पाये। वे दक्षिण मथुराको चले कि धोखेसे जरत्कुमारके बाणने कृष्णकी जीवनलीला समाप्त करदी ! बलराम भ्रातृमोहमें पागल होगये । पांडवोंने जब सुना तो वे बकराम के पास भाये और उनको सम्बोधा । तब बलरामने शृङ्गी पर्वतपर कृष्णके शवका अमिसंस्कार किया और कहीं मुनि हो वह तर तपने लगे। उस समय भगवान नेमिनाथ पल्लव देशमें विहार कर रहे थे। पांडव सपरिवार वहींको प्रस्थान कर गये। पल्लादेशमें विहरते भगवान अरिष्टनेमिके समवशरणमें पहुंच ___ कर पाण्डवों और उनकी रानियोंने भगवानकी निर्वाण । वन्दना की और उनसे धर्मो देश सुना । सबने अपने पूर्वभव उनसे पूछे जिनको सुनकर वे सब संपारसे भयभीत होगये । युधिष्ठिर आदि पांचों पांडवोंने तत्क्षण भगवानके चरणकमलोंमें मुनिव्रत धारण किये । कुंती, द्रौपदी मादि रानियां भी राजमती मार्यिकाके निकट साध्वी होगई । इसपकार सब ही सन्यस्त होकर तप तपने में लीन होगए ! अब भगवान अरिष्टनेमिका निर्माणकाल समीर रहा था । इसलिये वे पल्लवदेशसे चलकर उत्तर दिशा में विहार करते हुए गिरिनार पर्वतपर मा विराजे । उनके साथ संघमें पाण्डवादि भी भाये । गिरनार पर्वतपर आकर भगवान् अरिष्टनेमिने निर्वाणकालसे एक मास पूर्वतक धर्मोग्देश दिया। यह उनका अंतिम प्रवचन था। १-हरि० सर्ग ६२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव। [८१ उपरान्त एक मास पहले से उन्होंने योगोंका निरोध किया । मौर भघातिया कर्मों का नाश कर वे मुक्त होगये । उस समय समुद्र. विजय, शंबू, प्रद्युम्न आदि भी गिरनारसे मोक्ष गये थे। इस पुनीत घटनाके हर्षमें देवोंने भानन्दोत्सव मनाया था। इन्द्रने गिरिनार पर एक सिद्धशिला निर्मापी, जिसपर भगवान् नेमिनाथके समस्त लक्षण अंकित कर दिये। इस प्रकार भगवानको मुक्त हुमा जानकर पांचों पाण्डव शत्रुजय पर्वतपर जा विराजे। वहां उन्होंने गहन ध्यान माड़ा । उस ध्यान अवस्थामें उनपर कौरव वंशके युघरोवन नामक दुष्टने घोर उपसर्ग किया। उसने लोहे के कड़े, मुकुट आदि बनाये और उन्हें अमिमें ताकर पांडवों को पहिना दिये, जिससे उनके शरीर अवयव बुरी तरह जल गये । परन्तु साधु पाण्डवों ने इस उपसर्गको सम मावोंसे सहन किया । युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन उसी. समय मुक्त हो सिद्ध परमात्मा हुये। मुनिराज नकुल और सहदेव भाइयों के मोहमें किंचित् फंस गये । इसलिए वे मरकर सर्वार्थसिद्धि विमानमें महिमिन्द्र हुये। बलमद भी ब्रह्मस्वर्ग देव हुये।" उपरान्त यादवोंमें केवल जरत्कुमार शेष रहे गौर नहाँसे यादवोंकी वंशपरम्परा जीवित रही । मरकुमार कनिदेश जाकर राज्य करने लगे और वहीं उनकी सन्तान राज्याधिकारी हुई थी। १-हरि० सर्ग ६५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | यहां यह प्रश्न निरर्थक है कि क्या भगवान अरिष्टनेमि एक ऐतिहासिक महापुरुष थे ? पूर्वोल्लिखित सम्राट् त्रुश्दने ज्जर के दानपत्र में उनका स्पष्ट उल्लेख हुआ है और उससे उनका अस्तित्व एक अति प्राचीनकाल से सिद्ध है । उस दान पत्रके अतिरिक्त गिरिनार पर्वतपा भनेक 'प्राचीन स्थान और लेख हैं, जो भ० अरिष्टनेमिश्री ऐतिहासिकताको प्रमाणित करते हैं । ८२ ] भ० अरिष्टनेमि ऐतिहासिक पुरुष थे। f 1 गिरिनारके बाबा प्यागके मटवाले शिलालेख में केवलज्ञान सम्प्राप्तानाम्" बाक्य पढा गया है; जिससे स्पष्ट है कि वह स्थान किसी केवलज्ञानीके प्रति उत्सर्गी कुन था और यह विदित ही है कि श्री अरिष्टनेमिने गिरिनार पर्वतक निष्ट व वलज्ञान प्राप्त: किया था | मथुराको प्रान पुगतत्वकी मक्षी भी म० नेमिके अस्तित्वको सिद्ध करती है। इसके अतिरिक्त निम्न लिखित साहि त्यकी साक्षी भी इस विषय के समर्थन में उत्व है I .. जैनोंके प्राचीन साहित्य में तो भगवान अमिका वर्णन है हो; परन्तु महत्वकी बात यह है कि हमें वैदिक साहित्यमे भी भग: वान अरिष्टनेमिका उल्लेख हुआ मिलता है। जुर्वेद अ० ९ मंत्र ४ 3 १ - ईऐ०, भा० २० पृ० ३६० २ १ ० पृष्ठ ८६-८८ व स्तर० १३.... । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्ड। [८१ २५में एक अरिष्टनेमिका स्पष्ट उल्लेख है। और जैन एवं अजैन विद्वान उन्हें जैन तीर्थकर ही प्रकट करते आए हैं। इसके अतिरिक्त प्रभास पुराण' में स्पष्ट लिखा हुआ है कि नेमि जिनने रैवत पर्वतसे मोक्ष लाभ लिया था। इस साक्षीके समक्ष भ० अरिष्टनेमिके अस्तित्वमें शङ्का करना व्यर्थ है। विद्वानोंका मत है कि जब नेमिप्रभुके चचेरे भाई श्री कृष्णको ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है तो कोई वजह नहीं कि तीर्थङ्कर नेमि वास्तविक पुरुष न माने जांय । डॉ० फुहरर और प्रो० बारनेट सा०ने स्पष्टतया भगवान अरिष्टनेमिकी ऐतिहासिकता स्वीकार की है। इस प्रकार भगवान अरिष्टनेमिके चरित्रसे यह प्रगट है कि उनके द्वारा दक्षिण भारतके पल्लव, मलय आदि देशोंमें जैन धर्मका प्रचार हुमा था और इस माक्षीसे दक्षिण भारतमें जैन धर्मकी प्राचीनता भी स्पष्ट होती है। १-बाजस्टनु प्रसाद भावभूवेना च विश्वभुवनानि सर्वनः । स नेमिराजा परियात्ति विद्वान् प्रन पुष्टि वर्धयनमानो ॥९॥२५॥ २-श्री टोडरमल कृत · मोक्षमार्ग-प्रकाश' देखो। ३-प्रो० स्वामी विरुपक्ष वडियर ने यही अर्थ किया था-देखो जैन पथ प्रदर्शकका विशेषांक [ वर्ष ३ अंक ३] ऋग्वेद ( १६ व १६) के इस मंत्रका 'स्वस्ति वस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः ' का अर्थ 'मरिष्टनेमि ( संसार सागरको पार कर जाने में समर्थ ) ऐसा जो परिष्टनेमि तीर्थकर है वह हमारा कल्याण करे ' किया था। ४- रैवताद्रो जिनो नेमियुगादिविमलाच । ऋषीणां या श्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥' ५-दामने० पृ०८८-८९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] संमित जैन इतिहास। भगवान पार्श्वनाथ । काशी देश इक्ष्वाक्वंश-उपकुलके राजा विश्वसेन राज्य करते थे। बनारस उनकी राजधानी थी और वहीं उनका निवासस्थान था। रानी ब्रह्मदत्ता उनकी पटरानी थी। पौषकृष्ण एकाद. शीको उन रानीने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया, जिसके जन्मते ही लोकमें मानंद और हर्षकी एक धारा बह गई। देवों और मनुष्योंने मिलकर खूब उत्सव मनाया। उस पुत्रका नाम 'पार्श्व' रक्खा गया और वहीं जैन धर्मके २३ वें तीर्थकर हुये। युवावस्थाको प्राप्त करके राजकुमार पार्श्व राज-काजमें व्यस्त होगये । वह अपने पिताके साथ प्रजाका हित सावनेमें ऐसे निरत हुये कि उनका नाम और काम चहुं ओर फैल गया। लोग उन्हें " सर्वजन प्रिय" (People's Favourite ) कहकर पुकारते थे। ___ एकदफा कुमार पार्श्वनाथ मित्रों सहित वनविहारके लिये निकले । बागमें उन्होंने देखा कि उनका नाना महीपालपुरका राजा तापसके भेषमें पंचामि तप रहा है। वह उल्टा मुख किये पेड़में ब्दका हुमा था । कञ्चन-कामिनीका मोह उसने त्याग दिया था; परतु सिर बी इसके त्याममें कमी थी। उसे घमंड था कि मैं साधु मा संसारमें और कोई नहीं। इस घमंडके दर्पये वह अपने माप को भूल गया । उसकी भास्मोलतिका मार्ग नव इण्ठित होगवा । लेकिन वह तप तपता और कायक्लेश सहता था। पामार और उनके मित्रों को उसने उन्हें चीनने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ | [ ८५ देर न लगी । पर वह साधु था । उनका अभिवादन पाये बिना वह क्यों बोले ? सरल-सहन की रीति उसे पसन्द न थी । पार्श्वकुमारने उसकी मूढ़ता देखी। वह उसे भला अभिवादन क्या करते ? हाँ, वह उसका सच्चा हित साधनेके लिये तुल पड़े । 1 उन्होंने कहा कि यह साधुमार्ग नहीं है । अनि सुलगाकर व्यर्थ जीवोंकी हिंसा करते हो ! राजकुमारके इन शब्दोंने उस साधुको माग-बबूला बना दिया। उसने कुल्हाड़ी उठाई और असिलगे लकड़ीके बोटेको वह फाड़ने लगा । उसके भाश्वर्यका ठिकाना न रहा, जब उसने उस लकड़ीकी खुखालमें एक मरणासन सर्पयुगल देखा ! उसका मन तो मान गया, परन्तु घमंडका भूत सिरसे न उतरा ! यही कारण था कि वह अहिंसा धर्मके महत्वको न समझ सका । सर्पयुगलको भ० पार्श्वने सम्बोधा ! वे समभावोंसे मरे और धरणेन्द्र - पद्मावती हुये । इस रीति से भ० पार्श्वनाथ कौमारकालसे ही जनता धार्मिक सुधार कर रहे थे। उनके समय में धर्म के नामपर तरह तरहके अनर्थ प्रचलित होगये थे । पार्श्व प्रभूने उनको मेंटना भावश्यक समझा । उन्होंने देखा कि समाज में गृहत्यागियोंकी मान्यता है और विना गृह त्याग किये सत्यके दर्शन पा लेना दुर्लभ है । इसलिये उन्हें घर में रहना दूभर होगया । आखिर उन्हें एक निमित्त मिल गया-मब वे दिगम्बर मुनि होगये। मुनि अवस्थामें उन्होंने घोर तप तपा । ज्ञान-ध्यानमें वे. कीन रहे । संयमी जीवनकी पराकाष्ठा पर वे पहुंच गये। एक अच्छेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलित जैन इतिहास । दिन 'ज्ञान' मूर्तिमान हो उनके मभ्यन्तरमें नाचने लगा। पार्श्वनाथ साक्षात् भगवान् होगये-वे अब सर्वज्ञ तीर्थकर थे। ज्ञान-प्रकाशका धवल मालोक उनके चहुंओर छिटक रहा था। ज्ञानी जीव उनकी सरणमें पहुंचे। भगवान ने उन्हें सच्चा धर्म बताया, जिसे पाकर सब ही जीव सुखी हुये-सबने समानताका अनुभव किया और मात्मस्वातंव्यके वे अधिकारी हुये । . अपने इस विश्वसन्देशको लेकर भगवान पार्श्वनाथने सारे मार्यदेशमें विहार किया। जहां-जहां उनका शुभागमन हुआ वहां वहांके लोग प्रतिबुद्ध हो सन्मार्ग पर आरूढ़ हुये । भगवान पार्श्वनाथके धर्मप्रचारका वर्णन सकलकीर्ति कृत 'पार्श्वनाथचरित्' में निम्नप्रकार लिखा हुभा है: "तत्व मेदप्रदानेन श्रीमत्पाश्वभुमहान् । जनान कौशलदेशीयान् कुशलान् संध्यध्यभृशं ॥ ७६ ॥ भिदन् मिथ्यातमोगाढं दिव्यध्वनिप्रदीपकैः । काशीदेशीयकोकान् स चक्रे संयमतत्परान् ।। ७७ ॥ श्रीमन्माळवदेशीयभव्यलोकसुचातकान् । देशनारसधाराभिः प्रीणयामास तीर्थराट् ।। ७८ ॥ अतीयान् जनान् सर्वान् मिथ्यात्वानलतापितान् । रयान्निपियामास...पार्श्वचन्द्रामृतैः ॥ ७९ ॥ गोजराणां जनानां हि पार्श्वसम्राट् जितेंद्रियः । मिथ्यात्वं जनरं चक्रे सद्वचः शस्त्रधातनैः ॥ ८ ॥ महाबतपरान् काश्चिन्महाराष्ट्रजनान्ध्यवान् । दीक्षोपदेशदानेन पार्थकल्पद्रुमस्तथा ॥ ८ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पार्श्वनाथ । " पार्श्वभट्टारक श्रम न् पादन्या विहारतः। सर्वान् सौराष्ट्र लोकांश्च पवित्रान् चिद्धेभृशं ॥ ८२ ॥ अंगे वंगे कलिंगेऽथ कर्णाटे कोकणे तथा। . मेदपादं तथा लाटे लिंतिगे द्राविड़े तथा ॥ ८३ ।। काश्मीरे मगधे कच्छे विमें च दशाणके । पंचाले पल्लो वत्से परमभीर मनोहरे ॥ ८४ ॥ इत्यार्यखण्डदेशेषु क्रोणात्स महाधनी । दर्शनज्ञान चारित्रात्मान्मेवोतयान्यलं ॥ ८५ ॥ १५ ॥ भावार्थ-तत्वभेदको प्रदान करने के लिये महान् प्रभू श्री पार्श्व भगवानने कौशल देशके कुशक पुरुषों में विहार किया और अपनी दिव्यध्वनिरूप प्रदीपसे ग द मिथ्यातमकी धज्जियां उड़ा दीं। फिर संयममें तत्पर काशी देशके मनुष्योंमें धर्मचक्रका प्रभाव फैलाया। श्री माळवदेशके निवासी भव्यलोकरूप चातकोंने भी तीर्थराट्के धर्मामृत का पान किया था । अवंती देश जो मिथ्यानलसे तप्त था, सो पार्श्वरूपी चन्द्र के अमृतको पाकर शांत होगया था। गौर्जर देशमें भी मितेन्द्रिय शर्श्व सम्र के सद्वचनोंके प्रभावसे मिथ्यात्व बिल्कुल जर्जरित होगया था। महाराष्ट्र देशवासियोंमें अनेकोंने पार्श्व भगवानसे दीक्षा ग्रहण की थी। सर्व सौराष्ट्र देशमें भी पार्थ भट्टारकका विहार हुआ था. जिससे वहांके लोग पवित्र होगए थे। अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, कोंकण, मेदपाद, लाट, द्राविड़, काश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, शाक, पंचाल, पल्लव, वत्स इत्यादि आर्यखंडके देशोंमें भी भगवान्के उपदेशसे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नोंकी अभिवृद्धि हुई थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | भगवान पार्श्वनाथ के इस विहार विवरण से स्पष्ट है कि उनका शुभागमन दक्षिण भारत के देशोंमें भी हुआ था | महाराष्ट्र, कोंकण, कर्नाटक, द्राविड़, पल्लव आदि दक्षिणावर्ती देशों में विचर करके तीर्थङ्कर पार्श्वनाथने एक बार पुन: जैन धर्मका उद्योत किया था । दक्षिण भारत में भगवान् पार्श्वनाथके शुभागमनको चिरस्मरणीय बनानेवाले वहां कई तीर्थ आज भी उपलब्ध हैं । अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ, कलिकुंड पार्श्वनाथ आदि तीर्थ विशेष उल्लेस्वनीय हैं। दक्षिण भारतके जैनी भगवान् पार्श्वनाथ का विशेषरूपमें उत्सव भी मनाते हैं । महाराजा करकंडु । भगवान पार्श्वनाथ के शासनकालमें सुप्रसिद्ध महाराजा करकंडु हुये थे। इन्हें शास्त्रोंमें ' प्रत्येक बुद्ध' कहा गया है और उनकी - मान्यता जैनेतर लोगों में भी है। उत्तर भारत के चम्पापुरमें घाडीवाहन नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी पद्मावती गर्भवती थी । एक दिन हाथीपर सवार -होकर राजा और रानी वनविहारको गये। हाथी विचक गया और उन्हें जंगलमें लेभागा । राजा तो पेड़की डाली पकड़कर बच गया । परन्तु रानीको हाथी लिये ही चला गया । वह दन्तिपुर के पास एक जलाशय में जा घुसा। रानीने कूद कर अपने प्राण बचाये और एक मालिन के घर जाकर वह रहने लगी। किंतु मालिन के क्रूर स्वभावसे वह तंग भागई और एक स्मशान भूमिमें वह जा बैठी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा रखण्डु । कोंके वैचित्र्यको धिक्कारती हुई पद्मावती रानी वहां बैठी थी कि वहीं उन्होंने एक पुत्र प्रसव किया। एक मातंग वेषधारी विद्याधरने उस समय पद्मावती रानीकी सहायता की-नवजात शिशुकी रक्षाका भार उसने अपने ऊपर लिया । उस विद्याधरने उस बालकको खूब पढ़ाया-लिखाया और शस्त्रास्त्र चलानेमें निष्णात बनाया। बालकके हाथमें सूखी खुजली भी। इस कारण उसे 'करकंडु' नामसे पुकारने लगे। बालक करकंडु भाग्यशाली था। जब वह युवा हुआ तो दन्तिपुरके राजाका परलोकवास होगया । उसके कोई पुत्र न था। राजमंत्रियोंने दिव्य निमित्तसे करकंडुको राजत्वके योग्य पाकर उन्हें दन्तिपुरका राजा बनाया । राजा होनेके कुछ समय पश्चात् करकका विवाह गिरिनगरकी रानकुमारी मदनावलीसे होगया । चम्पाके राजाने करकंडुको अपना आधिपत्य स्वीकारनेके लिये बाध्य किया, जिसे करकंडुने अस्वीकार किया। आखिर दोनों नरे. शोंमें युद्धकी नौबत आई; पान्तु पद्मावतीने बीचमें पड़कर पितापुत्रकी सन्धि करादी। धाड़ीवाहन पुत्रको पाकर बहुत हर्षित हुए । उन्होंने चम्पाका राजपाट करकण्डुको सौंग और भाप मुनि होगये । करकण्डु सानन्द राज्य करने लगे। एकवार करकंडुको यह कामना हुई कि उनकी आज्ञा सारे भारतमें निर्वाध रीतिसे मान्य हो; किंतु मंत्रियोंसे उन्हें मालूम हुमा कि द्राविड़ देश के चोल, चेर और पाण्ड्यनरेश उनकी भाज्ञाको नहीं मानते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिम जैन इतिहास। राजाने उनके पास दुत भेजा, परन्तु उन्होंने करकंडुका आधिपत्य स्वीकार नहीं किया। इस उत्तरको सुनकर करकंडु चिढ़ गया। और उसने उनपर तुरन्त चढ़ाई कर दी। मार्गमें वह तेरापुर नगर पहुंचे। और वहांके राजा शिवने उनका सम्मान किया। वहीं निकटमें एक पहाड़ी और गुफायें थीं। करकंडु शिवराजाके साथ उन्हें देखने गया । गुफामें उन्होंने भगवान पार्श्वनाथका दर्शन किया । वहीं एक वामीको उन्होंने खुदवाया और उसमेसे जो भगवान पार्श्वनाथकी एक मूर्ति निकली, उसको उन्होंने उस गुफामें बिराजमान किया । मूर्ति जिस सिंहासन पर विराजमान थी उसके बीचमें एक भद्दी गाँठ दिखती थी। करकंड्डने उसे तुड़वा दिया, किन्तु उसके तुड़वाते ही वहाँ भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा । करकंडु यह देखकर पछताने लगे। उस समय एक विद्याधरने माकर उनकी सहायता की और उसने उस गुफाके बननेका इतिहास भी उनको बताया। विद्याधरके कथनसे करकंडुको मालूम हुआ कि दक्षिण विजयाईके स्थनपुर नगरसे राजच्युत होकर नील महानील नामके दो भाई तेरपुरमें भारहे थे। यह दोनों विद्याधर वंशके राजा थे। धीरे धीरे उन्होंने वहाँ राज्य स्थापित कर लिया। एक मुनिके उपदेशसे उन्होंने जैन धर्म ग्रहण कर लिया और वह गुफा मंदिर बनवाया। उस गुफा मंदिरमें एक मूर्ति ठेठ दक्षिणभारतसे आई हुई उस विद्याधरने बताई। रावणके वंशजोंने मलयदेशके पुदी पर्वतपर एक जिनमंदिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा करकण्डु। [९ बनवा कर. वह सुंदर जिनमूर्ति स्थापित कगई थी। कोई विद्याधर उस मूर्तिको वहाँसे उठा लाये और तेरापुरमें उसको उतारा । फिर वह उस मूर्तिको वहाँसे नहीं ले जासके : करकंडु यह सब कुछ. सुनकर बहुत प्रसन्न हुये । करकंडुने वहाँ दो गुफायें और वनवाई । तेरापुरसे करकंडु सिंहलद्वीप पहुंचे और वहाँकी राजपुत्री रतिवेगाका पाणिग्रहण किया। उपरान्त एक विद्याधर पुत्रीको व्याह कर उन्होंने चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशोंकी सम्मिलित सेनाका मुकाबला किया और हराकर अपना प्रण पूरा किया । किन्तु जब कर कंहुने उन्हें जैनधर्मानुयायी जाना- उनके मुक्टोंमें जिनप्रतिमायें देखी तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ और उन्होंने उन्हें पुनः राज्य देना चाहा; पर वे स्वाभिमानी द्राविडाधिपति यह कह कर तपस्याको चले गये कि अब हमारे पुत्र पौत्रादि ही आपकी सेवा करेंगे । वहाँसे लौटकर तेरापुर होते हुये करकंडु चम्पा आगये और राज्यसुख भोगने लगे। ___ एक दिन चम्पामें शीलगुप्त नामक मुनिराजका शुभागमन हुमा । करकंड सपरिवार उनकी वन्दनाको गया। मुनिराजसे उन्होंने धर्मोपदेश और अपने पूर्वभव सुने, जिनके सुनने से उन्हें वैराग्य होगया और वे अपने पुत्र वसुपालको राज्य देकर मुनि हो गये। मुनि अवस्था में उन्होंने घोर तप तपा और मोक्ष प्राप्त किया। उनकी रानियाँ भी साध्वी होगई थीं। महाराजा करकंडुकी बनवाई हुई गुफायें आज भी हैद्राबाद राज्यके उस्मानाबाद मिलेमें तेर नामक स्थानपर मिलती हैं। उनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ १ संक्षिप्त जैन इतिहास | रचना और क्रम ठीक वैसा ही है जैसा कि करकंडुकी बनवाईं हुईं • गुफाओंका था । और वहां पर जीमूतवाहन विद्याघर के वंशजका एक समय राज्य भी था । वे ' तगरपुर के अधीश्वर ' कहलाते थे । उपरान्त वे ही लोग इतिहास में शिलाहार वंशके नामसे परिचित हुये थे । करकण्डु महाराजकी सहायता करनेवाला भी एक विद्याधर था और उसने यह कहा था कि नील- महानील विद्याधरोंके वंशज तेरापुर ( तगरपुर) में राज्य करते थे । इससे स्पष्ट है कि शिकाद्वारवंशके राजा उन विद्य घरोंके ही अधिकारी थे, जिनमें नधर्मकी मान्यता थी । शिलाहार राजाओंमें भी अधिकांश जैनी थे। इससे • भी दक्षिण भारत में जैनधर्मका प्राचीन अस्तित्व सिद्ध है । x भगवान् महावीर - वर्द्धमान् । भगवान महावीर जैन धर्म में माने हुये चौवीस तीर्थकरोंमें अन्तिम थे । वे ज्ञातृवंशी क्षत्रिय नृप सिद्धार्थके पुत्र रत्न थे। उनका जन्म वैशाली के निकट अवस्थित कुण्ड ग्राममें हुआ था और उनके जीवनका अधिकांश समय उत्तर भारत में ही व्यतीत हुआ था; परन्तु यह बात नहीं है कि दक्षिण भारतके लोग उनके धर्मो देश से अछूते रहे थे । यह अवश्य है कि उनका विहार ठेठ दक्षिण में शायद नहीं हुआ हो । वहां उनके पूर्वगामी तीर्थङ्कर श्री अरिष्टनेमी आदि x विशेष के लिये 'करकण्डुचरिय' (कारंजा जैन प्रन्थमाला) की • भूमिका देखना चाहिये, जिसके आधारसे यह परिचय सधन्यवाद किखा गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर बर्द्धमान। [९३ और उनके शिष्योंका ही विहार हुमा; परन्तु विंध्याचलके निकटवर्ती प्रदेश अर्थात् दक्षिणा पथमें भगवान महावीरका शांति-सुखविस्तारक समोशरण निस्सन्देह अवतरित हुमा था। जब लगभग तीस वर्षकी अवस्थामें उन्होंने गृह-त्याग करके दिगम्बर मुनिका वेष धारण किया तब वे उत्तर और पूर्वीय भारतमें ही विचरते रहे। उधर पूर्व-दक्षिणमें लाढ़-वज्रभूमि मादि देशोंमें भगवान्ने विहार किया था और इधर पश्चिम दक्षिणमें वे उज्जैन तक पहुँचे थे। उज्जैन के महाकाल स्मशान भूमिमें जब भगवान् विराज रहे थे, तब उनके अलौकिक ध्यान ज्ञान-मभ्यासको सहन न करके रुद्र नामक व्यक्ति ने उन पर घोर उपसर्ग किया था। इस घटनाके बाद भगवान का विहार उत्तर-पूर्व दिशाको हुआ था। ___मन्ततः जम्मकप्रामके निकट ऋजुकूला नदीके तट पर उन्होंने घोर तपश्चरण किया था और वहीं उनको केवलज्ञानकी सिद्धि हुई थी। यह पवित्र स्थान माधुनिक झिरियाके निकट भनुमान किया गया है। केवली तीर्थकर होकर भगवान ने राजगृहकी ओर प्रस्थान किया था और वहांसे वे प्रायः सर्वत्र उत्तर भारतमें विचरते रहे थे । ठीकसे नहीं कहा जासकता कि वे कहाँ-कैसे और कब पहुँचे थे, परन्तु इसमें संशय नहीं कि जब वे सूरसेन, दशार्ण मादि १-शायद यही कारण है कि दक्षिण भारतके नैनोंने अपने संघको 'मूलसंध' कहा है। अतः जैनधर्मके यथार्थ दर्शन दक्षिण भारतीय साहित्य में ही होना संभव है। २-'वीर' मा० ५ पृष्ठ ३३४-३३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | देशों में होते हुये सिन्धु- सौवीर देशमें पहुँचे थे, तब विंध्याचल के समीप स्थित देश उनके सम्पर्क में आनेसे नहीं बचे । हेमांगदेशकी राजधानी राजपुर में भगवान का शुभागमन हुआ था। राजपुर दण्डकारण्यके निकट अवस्थित था ।" वहांके राजा जीवन्धर अत्यंत पराक्रमी थे। उन्होंने पलवदेशादि विजय किये थे । उनका विवरण दक्षिण भारतके देशोंमें भी हुआ था । दक्षिणम्थ क्षेमपुरी में उन्होंने दिव्य जिनमंदिर के दर्शन किये थे। आखिर वे म० महावीर के निकट मुनि होगये थे। पोदनपुर में राजा प्रसन्नचंद्र भ० महावीरका भक्त था । पोहारपुरका राजा भी भगवान् महा- वीरका शिष्य था । भगवान का शुभागमन इन देशों हुआ था । इससे भागे वे गये थे या नहीं, यह कुछ पता नहीं चलता। हां, 'हरिवंशपुराण' में अवश्य कहा गया है कि भ० महावीरने ऋषभदेव के समान ही सारे मार्य देश में विहार और धर्मपचार किया था । इसका अर्थ यही है कि दक्षिण भारतमें भी वे प ंचे थे । सम्राट् श्रेणिक, जम्बूकुमार और विद्युच्चर । भगवान् महावीर-वर्द्धमानके अनन्य भक्त सम्राट् श्रेणिक थे । तब मगध में शिशु नागवंश के राजाओंका श्रेणिक विम्बसार । राज्य था । श्रेणिक उस ही बंशके न और मगध साम्राज्य के मगध राज्यका उन्होंने खूब ही विस्तार किया था । संस्थापक थे । कहते हैं कि १ - जैसिमा० भा० २ पृष्ठ ९ - १०२ । २६०, पृष्ठ १८ । } Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् श्रेणिक, जम्बुकुमार और विद्युञ्चोर । [ ९५ भारतकी पश्चिमोत्तर सीमापर पैर जमाये हुये ईरानियोंको सम्राट श्रेणिकने ही दूर भगा दिया था। श्रेणिकके पुत्र अभयराजकुमार थे। वह राजमंत्र और तंत्रमें मति प्रवीण थे। मालम होता है कि ईरान के राजवंशसे उनका प्रेममय व्यवहार था। श्रेणिकने ईरान और उसके निकटवर्ती देशोंमें जिनमूर्तियां स्थापित कराई थीं। अभयराजकुमारने अपने मित्र ईरानके शाहजादे आर्द्रकके लिये खास तौरपर एक जिनमूर्ति भेजी थी। आईक उस दिव्यमूर्ति के दर्शन करके ऐसा प्रतिबुद्ध हुआ कि सीधा भगवान महावीरके समोशरणमें आ मुनिदीक्षासे दीक्षित होगया । निस्संदेह सम्राट् श्रेणिक और उनके सुपुत्रोंने मगध गज्यकी समृद्धिके साथ जैनधर्मकी महान सेवा और प्रभावना की थी। श्रेणिककी राजधानी गजगृह नगरी थी। वहांवर भईदास नामके एक धर्मात्मा सेठ रहते थे, जिनकी जम्बूकुमार। पत्नी जिनमती थी। फाल्गुन मासके शुक्ल ... पक्षमें एक अच्छेसे दिन जब चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र पर था तब प्रातः समय उस स्टानीकी कोखसे एक पुत्र-रत्नका जन्म हुआ। माता-पिताने उसका नाम जम्बुकुमार . रक्खा । जग्बूकुमारने युवा होते२ सब दी शस्त्रशास्त्र विषयक विद्या ओमें योग्यता प्राप्त कर ली। गदरबारमें भी इनकी, मान्यता होगई । म्राट् श्रेणिक इनका खूब सन्मान करते थे । १- मारि० ' ( अक्टूबर १९३०) पृ० ४३८ ... २-संजैइ० भा० २ खंड १ पृ० २२-२३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] संबित व विहास । उस समय दक्षिण भारतके केरक देशमें एक विद्याधर राजा राज्य करता था। उस भोर विद्याधर केरल बिजय। वंशके राजाओंने प्राचीनकालसे अपना माधिपत्य जमा वखा था। बस, केरलके उस विद्याधर राजाका नाम मृगांक था। सम्राट् श्रेणिकसे उसकी मित्रता थी। मृगांकपर हंसद्वीप (लंका) के राना रलचूलने भाकमण किया था। मृगांककी सहायताके लिये श्रेणिकने जम्बूकुमारके सेनापतित्वमें अपनी सेना मेजी थी। __जम्बूकुमारने वीरतापूर्वक शत्रुका संहार किया था। इस युद्ध में उनके हाथसे माठ हजार योद्धाओंका संहार हुआ था। उपरांत मृगांकने अपनी कन्या विलासवतीका विवाह श्रेणिकके साथ किया था। जब श्रेणिक केरल गये हुये थे तब उन्होंने विन्ध्याचक मौर रेवा नदीको पार करके कुरल नामक पर्वतपर विश्राम किया था और वहांपर स्थापित जिन विम्बोंकी पूजा-अर्चना की थी।' दक्षिण भारतके इतिहाससे यह सिद्ध है कि प्राचीन काल में हंसदीप (लंका) और तामिक-पाण्ड्यादि दक्षिण देशवासियोंके मध्य परस्पर माक्रमण होते रहते थे। उधर यह भी प्रगट है कि नन्द १-'बम्यूकुमार चरित् । में विशेष परिचय देखो 'ततस्ता च समुत्तीर्थ प्रतस्थे केरलां प्रति । विशश्राम कियत्काळ नाना कुरळभूबरे ॥१४३॥७॥ पूजयामास भूमीशस्तत्र शिब बिनेशिनः। मुनीनपि महामत्तया ततः प्रस्थातमुखतः ॥१४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट श्रेणिक, जम्बकुमार ओर विधुचोर। [९५ राजाभोंने दक्षिण भारतपर आक्रमण किये थे। इस अवस्थामें यह संभव है कि श्रेणिकने राजा मृगांककी सहायता की हो। केरल विनय करके श्रेणिक और जम्बुकुमार लौटकर सानन्द राजगृह माये और खूब विजयोत्सव मनाया। ____एक रोज जम्बुकुमारका समागम मुनिराज श्री सुधर्माचार्यसे हुआ, जिनसे उन्होंने अपने पूर्वभत्र सुने। उन्होंने जाना कि सुधर्माचार्य उनके पूर्वभवके भाई हैं। वह भी माईकी तरह मुनि होजानेके लिये उद्यमी होगये; परन्तु सुधर्माचार्यने उन्हें उस समय दीक्षित नहीं किया । जम्बुकुमार माता-पिता की मात्रा लेनेके लिये घर चले गये । वहां उ पितृगणके विशेष आग्रहसे विवाह करना पड़ा; परन्तु उन्होंने नववधुओंके साथ रहकर रतिकेली में समय नहीं . गंवाया । उन सबको समझा-बुझाकर वे दिगम्बर मुनि होगये । जिस समय जम्बुकुमार अपनी पत्नियोंको समझा रहे थे उस ससय विद्युञ्च! नामका चोर उनकी विद्युचर। बातें सुन रहा था, जिनका उसपर वेढव असर पड़ा। और वह भी अपने पांचसौ शिष्यों सहित जम्बृकुमार के साथ मुनि होगया। यह विद्युच्चर दक्षिण. पथके प्रसिद्ध नगर पोदनपुर के नरेश विद्यु दाजका पुत्र विद्युःप्रभ था। इसने चौर्य शास्त्रका अध्ययन किया था और उसका अभ्यास १-उयु० पृ० ७०९ "जम्बूकुमार चरित्” में इन्हें हस्पिनापुरके राजाका पुत्र लिखा है; परन्तु वह विद्युबा इनसे भिन्न और भ. पाश्वनाथके तीर्थ में हुये थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | करनेके लिये राजगृह चला आया था। दक्षिण भारतके देशोंमें उसने खासा भ्रमण किया था । समुद्रके निकट स्थित मलयाचल पर्वतपर वह पहुंचा था । वहां से वह सिंहलद्वीप भी गया था; जहांसे वापिस होकर वह केरल आया था । द्रविड देशको उसने जैन मंदिरों और वैनियोंसे परिपूर्ण देखा था । फिर वह कर्णाटक काम्बोज, कांचीपुर, सावत, महाराष्ट्रादिमें होता हुआ विंध्याचल के उस पार आमीर देश, कोङ्कण, किष्किन्धादिमें पहुंचा था। इस वर्णन से भी उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्मका अस्तित्व प्रमाणित होता है। जम्बूकुमार और विद्युत ने अपने साथियों सहित भगवान् सौधर्माचार्य से मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। विपुकाचल पर्वत परसे जब सुधर्मस्वामी मुक्त हुये तब जम्बूस्वामी केवलज्ञानी हुये । । १- " दक्षिणस्यां दिशि प्राप्य समुद्रं मळयाचरम् । पटेरादिद्रुमाकीर्णमप्रोतुगमनम् ॥ २१५ ॥ अगम्यं हि सिंहद्वीपं केलं देशमुन्न म् । द्रविडं चैतः गृहागमं जैनटोकपरिवृ-म् ॥ २१६ ॥ वीणं कर्णाटसंज्ञ च कांबोज कौतुकावहम् । कांचीपुरं सुकांत्या व कांचनामे मनोहम् ॥ २१७ ॥ कतलं च समासाद्य सहां पर्वतमुन्नम् * महाराष्ट्र च वैदर्भदेशं नानावना ङ्कम् ॥ २९८ ॥ विचित्र नर्मदातरं प्रदेश विध्यपर्वम् | विध्याटव समुल्लंघ्य तचलितम् ॥ २१९ ॥ इत्यादि । - जम्बू० पृ० १८८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द और मौर्य सम्राट् । [९९ उन्होंने मगधादि देशोंमें धर्मप्रचार किया और आखिर विपुलाचल पर्वतपरसे वह भी निर्वाण पधारे । एकदा विद्युच्चर अपने पांचसौ साथियों सहित मथुराके उद्यानमें आ विराजे; जहां उन पर घोर उपसर्ग हुमा । सब मुनियोंने समतापूर्वक समाधिमरण किया । उनकी पवित्र स्मृति में वहां पांचसौ स्तूप निर्माण किये गये थे, जो अकबर बादशाह के समय तक वहां विद्यमान थे। नन्द और मौर्य सम्राट् । शिशु नागवंशके प्रतापी राजाओंके पश्चात् मगध साम्राज्यके अधिकारी नन्दवंशके राजा हुये थे। उस नन्द-राजा। .समय मगधका शासक ही भारत वर्षका प्रमुख और अग्रगण्य नृप मथवा सम्राट समझा जाता था। इसी कारण मगधका अधिकार पाते ही नन्दराजा भी भारतके प्रधान शासक समझे जाने लगे। यहां तक कि विदेशीयूनानी लेखकोंने भी नन्दोंकी प्रधानता और प्रसिद्धिका उल्लेख किया है। इन नन्दोंमें सम्राट् नन्दवर्द्धन और महापद्म मुख्य थे। नंदवर्द्धन्ने एक भारतव्यापी दिग्विजय की थी, जिसमें उसने दक्षिण भारतको भी विजय किया था। दक्षिण भारतके एक शिलालेखसे यह स्पष्ट है कि नन्दरा १-जम्बू० पृ. १०-११. मथुरा में विद्युच्चरकी स्मृतिमें स्तूपोंका होना इस कथानककी सत्यताका प्रमाण है। २-एम., पृष्ठ १३९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M १..] संक्षिप्त जैन इतिहास । जामोंने कुन्तलदेश पर शासन किया था और कदम्ब वंशके राजा उन्हें अपना पूर्वज मानते थे। कुन्तलदेश भाजकलके पश्चिमीय दक्खिन (Decoan) और उत्तरीय मैसूर जितना था । दक्षिणभार. तके होसकोटे जिलेमें नन्दगुडि नामक ग्राम उत्तुङ्गभुज नामक रानाकी राजधानी बताई जाती है और कहा जाता है कि नंदराजा उसके भतीजे थे । उसने उनको कैद कर लिया था; परन्तु उन्होंने मुक्त होकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। परन्तु कहा नहीं जा सकता कि इस जनश्रुतिमें कितना तथ्य है, तो भी यह स्पष्ट है कि नंद साम्राज्यका विस्तार दक्षिण भारत तक था। कुंतलदेश नन्दराजाओंके शासनाधीन था ! नन्दराजाओं के पश्चात् भारतके प्रधान शासक मौर्यवंश के शासक हुये । चन्द्रगुप्त मौर्यने मन्तिम मौर्य-सम्राट्। नंदराजा और उसके सहायकों को परास्त करके मगध साम्राज्य पर अपना अधि. कार जमाया था। उधर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांतसे यूनानियोंको खदे कर चन्द्रगुप्तने उत्तर भारतमें अफगानिस्तान तक अपना राज्य स्थापित किया था। और यह प्रगट ही है कि दक्षिण भारत के एक भागको नन्द राजाओंने ही मगध साम्राज्यमें मिला लिया था। इसलिये चन्द्रगुप्तका अधिकार स्वतः उस प्रदेशपर होगया था। • एक शिलालेखमें स्पष्ट कहा गया है कि शिकारपुर तालुकके नाग १-इका० ७, शिकारपुर २२९ व २३६, मैकु० पृष्ठ ३ व जमीसो० भा० २२ पृष्ठ १०४।२-जमीसो० भा० २२ पृष्ठ ५०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द और मौर्य सम्राट् । [ २०१ स्वण्डकी रक्षा प्राचीन क्षत्रिय चारित्र - आश्रय- चन्द्रगुप्त करते थे । ' चन्द्रगुप्तने कृष्णा नदीके किनारेपर भी शालममें एक नगर भी बसाया था । किन्तु मालूम होता है कि मौर्योोको उपरान्त दक्षिण भारतमें अधिकाधिक राज्य विस्तारकी आकांक्षा हुई थी। तदनुसार मौय्यने तामिल देशपर आक्रमण किया था । मौय्योंके इस आक्रमणका उल्लेख तामिलके प्राचीन 'संगम्' साहित्यमे मिलता है । संगम् कवि मामूलनार, परनर, प्रभृतने अपनी रचनाओं में मौर्य्य आक्रमणका वर्णन किया है। उससे ज्ञात होता है कि दक्षिणके तीनों प्रधान राज्यों चेर, चोक, और पांण्डयने मिलकर मौय्यका मुकाबिल किया था । तामिळ सेनाके सेनापति पाण्डियन ने दुन्चेलियन नामक महानुभाव थे । मोहरका राजा उनका सहायक था। उधर मौय्यौके सहायक वेडुकर अर्थात् तेलुगु लोग थे । तामिलोंसे पहला मोरचा बहुकर लोगोंने ही लिया था; परन्तु तामिलोंसे वे बुरी तरह हारे थे। इसपर स्वयं मौर्य सम्राट् रणाङ्गणमें उपस्थित हुये थे और घमासान युद्ध हुआ था; किन्तु वेङ्कट पर्वतने मौय्योको मागे नहीं बढ़ने दिया था। फिर भी यह प्रगट है कि मौर्य मैसूर तक पहुंच गये थे । साथ ही विद्वानोंका अनुमान है कि दक्षिण भारतपर यह आक्रमण सम्राट् विन्दुसार द्वारा हुआ था। क्योंकि अशोकने २ १ - सोराबस्य नं० २६३ का शिलालेख, जो १४ वीं शताब्दिका हैं । मकु० पृष्ठ १० एरि० मा० ९ पृष्ठ ९९ । २ - जमीसो ०, भाग १८ पृष्ठ १५५ - १६६ । ३ - जमीसो०, भाग २२ पृष्ठ ५०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२) संक्षिप्त जैन इतिहास । केवल एक कलिङ्गका युद्ध लड़ा था परन्तु उसके शासन लेख मैसूर तक मिलते हैं । इस प्रकार मौर्योका शासन दक्षिण भारतमें मैसुर प्रान्त तक विस्तृत था। सम्राट अशोकके धर्मशासन-लेख मैसूरके पति निकट मिले है। ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिङ्ग, रामेश्वर सम्राट अशोक । पर्वत, कोप्पल और बेरुन्गड़ी नामक स्थानोंसे उपलब्ध अशोक लेख वहांतक मौर्यशासनके विस्तारके द्योतक हैं। किन्तु 'ब्रह्मगिरि के धर्म-लेखमें सम्राट् माता-पिता और गुरुकी सेवा करनेपर जोर देते हैं, यह एक खास बात है। यह शायद इसलिये है कि यह धर्मलेख मैसूरके उस स्थानसे निकट भवस्थित है जहांपर अशोकके पितामह सम्राट चन्द्रगुप्तने आकर तपस्या की थी। श्रवणबेलगोलसे ही चंद्रगुप्तने स्वर्गारोहण किया था। भशोकने अपने पितामहके पवित्र समाधिस्थानकी वन्दना की थी। मालम होता है, इसीलिये उन्होंने ब्रह्मगिरिक धर्मलेसमें खास तौरपर गुरु और माता-पिताकी सेवा करनेकी शिक्षाका समावेश किया था। प्रो० एस० भार० शर्मा यह प्रगट करते हैं। और यह हम पहले ही प्रमाणित कर चुके हैं कि बौद्ध होनेसे पहले अशोक जैनी था और अपने शेष जीवनमें भी उसपर जैन धर्मका काफी प्रभाव रहा था। अशोकने जैनोंका उल्लेख निर्ग्रन्थ और श्रमण नामसे किया था। .: १-मच० पृष्ठ ९४-९६ । २-संहि०, मा० २ खण्ड १ पृष्ठ २२९-२० । ३-जैसई., मध्याय २। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ नन्द और मौर्य सम्राट् । किन्तु मौर्य सम्र टोंमें चन्द्रगुप्तका ही सम्बन्ध दक्षिण भारतसे विशेष और महत्वशाली रहा है । सम्राट् चन्द्रगुप्त ! एक शासक के रूपमें ही वह सम्राट् दक्षिण भारतीयोंके परिचयमें आये हों केवल इतना ही नहीं बल्कि वह उनके बीचमें एक पूज्य साधुके भेषमें विचरे थे। जैन शास्त्रों और शिलालेखोंसे प्रगट है कि जिस समय सम्राट् चन्द्रगुप्त भारतका शासन कर रहे थे, उस समय उत्तर भारत में एक भयंकर दुष्काल पड़ा, जिसके कारण लोम त्राहि-त्राहि करने लगे । इस समय जैन संघका प्रधान केन्द्र मगध था और श्रुतकेवली भद्रबाहु और आचार्य स्थूलभद्र संघके नेता थे । भद्र स्वामीने इस दुष्कालका होना अपने दिव्यज्ञान से जानकर पहले ही घोषित कर दिया था । सम्राट् चन्द्रगुप्त इन आचार्योंके शिष्य थे । उन्होंने जब गुरु भद्रबाहुजी मुख से दुष्कालके समाचार सुने तो उन्होंने अपने पुत्रका राजतिलक कर दिया और स्वयं मुनिदीक्षा लेकर श्रुतकेवली के साथ हो लिये । भद्रबाहुस्वामी संघको लेकर दक्षिण भारतकी ओर चले गये। मैसूर प्रांत में श्रवणबेळगोळके निकट कटवप्र पर्वतपर वह ठहर गये, और संघको आगे चोलदेशमें जानेके किये आदेश दिया । मुनि चन्द्रगुप्त उनकी वैयावृत्तिके लिये उनके साथ रहे थे । वहीं तपश्चरण करते हुये भद्रबाहुस्वामी स्वर्गबासी हुये थे १- संजेहि०, मा०२ खंड १ पृ० २०३-२२८, श्रव० ३०-३२ जैशिसं ० भूमिका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] संक्षिप्त न इतिहास। और चन्द्रगुप्त मुनिने भी वहींसे समाधिमरण द्वारा स्वर्गकाम किया था। उत्तर भारतसे जैन संघके दक्षिण भागमनकी इस बातोंके पोषक दक्षिण भारतके वे स्थान भी हैं जहां आज भी बताया जाता है कि इस संघके मुनिगण ठहरे थे। अर्काट जिलेका तिरुमलय नामक स्थान इस बातके लिये प्रसिद्ध है कि वहां भद्रबाहुजीके संघवाले मुंनियोंमेसे माठ हजार ठहरे थे। ___ वहाँ पर्वत पर डेढ़ फुट लम्बे चरणचिह्न उसकी प्राचीनताके द्योतक हैं।' इसी प्रकार हस्सन जिलेके हेमवृतनगर ( जो हेमवती नदीके तटपर स्थित था।) के विषयमें कहा जाता है कि वहाँ श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके संघके मुनि उत्तर भारतसे भाकर ठहरे थे। ठेघर तामिळ भाषाके प्रसिद्ध नीतिकाव्य ' नालाडियार' की रक्षा विषयक कथासे स्पष्ट है कि उत्तर भारतसे दुर्भिक्षके कारण पीडिर हुये माठ हजार मुनिगण पाण्ड्य देश तक पहुंचे थे । पाण्ड्यनरेश उग्रपेरुवलीने उनका स्वागत किया था। पाण्ड्यनरेश उनकी विद्वत्तापर ऐसा मुग्ध हुआ कि वह उनसे अलग नहीं होना चाहता था। हठात् मुनियोंने अपनी धर्मरक्षाके लिये चुपचाप वहांसे प्रस्थान कर दिया; परन्तु चलने के पहले उन्होंने एक एक पद्य रचकर अपने२ आसन पर छोड़ दिया! यही 'नाला. डियार' काव्य बन गया । सारांशतः इन उल्लेखों एवं अन्य शिला १-ममैप्राजस्मा० पृष्ठ ७४ । २-गैमैकु०, भा० २ पृष्ठ २९६ । ३-हि० भाग १४ पृष्ठ ३३२ ज्ञात नहीं कि पाण्डव नरेशका समय क्या है? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द मार माय सम्राट् । [१५ लेखादिसे सम्राट चन्द्रगुप्तका मुनि होकर श्रुतकेवली भदवाहुजीके साथ दक्षिणभारतमें आना स्पष्ट है। इन मुतियोंके भागमनके कारण वहां पहलेसे प्रचलित जैन धर्मको विशेष प्रोत्साहन मिला प्रतीत होता है। किन्तु इसी समय उत्तरभारतमें मभाग्यवश जैन संघ मतभेदका शिकार बन गया था; जिसके परिणामस्वरूप उसका एकधारारूप प्रवाह इधर उधर वह चला था। श्वेताम्बर संप्रदायके पूर्वरूपमें 'अर्द्धकालक' मान्यतावालोंका जन्म इसी समय होगया था और उपरांत वही विकसित होकर ईस्वी प्रथम शताब्दिमें स्पष्टतः श्वेताम्बर संप्रदायके नामसे प्रख्यात् होगया था। मूल जैन संघके अनुयायी निथ कालांतरमें 'दिगंबर' नामसे प्रसिद्ध होगये थे। यह सब बातें हम पहले ही लिख चुके हैं।' सम्राट् चन्द्रगुप्तके प्रसिद्ध मंत्री चाणक्यके विषयमें भी कहा जाता है कि वह जैन धर्मानुयायी थे चाणक्य। और अपने अन्तिम जीवनमें वह जैन साधु हो गये थे । आखिर वह आचार्य हुये थे और अपने पांचसौ शिष्यों सहित देश-विदेशमें विहार करके वह दक्षिण भारतके वनवास नामक देशमें स्थित कौंचपुरमें आ बिराजे ये । वहीं उन्होंने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। एक जनश्रुति चाणक्यको 'शुक्कतीर्थ में एकान्तवास करते बताती हैं । संभव है कि यह 'शुक्रतीर्थ जैनोंका बल्गोल या 'धवलसर' तीर्थ १-सहि मार्ग २ खण्ड १ पृष्ठं २०३-२१७ । २-पूर्व पुस्तक पृष्ठ २३९-२४२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६.] संक्षिप्त जैन इतिहास । हो।' इन्हीं बातोंको देखते हुये विद्वजन जैन मान्यताको विश्वसनीय प्रगट करते हैं। चन्द्रगुप्तके समान ही उसका पोता सम्प्रति भी जैन धर्मका ___मनन्य भक्त था। वह धर्मवीर होनेके. सम्राट् सम्पति। साथ ही रणवीर भी था। कहते हैं कि उसने अफगानिस्तानके आगे तुर्क, ईरान आदि देशोंको भी विजय किया था। इन देशोंमें सम्प्रतिने जैन विहार बनवाये थे और जैन साधुओंको वहां भेजकर जनतामें जैन धर्मका प्रचार कराया था। विदेशोंके अतिरिक्त भारतमें भी सम्प्रतिने धर्मप्रभावनाके अनेक कार्य किये थे। उन्होंने दक्षिण भारतमें भी अपने धर्मप्रचारक भेजे थे। किन्तु सम्प्रतिके बाद मौर्यवंशमें कोई भी योग्य शासक नहीं हुआ। परिणाम स्वरूप मौर्य साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया और दक्षिण भारतके राज्य भी स्वाधीन होगये। अशोकके एक धर्म १-जैसई० पृष्ठ ९। 2-" This co-incidence, if it were merely accidental, is certainly significant. Apart from minor details, this confirms the opinion of Rhys Devids that the linguistic and epigraphical evidence so far available confirms in many respects the general reliability of the traditions ourront among the Jains..." -Prof. S. R. Sharma, x. A. ३-मंजेई. मा. २ खण्ड १ पृष्ठ २९३-२९६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र-साम्राज्य लेखसे यह स्पष्ट है कि दक्षिणके चेर. चोल. पाण्ड्य राज्य पहलेसे ही स्वाधीन थे और मौर्योके बाद मान्ध्रवंशी बलवान होगये । आन्ध्र-साम्राज्य। नर्मदा और विध्याचलके उपरान्त दक्षिण दिशाके सब ही प्रांत 'दक्षिणापथके नामसे प्रसिद्ध थे।' दक्षिण भारतके परन्तु राजनैतिक दृष्टिसे उनके दो भाग दो भाग। हो जाते हैं। पहले भागमें वह प्रदेश माता है जो उत्तरमें नर्मदा तथा दक्षिणमें कृष्णा और तुङ्गभद्राके बीच है। और दूसरे भागमें वह त्रिको णाकार भूभाग आता है जो कृष्णा और तुगभद्रा नदियोंसे भारम्भ होकर कुमारी अंतरीपतक जाता है । यही वास्तवमें तामिक अथवा द्राविड़ देश है। इन दोनों भागोंकी अपेक्षा इनका इतिहास भी अलग-अलग होजाता है । तदनुसार यहां हम मौर्योके बाद पहले भाग पर अधिकारी आन्ध्रवंशके राजाओंका परिचय लिखते हैं। अशोकके उपरांत मान्ध्रवंशके राजा स्वाधीन होगये थे। यह लोग शातवाहन अथवा शालिवाहनके आन्ध्र राजा। नामसे भी प्रसिद्ध थे। और इनके राज्यका मारम्भ ईस्वी पूर्व ३०० के लगभग हुआ था। चंद्रगुप्तके समयमें तीस बड़े बड़े प्राचीरवाले • १-गैव०, पृ०१३३ यूनानियोंने इसे 'दखिनवदेस' (Dakhinar bades) कहा था । २-मैकु०, पृष्ठ १५ । ३-कामाइ०, पृ.१९१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचित जैन इतिहाँस । नगर आन्ध्र राज्यके अंतर्गत थे। आन्ध्रोंकी सेना में एक लाख प्यादे, दो हजार सवार और एक हजार हाथी थे। यूनानी लेखकोंने इन्हें एक बलवान शासक लिखा है। अशोक के मरते ही इन्होंने अपने - राज्यको बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया और सन् २४० या २३० ई० पूर्वके लगभग पश्चिमी घाट पर गोदावरीके उद्भवके समीप नासिकनगर उनके राज्य में सम्मिलित होगया। धीरे-धीरे सारे क्षक्षिण प्रदेश पर समुद्रसे समुद्र पर्यन्त उनका राज्य होगया ।' कहते हैं, मगधको भी मन्त्रोंने, खारवेल के साथ जीत लिया था । कलिङ्गके जैन सम्राट् खारवेलने आन्ध्र सम्राट् शतकर्णीको परास्त किया था। इसीसे अनुमानित है कि मगध विजय में वह खारवेल के साथ रहे थे। उनके समय में पश्चिम की ओर से शक छत्रपोंके आक्रमण भारत पर होते थे । आन्धोंने उनसे बचने के लिये अपनी राजधानी महाराष्ट्र के हृदय प्रतिष्ठान ( पैठन) में स्थापित की थी। इनका पहला राजा सिसुक या सिन्धुक नामक था । इनका सारा राजत्वकाल करीब ४६० वर्ष बताया जाता है, जिसमें इनके तीस राजाओंने राज्य किया था । * इस वंश के राजाओं में गौतमी पुत्र शातकर्णि नामक राजा प्रख्यात था । नासिकके एक शिलालेगौतमीपुत्र शातकर्णि। खमें उसे 'राजाधिराज' और अशिक, अश्मक मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ और अकरावन्ती नामक देशों पर शासन करते लिखा [ ܕ १-०, पृ० १५४ - १७२ । २ - कुऐई०, पृ० १५ । ३ - जवि - मोसी० भा० ३ पृ० ४४२ । ४ - लाभाइ०, पृ० १९९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र - साम्राज्य । [ १०९ है । अनेक राजा-महाराजा उसकी सेवा करते और आज्ञा मानते थे । वह शरणागतोंकी रक्षा करता और प्रजाके सुख-दुःखको अपना सुख दुःख समझता था । वह विद्वान, सज्जनोंका माश्रय, यशका आगार, चारित्रका भंडार, विद्यामें अद्वितीय और एक ही धनुर्धर वीर था । उसने शक, यवन और पल्लवोंकी संयुक्त सेनाको परास्त करके : भारतको महान संकटसे मुक्त किया था । इसी कारण वह 'विक्रमादित्य' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था । उसका राजत्वकाल ई० पूर्व १०० ४४ बनाया जाता है । प्रारम्भमें उसने ब्राह्मणोंके धर्मका पालन किया था, परन्तु अपने अंतिम जीवनमें वह एक जैन गृहस्थ होगया था । शक विजयकी स्मृतिमें उसका एक संवत् भी आरम्भ हुआ था जो आज तक प्रचलित है । २ गौतमीपुत्र के अतिरिक्त इस वंशके राजाओंमें हाल और कुन्तलशात कर्णि भी उल्लेखनीय हैं। हाल अपनी साहित्यक रचनाओंके लिए प्रसिद्ध हैं और कुन्तलने सन् ७८ ई० में पुनः शकों को हराकर आंध्रसाम्राज्यको स्वाधीन बनाया था। शालिवाहन शक इमी घटनाकी समृतिमें प्रचलित हुआ था । आंध्रकालमें देश समृद्धिशाली हुआ था। लोगों में उत्साह और साहसका संचार हुआ था, जिससे उन्होंने जीवन के प्रत्येक व्यापार । १ - ०, पृष्ठ १४९ । २ - विक्रमादित्य गौतमीपुत्र शातकर्णिका विवेचनात्मक वर्णन ' संक्षिप्त जैन इतिहास भाग २ खंड २ पृ०-६१-६६ में देखना चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com , Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | - अंगको उन्नत बनाया था । बंणिज - व्यापार खूब ही वृद्धिको पहुंचा था। पश्चिमसे जहाज आकर भृगुकच्छके बन्दरगाहपर टहरा करते थे । पैठनसे एक खास तरहका पत्थर और तगरपुर ( तेरापुर ) से मजलैन- साटने, मारकीन आदि कपड़ा एवं अन्य वस्तुयें भृगुकच्छ गाड़ियोंमें ले जाई जाती थीं और वहांसे जहाजोंमें लवकर पश्चिमके देशों यूनान आदिको चली जातीं थीं । सोपारा ; कल्याण, सेमुल्ल -इत्यादि नगर व्यापारकी मंडियां थीं। लोगोंके लिये आने जानेकी काफी सुविधा और उनकी रक्षाका समुचित प्रबन्ध था। भारतीय - व्यापारी निश्चित होकर देश-विदेश से व्यापार करके समृद्धको प्राप्त होहे थे । साहित्य | वाणिज्य के अनुरूप ही साहित्यकी भी आन्ध्रकालमें अच्छी उन्नति हुई थी । आन्ध्रवेश के अनेक राजा साहित्यरसिक थे और उनमें से किन्होंने स्वयं ही रचनायें भी रचीं थी । सम्राट् हाळकी 'गाथा सप्तशती' प्रसिद्ध ही है । परन्तु यह बात नहीं है कि आन्ध्र कालमें केवल प्राकृत भाषाकी ही उन्नति हुई हो, बल्कि संस्कृत भाषाको भी इस समय प्रोत्साहन मिला था। प्राकृत भाषाका प्रमुख -ग्रन्थ 'बृहत्कथा' था, जो महाकवि गुणाढ्य की रचना थी। . 8 कहा जाता है कि गुणाढ्यने कारणभूति नामक आचार्यसे जानकर कथासाहित्यका यह अद्वितीय ग्रन्थ रचकर सालिवाहन राजाको भेंट किया था। यह कारणभूति एक जैनाचार्य प्रगट होते हैं। उधर १-० पृष्ठ १७४- १०६ । २ - बगै० पृष्ठ १७०-१७१ । -३- 'वीर' का ' कहानी- अ ' देखो। ܘܙܕ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र-साम्राज्य । [१११ संस्कृत भाषाका अपूर्व व्याकरण कातन्त्र' भी एक तालिवाहन राजाके लिये रचा गया था ! कहते हैं कि यह भी एक जैनाचार्यकी कृति थी। जैन विद्यालयोंमें इसका पठनपाठन बाज भी होता है। लोगों वदिकधर्मके साथ-साथ बौद्धधर्म और जनधर्मका भी प्रचार था । सामाजिक संस्थायें प्रायः सुदर धर्म। दक्षिण देश जैसी ही थीं।' 'कालकाचार्यक __थानक से प्रगट है कि पैठनके गजाके वह गुरू थे। जैन मुनियों और मार्यिकाओं का आवागमन राजप्रासादमें भी था : राजा और प्रजाको जैन गुरु धर्मकी शांति और सुखकर शिक्षा दिया करते थे। उनका धर्मोपदेश बहकार्यकारी भी था। यही वजह है कि गौतमीपुत्र और हालके विषयमें अनुमान किया जाता है कि वे जैनधर्मानुयायी होगये थे। मान्ध्रदेश सघन नों, पर्वतों और उपत्यकाओंसे परिपूर्ण था। प्रकृतिप्रिय जैनों का ध्यान इस देशके सौन्दर्यकी ओर आकृष्ट हुमा । उनके संघ वहाँ पहुंचे और अपनीअपनी 'पलिल' स्थापित करके बस गये। सारा देश जैन मंदिरोंसे अलंकृत और जैन मुनियोंके धर्मोपदेशसे पवित्र होगया । 9-“ The Andhra or Satavahana rule is characterised by almost the same social features as the further south; bat in point of religion they seem to have been great patrons of the Jains and Buddhists."-S. Krishnaswami Aiyangor in the Ancient India, page 34. २-साईज., मा० २ पृष्ट ८ ९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संक्षिप्त जैन इतिहा। सुदूर दक्षिणके राज्य । (द्राविड़-राज्य ) गोदावरी और फिर कृष्णा एवं तुङ्गभद्रासे परे दक्षिण दिशामें जो भी प्रदेश था वह तामिल अथवा द्राविड़ राज्योंकी द्राविड़ नामसे परिचयमें माता था। यह सीमायें। द्राविड़ अथवा तामिलदेश तीन भागों अर्थात् चेर, चोक और पाण्ड्य मण्डलोंमें विभक्त था । पाण्ड्यमंडल 'पण्डि नाडु' नामसे विख्यात् था और वह वर्तमानके मदुरा जिला जितना था।' शोककै समयमें पांड्य राज्यमें मदुरा और तिनावली के जिले गर्मित थे। मदुरा उसकी राजधानी थी, जो एक समय समृद्धिशाली बहुजनाकीर्ण और परकोटेसे वेष्टित नगर था। पांडयोंका दुसरा प्रमुख नगर को ( Korkai) था। चोलमंडलका दूसरा नाम 'पुनलनाडु' था और उयुर (उरगपुर) उसकी राजधानी थी, जो वर्तमान के ट्रिचनापली नगरके सन्निकट अवस्थित थी। चोल राज्यका विस्तार कोरोमण्डल जितना था । पुकर अर्थात् कावेरीयाम्पट्टनम् चोलोंका प्रधान बन्दरगाह था। प्राचीनकालमें चेरमण्डलका विस्तार मैसूर, कोइम्बटोर, सलेम, दक्षिण मालाबार, ट्रावनकोर और कोचीन जितना था। इसकी राजधानी करूर अथवा १-जमीसो०, भा० १८ पृष्ट २१३ । २-लाभाइ० ० २८६।। ३-जषीसो०, भा० १८ पृ० २१३ । ४-लाभाइ० पृ० २८६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र-साम्राज्य [११३ बेजिङ्ग थी और पाण्ड्यदेश इससे पश्चिममें थी। यह तीन राज्य ही दक्षिण भारतमें प्रमुख थे। । दक्षिणके इन तीनों राज्योंका उल्लेख सम्राट अशोकके धर्म लेख में हुमा है। और सम्राट् खारवेलके शिलालेख और शिलालेखमें भी इनका उल्लेख मिलता द्राविड़ राज्य। है। परन्तु साहित्यमें इन तीनों राज्योंका अस्तित्व एक अति प्राचीनकालसे सिद्ध होता है । ' कात्यायन-वातिका' में पाण्ड्य, चोक मादिका उल्लेख है। पातञ्जलिने इसी प्रकार माहिष्मती, वैदर्भ. काञ्चीपुर और केर. सका उल्लेख किया है । 'महाभारत' (वनपर्व ११८) में द्राविड़ देशकी उत्तरीय सीमा गोदावरी नदीका उल्लेख है। यूनानी लेखकों टोल्मी आदिने भी इन देशोंका उल्लेख किया है। उधर जैन साहित्यसे भी चे, चोल और पाण्ड्य राज्योंका प्राचीन अस्तित्व प्रमाणित है। महाराज जैन साहित्यमें कृष्णक युद्ध जब जस सिंधुसे होरहा था द्राविड़ राज्य। तब द्रविड़ देश के राजा भी उनके पक्षमें थे। मालून होता है कि पाण्डवों के दक्षिण मथुगमें राज्य स्थापित करने के कारण उन राज्योंका सम्पर्क उत्तर भारतीय राज्योंसे घनिष्टतामें . रिणत होगया था। चेचोल. १-कच० पृष्ट २५० । २-अध० पृष्ट ११३-११९ । ३जविबोसो० मा० ३ पृ. ४४६। ४-पग पृ० १३८ । ५-महाभाष्य, १. १, १९। ६-ग• पृ. १३८-१४२ । ७-हरि० पृ. ४६८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | पाण्ड्य इन द्रविड़ राज्यों का युधिष्ठरादि पाण्डवोंसे गहरा सम्बन्ध था। विदित होता है कि जिस समय पल्लवदेश में विराजमान भगवान् मरि'नेमके निकट पाण्डवोंने जिनदीक्षा ली थी, उसी समय इन द्रविड़ राजाओंने भी मुनिव्रत धारण किया था । पाण्डवों के साथ तप तपकर वह भी शत्रुंजयगिरिसे मुक्त हुये थे। भगवान् अरिष्टनेमि तीर्थने ही कामदेव नागकुमार हुये थे । नागकुमारका मित्र मथुराका राजकुमार महाव्याल था । यह महाव्याक पांड्यदेश गया था और पाण्ड्य राजकुमारीको व्याह लाया था। इसके पश्चात् भ० पार्श्वनाथके तीर्थकालमें करकण्डु राजा हुये थे, जिन्होंने चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओंको युद्धमें परास्त किया था । करकण्डुको यह जानकर हार्दिक दुःख हुआ था कि वे राजा नी थे। उन्होंने उनसे क्षमा चाही और उनका राज्य उन्हें देना चाहा; परन्तु वे अपने पुत्रोंको राज्याधिकारी बनाकर स्वयं जैन मुनि होगये थे। इन उल्लेखोंसे चेर, चोल, पाण्ड्य राज्योंका प्राचीन अस्तित्व ही नहीं बल्कि उनके राजाओंका जैनधर्मानुयायी होना भी स्पष्ट है। दक्षिण भारत में अन्तर पर्वत, ऐवर मले, तिरुमूर्ति पर्वत इत्यादि १- पंडुसुमा तिथिगण्णा दविड रिंदाण अट्ठकोडियो । सेतुजय गिरिसिइरे णिवाणगया णमो तेसि ||" २ - गंभीर विहिणि गाउदा हिणमडुरा हिड पंडिराउ - णायकुमारचरित ८/२ ३०च० पृष्ठ ७९-८० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बान्ध्र-साम्राज्य । [२१५ स्थान ऐसे हैं जिनसे प्रगट होता है कि वहां पाण्डवादि प्राचीन महापुरुष पहुंचे थे। दक्षिणके इन तीनों राज्योंमें पाण्ड्य राज्य प्रधान था। राज वकी अपेक्षा ही नहीं बल्कि सभ्यता पाण्ड्य राज्य। और संस्कृति के कारण पाण्ड्यवंशको ही प्रमुख स्थान प्राप्त है। उनका एक दीर्घकालीन राज्य था और उसमें उन्होंने देशको खूब ही समृद्धिशाली बनाया था। पाण्ड्यराज्य अति प्राचीन काल से रोमवालों के साथ व्यापार करता था । कहा जाता है कि पांड्य राजाने सन् २५ ई० पृ० में अगस्टस सीजरके दरबाग्में दुत भेजे थे। यूंही लोगोंके साथ नम श्रमणाचार्य भी यूनान गये थे। यूनानमें मारतीय कपड़ेकी बहुत खपत थी। रोमन ग्रंथकार पीटर वीनसको इस बातका सन्देह था। यूनानी रमणियां भारतीय परिधान पहनकर निर्लज्जताकी दोषी होती हैं। वह भारतकी मलमलको 'बुनी हुई पवन ' के नामसे पुकारता है। लिनी एवं अन्य यूनानी लेखकोंने शिकायत की है कि यूनानका करोड़ों रुपया विलासिताकी वस्तुओंके मूल्यमें यूनानसे भारत चला जाता है । उस समय रुई, ऊन और रेशमके कपडे बनते थे। ऊनके वस्रों में सबसे नफीस चूहोंकी ऊन गिनी जाती थी। रेशमके कपड़े तीस प्रकारके थे। सारांश यह कि पांड्य राजत्वकालमें यहां विद्या, कला और विज्ञानकी खूब उन्नति हुई थी। १-जमीसो० भा० २५ पृष्ठ ८८-८९।२-जमीसो०, भा०१८ पृ. २१३।३-इंहिक्वा०,भा०२ पृष्ठ २९३। -काभाइ०, पृष्ट २८७-२८८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६.] संक्षिप्त जैन इतिहास | पाण्ड्य राजके समय में अर्थात् ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दिमें पाण्ड्य देशमें पानीका सीलाव भाया पाण्ड्य विजय । था, जिसमें कुमारी और पहरू लि नामक नदियोंका मध्यवर्ती प्रदेश जल मन होगया था। अपनी इस क्षतिकी पूर्ति पाण्ड्य राजने चोक-चेर राजाओंके कुन्डुर और मुत्तुर नामक जिलोंपर अधिकार जमाकर की थी । इस विजय के कारण यह पाण्ड्यराज नीलन्तरु तिरुवीर पाण्ड्यन् कहलाये थे । इन्हींके समय में द्वितीय 'संगम् साहित्य परिषद " हुई थी। पाण्डयवंशकी इस मुळ शाखा के अतिरिक्त दो अन्य शाखाओंका भी पता चलता है । ईस्वी बारुकुरुके पाण्ड्य । प्रथम शताब्दिमें मधुरा पाण्ड्यवंशके एक देव पाण्ड्य नामक राजकुमार तौलव देशान्तर्गत बारुकुरुमें आ बसे थे। और वहीं किसी जैनीकी कन्यासे उनका व्याह हुआ था । कालान्तर में वह बारुकुरुको राजधानी बनाकर शासनाधिकारी हुये थे । इनके उत्तराधिकारी इनके भानजे भूताल पाण्ड्य थे जो कदम्ब सम्राट्के आधीन राज्य करते थे । इसी समय से पाण्ड्य देशमें निज पुत्रके स्थानपर भानजेको उत्तराधिकारी होनेका नियम प्रचलित हुआ था । भूतालके पश्चात् क्रमशः विद्युम्न पाण्ड्य (सन् १४८ ई०), वीर पाण्ड्य (सन् २६२ ई० तक), चित्रवीर्य पाण्ड्य ( सन् २८१ ई०) देववीर पाण्ट्य 1 १- साईजे० भा० १ पृष्ठ ३८-३९ । , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र - साम्राज्य । [ ११७ (सन् २९० ई०), बलवीर पाण्ठ्य (सन् ३१६ ई०) और जयवीर पाण्ड्य (सन् ३४३ ई०) ने राज्य किया था। इसके आगे इस पाण्ड्य वंशका पता नहीं चलता ।' पाण्ड्यवंशकी एक दूसरी शाखा कारकलमें राज्याधिकारी थी । जिस समय तौलव देशका शासन कारकलके पाण्ड्य । कापिट्टु हेग्गडे कर रहा था, उस समय प्रजा उसके दुःशासनके कारण ऊब गई थीं । भाग्यवशात् कारकलमे हुम्बुच्चके शासक जिनदत्तरायके वंशज भैरव पाण्ड्य मूडबिद्री तीर्थकी यात्रा करके आ निकले । दुखी प्रजाने उनसे जाकर अपनी दुख गाथा कही । भैरव पाण्ड्यने हेगडेको बुलाकर समझाया, परन्तु उसपर उनके समझानेका कुछ भी असर नहीं हुआ । हठात् उन्होंने हेगडेको युद्धमें परास्त करके उसके प्रदेशपर अधिकार जमाया। इनके उत्तराधिकारी कारकलमें आरहे और निम्नलिखित शासकोंने वहां रहकर राज्यशासन किया था । (१) पाण्ड्य देवरस या पाण्ड्य चक्रवर्ती, (२) लोकनाथ देवरस, (३) वीर पाण्ड्य देवरस, (४) रामनाथ भरस, (५) भैररस जोडेय, (६) वीर पाण्ड्य भैररस ओडेय, (७) अभिनव पाण्ड्यदेव, (८) हिरिय भैरवदेव ओडेब, (९) इम्मडि भैरवराय, (१०) पांडयप्प ओडेब, (११) इम्मडि भैग्वराब, (१२) रामनाथ और (१३) वीर पाण्ड्य | १ - जैसिभा० भा० ३ किरण ३ पृष्ठ ९२ । २- पूर्व० पृष्ठ ९३ । > Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] संक्षिप्त जैन इतिहास। पाण्ड्यराज्यमें उस समय धार्मिक सहिष्णुता भी प्रचुरमात्रामें विद्यमान थी। 'मणिमेखले' नामक धर्म। तामिक महाकाव्यमें एक स्थल पर एक नगरके वर्णनमें कहा गया है कि 'प्रत्येक धर्मालयका द्वार हर भक्त के लिये खुला रहना चाहिये । प्रत्येक धर्माचार्यको अपने सिद्धांतों का प्रचार और शास्त्रार्थ करने देना चाहिये। इस तरह नगरमें शांति और आनंद बढ़ने दीजिये।" यही बजह थी कि उस समय ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों धर्म प्रचलित होरहे थे। लोगोंमें जैन मान्यतायें खूब घर किये हुये थीं, यह बात 'मणिमेखले' और ' शीलप्पधिकारम् ' नामक महाकाव्योंके पढ़नेसे स्पष्ट होजाती है । 'मणिमेखले में ब्राह्मणोंकी यज्ञशालाओं, जैनोंकी महान पल्लियों (hermitages), शवोंके विश्रामों और बौद्धोंके संघारामोका साथ-साथ वर्णन मिलता है। यह भी इन काव्योंसे प्रगट है कि पाण्ड्य और चोल राजाओंने जैन और बौद्ध धर्मोको अपनाया थी। मधुरा जैन धर्मका मुख्य केन्द्र था । 'मणिमेखलै' का मुख्य पात्र कोबलन अपनी पत्नी सहित १-जैसाई०, पृष्ठ २९ । २-बुस्ट०, पृष्ठ ३ । 3-"It would appear that there was then perfoot religious toleration, Jainism advanoing so far as to be embraced by members of the royal family......The epics give one the improssion that there two (Jain & Buddhist) religions wore patronised by the Chola aswell 8a by the Pandym Kings."-साइजै० पृष्ठ ४६-४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध समा [ ११९ जिस समय मधुराको जारहा था तो मार्गमें एक जैनीने उन्हें सावधान किया था कि वे वहां पहुंचकर किसी जीवको पीड़ा न पहुंचायें और न हिंसा करें, क्योंकि वहां निर्ग्रन्थ ( जैनी ) इसे पाप बताते हैं । पुहरनगरमे जब इन्द्रोत्सव हुआ तो राजाने सब ही सम्प्रदायको निमंत्रित किया। जैनी भी पहुंचे और अपना धर्मोपदेश दिया, जिसके फलरूप अनेकानेक मनुष्य जैन धर्ममें दीक्षित हुऐ । 3 'शी पधिकारम्' काव्यसे प्रगट है कि उसके मुख्य पात्र मधुराकी यात्रा करने गये थे । मधुरा उस समय तीर्थ समझा जाता था। वहां पास में अनेक जैन गुफायें थीं, जिनमें जैन मुनि तपस्या किया करते थे । 'माराधना कथाकोष' से प्रगट है कि भ० महावीरके उपरान्त वहां पर एक सुगुप्ताचार्य नामके महान् साधु हुये थे। उ मदुराकी यात्राको चलकर वे पात्र पहले जैन साधुओं की एक 'पल्लि' में ठहरे थे। वहां चिकने संगमरमरका चबूतरा था, जिसपर से जैनाचार्य उपदेश दिया करते थे। उन्होंने उसकी परिक्रमा दे वन्दना की। वहांसे चलकर उन्हें कावेरी नदीके तटपर आर्यिकाओं का आश्रम मिला | देवन्धि मार्यिका मुख्य थी, वह भी उनके साथ होली । जैन आर्यिकाओंका प्रभाव उस समय तामिल स्त्रीसमाज में खूब था। आगे कावेरीके बीच टापूमें भी उन्होंने जैन साधुके दर्शन किये। सारांश यह कि उन्हें ठौर- ठौरपर जैन मुनियों और भायिकाओंके दर्शन होते थे । इससे वहां जैनधर्मका बहु प्रचलित होना स्पष्ट है । १- साई पृष्ठ ४७-४८ | २ - जैसा० पृष्ठ २९ । ३-माक० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | चोल राज्य । चोल प्रदेशका नाम चोलमण्डल था, जिसका अपभ्रंश कोरोमण्डल होगया। उसके उत्तर में पेन्नार और दक्षिण में वेल्लारु नदी थी । पश्चिममें यह राज्य कुर्गकी सीमा तक पहुंचता था । अर्थात् इस राज्य में मदरास, मैसूरका बहुतसा इलाका और पूर्वीसागर तट - पर स्थित बहुत से अन्य ब्रिटिश जिले मिले हुए थे । प्राचीनकाल में इस राज्य की राजधानी उईंऊर ( पुरानी तृचनापली ) थी । और तब इसका पश्चिम के साथ बहुत विस्तृत व्यापार था। तामिल लोगोंके जहाज भारतमहासागर तथा बङ्गालकी खाड़ीमें दूर-दूर तक जाते थे । कावेरीप्पुमपट्टनम् इस देशका बड़ा बंदरगाह था। चोलराजाओंमें प्रमुख कारिकल नामका राजा था जिसने लंकापर आक्रमण किया था और कावेरीका बांध बांधा था। इस राजाकी नाम अपेक्षा एक जिनालय भी स्थापित किया गया था, जिससे इस राजाका जैनधर्मप्रेमी होना सष्ठ है। पाण्ड्य और चोल राज्योंके समान ही चेर अथवा केरल राज्य था । चेर राजाओंके इतिहास में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि उनके चेर राज्य । राज्यकाल में देहांतका शासन अधिकांश प्रजातन्त्र नियमोंपर चलाया जाता था, जिसका प्रभाव सारे राज्यपर पड़ा हुआ था | गांवों में भिन्न भिन्न सभायें प्रबन्ध और १ -लाभाइ० पृष्ठ २९१-२९२ । २- साइंजै०, भा० २ पृष्ठ ३८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान्ध्र साम्राज्य [१२१ विचार सम्बन्धी अधिकारोंका उपयोग करती थीं। एक समय कोगुनाडु प्रदेश भी चेर राज्यके अन्तर्गत था, जिसमें वर्तमानका कोइम्बटूर जिला, सलेमका दक्षिण-पश्चिमी भाग, त्रिचनापली निलेका करूर तालुक और मदुरा जिलेका पलनी तालुक गर्भित था। ___ कवि भरुनगिरिनाथरने कोंगु देशपर चेर अधिकारका उल्लेख किया है । बेलुलोरके शिलालेखमें कोकनुन रवि और रवि कोडे नामक चेर राजाओंका उल्लेख है। प्राचीनकालमें चेर राजा अति प्रमावशाली थे और उनका सम्बन्ध उत्तर भारत के राजामोंसे था। सम्राट श्रेणिकने एक केरल राजाकी सहायता की थी, यह पहले लिखा जा चुका है। इससे भी पहले हस्तिनापुरके कुरुराजके सहायककोंगु और कर्णाटकके राजा थे। चेर राजत्वकालमें भी धार्मिक उदारता उल्लेखनीय थी। एक ही घरमें जैन और शैव साथ-साथ धर्म। रहते थे। 'शीलप्पधिकारम्' काव्यके कर्ता चेर राजकुमार इलन्णेवदिगल जैनी थे, जबकि उनके भाई सेंगुतुवन एक शैव थे। तो भी उस समय चेर देशके निवासियोंमें जैन धर्मका खूब ही प्रचार था। ईस्वी पहली-दुसरी शताब्दिमें कोंगु देशके पहले तीन चेर राजाभोंके १-लाभाई०, पृष्ठ २९२ । २-जमीसो०, मा० २१ पृष्ठ ३९-४०। ३-'जहिं बमोट्टजट्टजालंधर मारुभटक्ककीरखसबन्धर । मरवेयंग कुंग वेराडिवि गुजरगोडलाडकनाडवि ॥' -भविसयत्तकहाए सूरामः सन्धिः । ४-साइंज., भा. १ पृष्ठ ४६-४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१] संक्षिप्त जैन इतिहास । गुरू जैनाचार्य थे; बल्कि पांचवी शताब्दि तक उस वंशके राजा गुरू जैनी ही रहे । चेर राजा कुमार इलङ्गको मादिगलके पितामह एक महावीर थे। एक युद्धमें उनकी पीठमें घातक भाषात पहुंचा। उन्होंने अपना अन्त समय निकट जानकर सल्लेखना व्रत स्वीकार किया था। - राजकुमार इकन्गोबर्द्ध भी जैन मुनि हुये थे। कोंगु. देश भनेक प्राचीन स्थान ऐसे हैं जिनसे प्राचीनकालये नैन धर्मका बहु प्रचार स्पष्ट होता है । विजियमङ्गलम् नामक स्थानपर चन्द्रप्रभ तीर्थङ्करका एक जैन मंदिर है। उसमें पांचों पाण्डवोंकी तथा भगवान् ऋषभदेवकी भी मूर्तियां हैं। मंदिरके पांचवें बड़े कमरेचे पत्थरमें आदीश्वर भगवानकी जीवन घटनायें मङ्कित हैं। इस प्रकार इन तीनों द्रविड राज्योंमें प्राचीनकालसे जैन धर्म प्रधान रहा था। इन राजवंशोंके राजत्वका क्रम यह था कि पहले चोलराज प्रधान थे; उनके बाद चेर राजामों का प्रावल्य रहा । अन्तमें पाण्ड्यराज प्रमुख सत्ताधीश हुये। पाण्डयोंके उपरान्त पल्लव, चालुक्यादिकी प्रधानता हुई थी, जिनका इतिहास आगे लिखा जायगा। द्राविड़ राजाओंके राजत्वकालमें तामिळदेशका व्यापार भी खुब उन्नतिपर रहा था । निस्सन्देह दक्षिणव्यापार। भारतका व्यापार तब एक ओर उत्तरभारतसे होता था तो दूसरी ओर योरुपके देशोंसे भी १-जैसाई०, पृष्ठ २९-३० व गैमैकु०, भा० १ पृष्ठ ३७० । २-जमीसो०, भा॰ २५ पृष्ठ ८७-९४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र साम्राज्य । [ १२३ वहांका व्यापार खूब चलता था । ऊर (Ur) जैसे प्राचीन नगर के ध्वंसावशेषोंमें जैतूनकी लकड़ी मिली है जो मलाबारसे वहां पहुंची अनुमान की जाती है। सोना, मोती, हाथीदांत, चांवल, मिर्च मोर, लंगूर आदि वस्तुयें दक्षिणभारतकी उपज थीं जो द्राविड़ जहाजों में लादकर वैविलन, मिश्र, यूनान और रोमको भेजी जातीं थीं। इस व्यापारका अस्तित्व ईस्वी पूर्व ७ वीं या ८ वीं शताब्दि से भी पहलेका प्रमाणित होता है। १ रोमन सिक्के तामिलनाडुसे उपलब्ध हुए हैं, जिनसे तामिळ देश में पश्चिमात्य व्यापारियोंका अस्तित्व सिद्ध होता है। उन्हें लोग 'यवन' कहते थे और इन यवनोंका उल्लेख कई तामिल काव्यों में है तामिळराजागण इन विदेशियोंको अपनी फौज में भरती करते थे और उनके आत्मरक्षक भी यह होते थे। कावेरीप्पुमपहनम्में इन यवनका एक उपनिवेश था । ' तामिलोंका रहन-सहन और दैनिक जीवन सीधा-सादा था । उनकी पोशाक समाजमें व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और मर्यादाके अनुसार भिन्न-भिन्न थी । मध्यश्रेणी के लोग बहुधा दो वस्त्र धारण करते थे । एक वस्त्रको वे अपने सिरसे लपेट लेते थे और दूसरेको कमरसे बांध लेते थे। सैनिकलोग बरदी पहनते थे । सरदार लोग मौसमके अनुकूल वस्त्र पहनते थे। लड़कोंकी शादी १६ वर्षकी उम्र में और लड़कियोंकी १२ वर्षकी अवस्था में होती थी ! विवाह के लिये यही उम्र ठीक समझी जाती थी ! मृत व्यक्तियोंके दाहस्थानोंपर १ - हिबारू० पृष्ठ १९८.... । २ - जमीसो० भा० १८ पृष्ठ २१३ । संस्कृति | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] संक्षिप्त जैन इतिहास । मंदिर और निषधि बनाने का भी रिवाज था। संग्राममें वीरगतिको प्राप्त हुये योद्धाओंकी स्मृतिस्वरूप 'वीरपाषाण' बनाये जाते थे जो 'वीरगल' कहलाते थे और उनपर लेख भी रहते थे। तामिल जातियोंके राजनैतिक नियम भी भादर्श थे। राजाको राज्यप्रबन्धमें सहायता करने और ठीकराजनैतिक प्रबंध। ठीक व्यवस्था कराने के लिये पांच प्रका की सभायें थीं अर्थात् (१) मंत्रियोंकी सभा, (२) पुरोहितोंकी समा, (३) सैनिक अधिकारियोंकी सभा, (४) राजदुतोंकी सभा और (५) गुप्तचरोंकी सभा । इन सभाओंमें कुछ -सदस्य जनताके भी रहते थे। उसपर पण्डितों और सामान्य विद्वानोंको अधिकार था कि जिस समय चाहें अपनी सम्मति प्रगट करें। ___ उपरोक्त सभाओंमें पहली समाका कार्य महकमे माल और दीवानीका प्रबन्ध करना था। दूसरी समा सभी धार्मिक संस्कारोंको सम्पन्न कराने के लिये नियुक्त थी। तीसरी सभाका कर्तव्य जिसका नायक सेनापति होता था, सेनाकी समुचित व्यवस्था रखना था। शेष दो समाओं के सदस्य राजाको संधि-विग्रहादि विषयक परामर्श देते थे। गांवोंके प्रबन्धके लिये 'गांव पंचायतें' थीं। न्याय निःशुल्क दिया जाता था-माजकलकी तरह उसके लिये 'कोर्टफीस' में 'स्टाम्प' नहीं लगता था। दण्ड व्यवस्था कड़ी थी-इसी कारण अपराध भी कम होते थे। १-जमीसो० मा० १८ पृष्ठ २१४ । २-लासाइ० पृष्ठ २८९ व नमोसो. भा. १८ पृष्ठ २१४-२१५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा स्वतत्रत भान्ध्र साम्राज्य [ १२५ तामिल राजाओंके समयमें शिक्षाका खूब प्रचार था। स्त्रियां भी स्वतंत्रतापूर्वक विद्याध्ययन करती साहित्य। भी। उनमें कई स्त्रियां अच्छी कवियत्री थीं। विद्वत्ता भी केवल उच्च वर्णके. लोगों तक सीमित न थी। हरकोई अपनी बुद्धि-कौशलका प्रदर्शन कर सकता था । उच्च कोटिके साहित्यका निर्माण ठीक हो और साहित्य प्रगतिको प्रोत्साहन मिले, इसलिये एक 'संघम् ' नामकी सभा स्थापित थी; जिसमें उद्भट विद्वान् और राजा रचनामोंकी समालोचना करके उन्हें प्रमाणता देते थे। इस संधम्कालके लगभग पचास अनूठे तामिक ग्रंथ आजतक उपलब्ध हैं जो इतिहासके लिये महत्वकी चीन हैं। जैनाचार्य भी इस 'संघम्' में भाग लेते थे और तामिलका आरम्भिक साहित्य अधिकांश जैनाचार्योका ऋणी है । पाण्ड्य राजा 'पाण्डियन उर्ग पेरु वलुडि' ने इस संघम् सभामें उल्लेखनीय भाग लिया था। उन्हीं के समक्ष तामिलका प्रसिद्ध काव्य 'कुरल' संघम्में उपस्थित किया गया था और स्वीकृत हुमा था । उस समय ४८ महाकवि विद्यमान थे । 'कुरल' जैनाचार्यकी रचना है, यह हम आगे प्रगट करेंगे। उस समय एक तामिल कवियित्री अनवैय्यार नामक थी। उसने राजाकी प्रशंसामें एक सुंदर रचना रची थी। तामिल राज्यमें वैदिकधर्म और बौद्धधर्मके अतिरिक्त जैनधर्म १-ठामाइ० पृष्ठ २८९-२९० व जमीसो० भा० १८ पृष्ठ २१५॥ २-मममानैस्मा• पृष्ठ १.५। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-संघ। जैनियों में संक-परम्परा मति पाचीन है। बेन साम्रोंसे पता चलता है कि मावि तीर्थकर ऋषजैन-संघकी प्राचीनता भदेवके समयमें ही उसका जन्म और होगया था । ऋषभदेव संघमें मुनि, उसका स्वरूप। मार्यिका. श्रावक और प्राविका, संमिलित थे। वह संघ विमित गणोंमें विभाजित था, यह बात इससे प्रमाणित है कि शास्त्रोंमें ऋष. भदेवके कई गणघरोंका उल्लेख है' परन्तु उन गणोंमें परस्पर कोई मार्मिक भेद नहीं था। उनका पृथक् मस्तित्व केवल संघ व्यवस्थाकी सुविधाके लिये था। जैन-संघकी यह व्यवस्था, मालम होता है भगवान महावीरके समय तक अक्षुण्ण रूपसे चली माई थी, क्योंकि जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे यह प्रगट है कि भगवान महावीरका अपना १-ऋषमदेवके ८४ गणधरोंका अस्तित्व सभी जनी मानते हैं। देखो जैएं०, मा० २ पृ. ८१।२-सू०................ भम० पृष्ठ ११३-१२१। ३-बौद्धप्रन्थ 'दीधनिकाय' में म. महावीरके विषयमें एक उल्लेख निम्नप्रकार है: "मयम् देव निगंठो नातपुचो संघो चेव गणी च गणाचार्यों च ज्ञातो यसस्सी, तित्थकरो साधु सम्मतो बहुजनस्स रत्तस्स चिरपध्वजितो भद्धगतो वयोअनुपत्ता ॥" (भा० १ पृ०४८-४९)। इस उल्लेख में निथ ज्ञातपुत्र (भ. महावीर ) को संघका नेता भौर गणाचार्य लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि भ० महावीरका संघ था और उसमें गण भी थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] संक्षित जैन इतिहास । संघ था जो कई गणोंमें विषक्त था । इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यास गणवा उन गणों की सार-संभाल करते थे। किन्तु प्रश्न यह है कि इस पाचीन संघका बाह्य भेष और क्रियायें क्या थी ? खेद है कि इस पना पूर्ण और यथार्थ उत्तर देना एक प्रकारसे मसंभव है, क्योंकि ऐसे. कोई भी साधन उपलब्ध नहीं है जिनसे उस प्राचीन कालका प्रामाणिक मोर पूर्ण परिचय प्राप्त होसके। परन्तु तौमी स्वयं दिगम्बरे एवं श्वेताम्बर जैन शस्त्रों और ब्राह्मण एवं बौद्ध ग्रन्थों तथा भारतीय पुरातत्वे पे यह स्पष्ट है कि प्राचीन-भगवान १-महापुराण, उत्तरपुगण, तथा मूळाचारादि ग्रन्थ देखिये। २-'कल्पसूत्र' में लिखा है कि म०ऋषभदेव उपरान्त यथाबात-जनमेष में रहे थे और यही बात भ. महावीर के विषय में उस ग्रन्थमें लिखी हुई है। ३-'भागवत' में ऋषभदेवको दिगम्बर साधु लिखा है । (मम० पृष्ठ ३८) जावाल्लोपनिषद् आदि इतर उपनिषदोंमें 'यथाजातरूपधर निग्रन्थ' साधुओं का उल्लेख है । (दिमु.पृ०७८) ऋग्वेद (१०/१३६), वराहमिहिर संहिता (१९।६१) आदिमें भी जैन मुनियोंको नग्न लिखा है। ४-महावग्ग ८,१५,३।१,३८,१६, चुल्लवग्ग ८,२८,३, संयुत्तनिकाय २,३,१०,७. जातकमाला (S. B. B. I) पृ० १४, दिव्यावदान पृ० १६५, विशाखापत्थु-धम्म-पद-कथा (P. T. S., Vol. I) भा० २ पृ० ३८४ इत्यादि में जैन मुनियोंको नग्न लिखा है। ५-मोहनजोदरोके सर्व प्राचीन पुरातत्वमें श्री ऋषभदेव जैसी बैक चिन्हयुक्त खड्गासन नग्न मर्तियां मुद्राओंपर मंकित हैं (भारि० अगस्त १९३२) मौर्यकालको प्राचीन मर्ति मग्न ही है (सिमा० भा० ३ पृ. १७)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन संघ । ( १३१ महाबीर से भी प्राचीन जैन संघ के साधु नम - यथाजातरूपमें रहते थे- वह अनौदेशिक भोजन दिनमें एकवार करते थे - निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे--जनोपकार में तल्लीन रहते थे। बस्ती मे बहुत दूर एकांतवास करते थे । ' श्रावक और विकायें उनकी भक्ति वंदना करते थे उनमें प्रमुख महापुरुषोंकी वे मूर्तियां और निःपधिकार्ये - बनाकर उनकी भी पूजा किया करते थे ती श्रावक श्वेत बस्त्र पहना करते थे। संघकी यह रूपरेखा थी । दक्षिण भारतीय जैन संघ । दक्षिण भारतमें यदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा ही जैनधर्मका प्रचार होगया था । यह पहले लिखा जा चुका है। और चूंकि ऋषभदेव स्वयं दिगम्बर भेषमें रहे थे, इसलिये दक्षिण भारतीय जैन संघ के साधुगण भी उन्हीं की ४ तरह न भेषमें विचरते थे। दक्षिण भारतकी प्राचीन मूर्तियोंसे यही प्रगट है कि उस समय के जैन साधुगण नम रहते थे । वे साधुगण अपने प्राचीन नाम 'श्रमण' से प्रसिद्ध थे और जैन संघ ' निर्ग्रन्थसंघ' कहलाता था । * तामिलके प्राचीन काव्योंसे स्पष्ट है कि उनके रचनाकालमें दिगम्बर जैन धर्म ही दक्षिण भारत में प्रचलित था । विद्वानोंका मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्ध्यके गुरु श्रुतकेवली भद्र१- भमबु० पृ० ६१-६५ । २ - भमबु० पृ० ६०-६१ । ३ - ममे जैस्मा० पृष्ठ १५, ४१, १२, ६१, ६९, ७४ व १०७; कच० भूमिका व चित्र देखो। ४ - साईजे पृ० ४७ व जैसाई० पृ० ४० । । म० महावीर के संत्रके साधारणतः प्राचीन जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संक्षित जैन इतिहास। .. बाहुजीके साथ ही जैन धर्मका प्रवेश दक्षिण भारतमें हुमा; परन्तु जेन मान्यता के अनुसार दक्षिण भारतका जैन संघ उतना ही प्राचीन था, जितना कि उत्तर भारतका जैन संघ था। यही वजह थी कि उत्तरमें अकाल पड़ने पर धर्मरक्षाके भावसे भद्रबाहु स्वामी अपने संघको लेकर दक्षिण भारतको चले आये थे। उनका ही संघ ज्ञातरूपमें दक्षिणका पहला दिगम्बर जैन संघ प्रमाणित होता है। इसके पहले गौर कौन-कौन जेन संघ थे, इसका पता लगाना इस समय दुष्कर है। यह संघ मुनि, मार्यिका, श्रावक और श्राविकारूप चारों अकोंमें बंटा हुमा मुव्यवस्थित था। द्राविड़ लोगोंमें इसकी खूब ही मान्यता थी।' विद्वानोंका मत है कि द्राविड़ लोग प्रायः नागजातिके वंशज थे। जिस समय नागराजाभोंका शासनाधिकार दक्षिण भारतपर था, उस समय नागलोगोंके बहुतसे रीति-रिवाज और संस्कार द्राविड़ोंमें घर कर गये थे। नागपूजा उनमें बहु प्रचलित थी। जैन तीर्थंकरों में दो सुपाश्व और पार्थकी मूर्तियां नागमूर्तियोंका &-" The fact that the Jaina community had a perfect organisation behind it shows that it was not only popular but that it had taken deep root in the soil. The whole community, we learn from the opics, was divided into two sections, the Sravakas or laymen and the Munis or ascetics. The privilege of entering the monastery was not denied to women and both men and women took vows of celibacy." -13. P. 49. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-संघ। [१३३ सादृश्य रहती थीं और जैनोंकी पूजाप्रणाली भी अति सरल थी ! द्राविड़ोंने उसको सहज में ही अपना लिया था : जैनों की चरण-. चिह पूजा भौर निषधि स्थापन प्रथाका भी उन लोगोंगर असर पड़ा था: परिणाम स्वरूप इस प्राचीन कालमें जैनी उपरान्त ई० छडी सातवीं शताब्दिसे कहीं ज्यादा सम्मान्य और प्रतिष्ठित थे। तामिक महाकाव्योंसे तत्कालीन जैन संघकी क्रियायों का ठीक परिचय मिलता है । उनसे प्रगट है कि जैन संघकी रूपरेखा। निग्रन्थ आधुगण प्रमों और नगरोंक बाहर पल्लियों या विहारों में रहते थे, जो शीतल छायासे युक्त भौर लाल रंगसे पुनी हुई ऊंची दीगलोंसे येष्टित थे। उनके मागे छोटे-छोटे बगीचे भी होते थे। उनके मंदिर तिगहो और चौराहों पर बने होते थे। उनके भग्ने प्लेट कार्म बने हुये थे जिन परसे यह धमोग्देश दिया करते थे। उन विहारों के साथ साथ हो ायिकाओं के विश्राम भी हुआ करते थे। जिनसे प्रगट है कि तामिल ली यमाजया जैनी भायिकामों। काफी प्रभाव था। चोलोंकी राजधानी कावेरीमपट्टिनम्, तथा कावेरी तटप स्थित जग्यु में उल्लेखनीय बस्तियां और विहार ये। मदुरा जैन संघका केन्द्र था। वहां सनिकट गुफाओं जैन .. १-साईन पृ० ४८-४९; जैसाई पृ० १२८.... *-उपाध्यायोंके शिक्षाश्रमों और नायिकाओं के विश्रामोंका उल्लेख शास्त्रोंमें भी है। (उपु• कच०) २-माइं०, मा• १ पृ. ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] संक्षित जैन इतिहास । मुनियों भावासका पता चलता है। वे मुनिगण दिगम्बर मूर्तियोकी वंदना करते थे, यह बात उन गुफामोंमें मिली हुई प्रतिमाबोंसे रुष्ट है । तामिळ काव्योंसे प्रगट है कि तबके नैनी महत् भगवानकी भव्य मूर्तिकी पूजा किया करते थे। वह मूर्ति अक्सर तीन सत्रोंसे नी. अशोक वृक्षसे मंडिल पद्मासन हुआ करती थी। के जैनी दिगम्बर थे, यह उनके वर्णनसे स्पष्ट है तथा वे राज्यमान्य “मणिमेखले " कामसे जैन सिद्धांत के उस समय प्रचलित रूपका भी दिग्दर्शन होता है। उसमें जैन सिदांत। लिखा है कि “मनिमेखलाने निगंट (निर्गन्ध) से पूछा कि तुम्हारे देव कौन हैं और तुम्हारे धर्मशास्त्रोंमे क्या लिखा है ! उसने यह भी पूछा कि लोक में पदार्टीकी उत्पत्ति और विनाश किस तरह होता है! उसमें निगट ने बताया कि उनके देव इन्द्रोद्वारा पूज्य है और उनके बताये हुये धर्मश स्त्रोंमें इन विषयों की विवेचन है। धर्म, भधर्म, काल, माकाश, जीव, शास्वत परमाणु, पुण्य, पाप, इनके दाग रचित कर्मबंध और इस कर्मबंधसे मुक्त होनेका मार्ग । पदार्थ अपने ही स्वमासे अथवा पर पदार्थों के संयोगवर्ती प्रभावानुसार भनिव मथवा नित्य हैं। एक अणमात्रके समय में उनकी तीनों दशा १-ममेवाजस्मा., . १.७॥२-साइं०, मा० १ पृ. ४८ । "That these Jains were the Digamlaras is dearly seen from their description."-SIJ. P. 48 ३-साईनै०, मा० १ पृ. ५०-५१। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जन-संय। सत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होनाती हैं। हरे चनेको और चीन के साथ मिलाकर मिठ ई बनाली गई परन्तु चनेका स्वभाव यहां नष्ट नहीं हुमा, यद्यपि उसका रूप बदल गया ! धर्मदव्य हर ठौर है और वह प्रत्येक वस्तुको व्यवस्थित रीतिमे हमेशा चलाने में कारण है। इसी सरह अधर्मद्रव्य प्रत्येक पदार्थको स्थिर रखने में कारण है और सर्व विनाशको रोकता है। काल क्षणी और साम्रोम भी है। आकाश मन पदार्थों को स्थान देता है । जीव एक शरीरमें प्रवेश करके पांच इन्द्रियों द्वारा चखता, संवता, छूना, सुनता और देखता है। एक मणु शरीरूप अथवा अन्यरूप ( अनेक परम णुओंस मिलकर) हो माता है। पुण्य और पापमई को श्रोतको रोकना, संचित कोका परिणाम भुगता देना और सर्व बन्धनों मुक्त होजाना मेक्षा है।" चैनसिद्धांउका यह रूप ठीक वैसा ही है जैसा कि भाज वह मिल मच्छा तो, यहां के विवेचन मे यह स्पष्ट है कि दक्षिण मार तमें दिगम्बर जैनधर्म ही प्राचीनकालसे वेताम्पर जैनी। प्रचलित था और उसकी मान्यता भी जनसमुदायमें विशेष थी। किन्तु प्रश्न यह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके जेनी दक्षिण भारतमें कब पहुंचे। इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये जैन संघके इन दोनों सम्पदायोंका उत्पत्तिकाल हमें स्मरण रखना चाहिए। यह सर्वमान्य है कि मैनसंपये • मेदकी जड़ मौर्यकालमें ही पड़ गई थी। उत्तरभारतमें रहे हुये संपमें शिक्गिचार प्रवेश कर गया था मौर उस संपके साधुनोने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] संलित जैन इनिहास। पहनना भी भारम्भ कर दिया । किन्तु जब प्राचीन मववाह संबके नम साधुगण उत्तम्मे भाये तो भाप में संघर्ष उपस्थित हुमा। समझौते के प्रयत्न हुये परन्तु समझौता न हुआ। दुष्कालमें शिका. चारको प्राप्त हुये साधुणोंने अपनी मान्यताओंका पोषण करना प्रार. म्भ कर दिया। शुरू में उन्होंने एक खंडवस्त्र ती मज्जा निवारण लिये धारण किया-वैसे बह रहे प्राचीन नमवेपमें ही। मथुगके पुगतत्वमें कह नामक एक मुनि अपने हाथपर एक खण्डबल स्टकाये हुये नम भेषको छुप ते एक मायागपट में दर्शन गये है। धीरे धरे जैसे समय बढ़ता गया यह मतभेद और मी सरोगया गौर आखिर इस्वी पहली शताब्दिमें जैन संघमें दिगम्बर बोर श्वेताम्बर मेद विस्कुल स्पष्ट होगये.' यही कारण है कि दक्षिण भारतके प्राचीन साहित्य और पुगतत्व में हमें श्वापर संपदायका बल्लेख नहीं मिलता है। कहा जाता है कि मौर्य नटू सम्पतिने दक्षिण भारतमें जैनधर्म का प्रचार कराया था; पान्तु यह नहीं कहा आसक्का कि उस धर्मका रूप क्या था ? हमारे ख्यालसे यह वही होना चाहिये मो उपरोक्त तामिल काव्य चित्रित किया गया है। यदि वह धर्म तामिल काव्योंमे बनिन धर्मसे भिन्न था, तो कहना होगा कि सम्पति द्वारा भेजे गये धो देशकोंको दक्षिणमें सफलता नहीं मिली थी। श्वेताम्बरीय शास्त्रोंसे पगट है कि काकाचार्य पठनके राजाके गुरु थे जिसका अर्थ यह होता है कि वह मान देशतक पहुंचे १-जैस्तु पृष्ठ २४-पंट नं. १७ । २-संह, भा॰ २खंड २ पृ. ७५-७८। . - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन संघ । थे। उपरांत ईस्वी पहली दूसरी शताब्दि श्वेताश्वरीयपादविसा चार्य महखेड़तक पहुंचे थे; किन्तु यह नहीं कहा जासकता कि वह अपना मत फैलाने में कहांतक सफल हुये थे। ईस्वी पांचवीं शता ब्दिके एक ताम्रपत्रके लेखमें पहले पहले श्वेताम्बर जैन संपका बल मिलता है। परन्तु इसके बाद फिर उनका कोई नहीं मिलता। : श्री भद्रबाहु श्रुतकेवीके बहुप्रसिद्ध संघके उपरांत शास्त्रति हमें दक्षिण पथके उस दिगम्बर जैनसंघका पता चलता है, जो श्रीधरसेनाचार्यजीके समय में महिमा नगरीमें संमि लित हुआ था । यह नगरी वर्तमाव सतारा जिलेका ' महिमानगढ़ ' नामक गांव प्रगट होता है। इस संघने परामर्श करके म.प्रदेशस्थ वेण्यात नगर से दो सकळकळा पारगामी एवं तीक्ष्णबुद्धिके धारक मुनि पुंगयोको श्रीधरसेनाचार्यजीके निफ्ट श्रुत अध्ययन के लिये मेजा था । श्रीधरसेनाचार्य उस समय सौराष्ट्र के प्रसिद्ध नगर गिरिनगर के निकट चंद्रगुफा में बिराजमान थे। उपरोक्त दोनों शिष्यों के नाम उन्होंने क्रमशः भूतबलि और पुष्पदंत खखे थे और उन्होंने उनको 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' नामक ग्रन्थ भी पढ़ा दिया था । उपरांत श्रीधरसेनाचार्यजीने उन दोनों बाबायको बिदा किया, जिन्होंने अंकलेश्वर (मरोंच जिला) में जाकर वर्षाकाळ व्यतीत किया । १- जेहि० भा० १४ पृ० २२४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com श्रीधरसेनाचार्य और सुत-उद्धार । १२३० ין Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. संक्षिाजन इतिहासः। गर्भायोगको समाप्त करके तथा जिनकालित को देख कर पुगताचार्य बनवास देशको चले गये और मृतबलिनी द्रामिल (द्राविड़) देशको प्रस्थान कर गये । इसके बाद पुष्पदंताचार्य ने जिनपालिनकोदी का देकर, वीस सूत्रों (विंशति परूरणात्मक सत्रों) की रचना कर और वे सूत्र जिनपालितको पढ़ाकर उसे भगवान भूतब लिके पास भेजा। उन्होंने जिनपालितार उन वीस सूत्रों को देखा और उसे अल्पायु बानकर श्रतक्षाक भावसे उन्होंने 'षट् खण्डागम' नामक ग्रंथकी रचना की।' हा समय श्री भूतबलि आचार्य संभवतः दक्षिण मदुरामें विराजमान थे।' ' इस तरह इस षट्कण्डागमश्रुनके मूल मंत्रकार भी बर्द्धमान महावीर, अनुतंत्रकार गौतमस्वामी और उपतंत्रकार भूतबलि-पुष्पदन्तादि भाचार्यों को समझना चाहिये ।' उन्होंने दक्षिण भारत के प्रधान नगरोंमें रहकर अतज्ञानकी रक्षा की थी । दक्षिणमे ही श्री गुणधराचार्यने ' कसाय पाहुड' नामक ग्रन्थमहार्णवका सार खींच कर प्रवचन वात्सल्यका परिचय दिया गा। ये सूत्रगाथायें भाचार्य-परम्परासे चलकर मार्यमंक्षु और नागइस्ती नामके भाचार्यों को प्राप्त हुई थी और उन दोनों आचायोसे उन गाथाओं का भले प्रकार भर्थ मनकर यतिषमाचार्यने उन पर पूर्णिसूत्रों की रचना की, जिनकी संख्या छह हजार श्लोक-परिमाण है। उपरोक्त दोनों सत्रग्रन्थों को लेकर ही उन पर 'धवला' और · जयपवला ' नामक टोकायें रची गई थीं। इसपकार दक्षिण मार. , -सिमा०, ३ किरण ४ पृष्ठ १२५-१२८ । २-तावतार कपा, पष्ठ २० व संजैइ. भा० २ खंड २ पृष्ठ ०२। २-सिमा, मा. ३ किरण १ पृष्ठ १३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका न-संघ (-१३९ के जैन संघ द्वारा ज्ञानका संरक्षण और प्रवर्तन हुआ था । ये ग्रन्थ अवतक दक्षिण भारतके मूढबिद्री नामक स्थानमें सुरक्षित हैं; परन्तु अब उनका थोड़ा बहुत प्रचार उत्तर भारत में भी होचला है । श्री इन्द्रनंदि कृत 'सागर' के आधारसे यह बात हम पहले घटना के समय संघ-भेद । (सिंह) और 1 होगया थे। ये विभाग श्री महू कि आचार्य द्वारा किये गये थे, परन्तु इनमें कोई सिद्धांतभेद नहीं था। यह मात्र संघ उपस्थाकी सुविधा के लिये मस्तित्वमें लाये गये प्रतीत होते हैं। शिमोगा जिलेके नगरतः ल्लुर में हूनच स्थान से प्राप्त शक सं० ९९९ के लिखे हुये कनडी शिलालेख ( नं० ३५) से भी स्पष्ट है कि भद्रबाहुस्वामी के बाद यहां कलिका का प्रवेश हुआ था और उसी समय गणभेद उत्पन्न हुआ था। अर्थात् जैनसंत्र कई उपसंघों या गणोंमें बंट गया था। यह इस समपंकी एक विशेष घटना थी । ही प्रगट कर चुके हैं कि इस जैनसंघ नंदि, देव, सेन, बीर भद्र नामक उपसंघों में विभक्त उपरान्त श्री भद्रबाहु स्वामीकी परम्पराये अनेकानेक लोकमान्य, ज्ञान-विज्ञान पारगामी और धर्मप्रभावक निर्मेय आचार्य हुये थे । उन मेंसे इस कालसे सम्बन्ध रखनेवाले. कतिपय माचार्यों का संक्षिप्त परिचय यहां पर दिया जाना मनुभ्युक्त मूल संघ । १ - सं०, मा० २ खंड २ पृष्ठ ७२-७३ | २ - ".... भद्रबाहुस्वामीगलिन्दशत्त कलिकाळवर्त्तनेयिं गणभेदं पुदिद्....” -रत्रा० जीवनी पृष्ठ १९३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] ... संतिम जैन तिहास। नहीं है । परन्तु साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि श्री महलि भाचार्य द्वारा उपयुक्त प्रकार उपसंघ स्थापना होनेपर निग्रंथ संघ उपरान्त संभवतः उन माचार्यश्री नाम अपेक्षा 'बलात्कार-- गण' के नामसे प्रसिद्ध हुआ था। कहा जाता है कि इसी समय गिरिनार पर्वत पर तीथकी वंदना पहले या पीछे करनेके पनको कर दिगम्बर और श्वेताम्बरोंमें बाद उपस्थित हुआ था। दिगबरोंने वहां पर स्थित सरस्वती देवी की मूर्तिके मुखसे करूया कर अपनी प्राचीनता और महत्ता स्थापित की थी। इसी कारण उनका संघ मूलसंघ सरस्वती गच्छ के नामसे प्रसिद्ध होगया मा।' इसके बाद मूल संघमें श्री कुंदकुंद नामके एक महान् भाचार्य १-१०, भा. २० पृ० ३४२। दिगम्बरामायकी इन मान्यताओंका नाधार केवळ मध्यकालीन 'पट्टालियां हैं। इसी कारण इन मान्यतामोंको पूर्णतया प्रमाणिक मानना कठिन है। परन्तु साथ ही यह भी एक पति माहसका काम होगा, पदि हम इनको सर्वथा अविश्वसनीय कहाँ, क्योंकि इनमें जो प्राकृत गाथायें दी गई है वह इनकी मान्यताओं की प्राचीन पुष्ट करती हैं। यही कारण है कि हॉन सा ने भी इन पहालियोंको सर्वथा अस्वीकृत नहीं किया था। यदि थोड़ी देर के लिए हम इन पट्टायलियोकी मान्यतामोंको कपोकपाल्पत बोषित करदें, तो फिर वह कौनसे प्रमाण और सावन होंगे जिनके माधारसे हम 'मसंघ, सरस्वतीगन, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दान्वय' मादि सम्बन्धी विवरण उपस्थित कर सकेंगे ! इसलिये हमारे विचारसे इन पहावाव्योंको हमें उस समय तक अवश्य मान्य करना चाहिये जबतक कि उनका वर्णन अन्य कार बन्यथा सिद्ध न होजाय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-संघ। [१९५६ हुये थे। उन्होंने संघर्ष नवमीबन डाला था। इसीलिये मूल-संघले साधुगण अपनेको 'कुन्दकुन्दान्वयी' घोषित करने में गौरवका गनु. भव माज पर्यंत करते भाये हैं। यह बात भगवान कुन्दकवस्वामीके व्यक्तित्वकी महानताको प्रगट करनेके लिये पर्याप्त है। ऐसे माचार्यप्रवरका संक्षिप्त परिचय पाठकोंको अवश्य रुचिकर होगा-आइवे, उसकी एक झांकी यहां ले देखें। मात्र जेन-संघमें अंतिम तीर्थंकर भ. महावीर बर्द्धमान और गणधर गौतमस्वामीके उपरांत भगवान भ० कुन्दकुन्दाचार्य। कुन्दकुन्दको ही स्मरण करनेकी परि-- पाटी प्रचलित है। जिससे कुंदकुंदस्वामीके आसनकी उच्चता स्पष्ट होती हैं। शिलालेखोंमें उनका नाम कोण्डकुंद लिखा मिलता है, जिसका उद्गम द्राविड़ भाषासे है। उसीका श्रुतिमधुररूप संस्कृत साहित्यमें कुंदकुंद प्रचलित है।' कहते हैं कि इन भाचार्यप्रवरका यथार्थ नाम पद्मनंदि था, परन्तु वह कुंदकुंद, वक्रग्रीव, एकाचार्य और गृद्धपिच्छ नामोंसे भी प्रसिद्ध थे। वह कुंडकुंद नामक स्थानके अधिवासी थे, इसी कारण वह १-"मंगलं भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यः, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥" २-जैन शिलालेखसंग्रह (मा० अं०) भूमिका देखो। ३-एका० मा० २ नं० ६४, ६६, इंऐ० मा० २३ पृष्ठ १२६ । वक्रग्रीव और गृपिच्छ नामके दूसरे भाचार्य मिलते हैं । इसलिये कुन्दकुन्दस्वामीके ये दोनों नाम विद्वानों द्वारा अस्वीकृत है। इसी तरह उनका विदेह-गमन भी संदिग्ध दृष्टिसे देखा जाता है।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] सहित जैन इतिहास। . कोण्डकुंदाचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए थे। 'बोमाभूत' में कुन्दकुन्दस्वामीने अपनेको श्री भद्रबाहुस्वामीका शिव्य लिखा है।' 'पुण्याश्रा कथा' ग्रंथसे स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के पिथनाडू प्रांतमें कुरुमरय नामक गांव था, जिसमें करमुण्ड नामक एक मालदार सेट रहता था। उसकी पत्नी श्रीमती थी। उन्हींके कोखसे भगवान कोण्ड कुन्दका जन्म हुभा था । वह जन्मसे अतिशय क्षयोपशमको लिये हुये था । और युवा होते होते वह एक प्रकाण्ड पण्डित होगये थे। कोण्डकुन्दका गृहस्थ जीवन कैसा रहा यह कुछ ज्ञात नहीं; परन्तु -मुनिदीक्षा लेनेपर वह पद्मनन्दि नामसे प्रसिद्ध हुये थे-भाचार्य रूपमें यही उनका यथार्थ नाम था । पद्मनन्दि स्वामी महान् ज्ञानवान थे-उस समय उनकी समकोटिका कोई भी विद्वान न था। विदेहस्थ श्रीमंधरस्वामीके समवशरणमें उनको सर्वश्रेष्ठ साधु घोषित किया गया था और वह स्वयं विदेह देशको श्रीमंधरस्वामीकी वंदना करके ज्ञान प्राप्त करने गये थे। शिवकुमार नामक कोई नृप उनके शिष्य थे। उन्होंने भारतमें जैन धर्मका खूब ही उद्योत किया था। उनका समय ईस्वी प्रथम शताब्दिके लगभग था । द्राविड संघसे भी उनका सम्बन्ध था। माखिर वह दक्षिणके ही नर स्न थे। कहते हैं कि उन्होंने ८४ पाहुड़ ग्रंथों की रचना की थी; परन्तु विशेषके लिये प्रो. ए० एन० उपाध्ये द्वारा सम्पादित "प्रवचनसार" की अंग्रेजी भूमिका तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी उसकी समालोचना (जैसिभा० मा० ३ पृ० ५३) देखना चाहिए । १-प्रो० चक्रवर्तीने इन्हें पल्लवंशके शिवस्कन्धकुमार नृप बताया है। -प्रसा० भूमिका पृ० २०। - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारता जैन संध। . उस समय उनके रचे हुए निम्नलिखित ग्रंथ मिस्ते है (१) दशभक्ति, (२) दंसणपाहुद, (३) चारितपाहुइ. (१) सतपाड़, (५) वोषपाहुड़, (६) मावराहुड़. (७) मेखपाहुर (6) लिङ्ग'हुड़, (९) शीलपाहु (१०) ग्यणसार, (११) बारम मणुअक्सा, (१२) नियमसार, (१३, पशासिकायसार, (११) समकसार, (१५) प्रवचनसार। भी कुन्दकुन्दाचार्य के उपरोक्त सब ही अन्य प्राकृत भाषा, रचे गये थे और दिगम्बर जैन संपके लिये कुरल। एक अमुल्य निधि हैं। किन्तु इन आचार्यने तामिलभाषामें भी ग्रन्थरचना की थी, किन्तु . खेद है कि इस समय उनकी कोई भी तामिल-रचना उपलब्ध नहीं है। अलबत्ता तामिलके अपूर्व नीतिग्रंथ 'कुरल' के विषयमें कहा जाता है कि वह श्री कुन्कुन्दाचार्यकी ही रचना है। तामिल लोग इस ग्रन्थको अपना 'वेद' मानते हैं और वह है भी सर्वमान्य । शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध-सब ही उसकी शिक्षासे प्रभावित हुये थे और सब ही उसे अपना पवित्र ग्रन्थ प्रगट करते हैं;परन्तु विद्वानोंने गहरी शोधके पश्चात् उसे श्री कुन्दकुन्दस्वामीकी ही रचना ठहराया है।' . जैन ग्रन्थ 'नीलकेसी' के टीकाकार उसे जैन ग्रंथ ही प्रगट करते हैं।' उसपर 'कुरल में निम्नलिखित ऐसी बातें हैं जो उसे सर्वथा १-साइंजै०, मा०१ पृ०४०-४३ | "Kural was certainly composed by a Jain.”—Prof. M. S. Ramaswami lyengar, SIJ., I 89. २- नीराकेसीटोका' में उसे 'इमोत्तु' अर्थात् 'हमारा वेद' कहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ - Ji संक्षिप्त जैन इतिहास | एक जैनाचार्य की ही रचना प्रमाणित करते हैं: (१) कुकरों (परिच्छेद १) पहले ही मंगळस्तुति रूपमें '' वर्गका स्मरण करते हुये उसे शब्दलोकका मूत्र स्थान और मादिमको लोकोंको मूल स्रोत कहा है, जो जैन मान्यता के अनुकूल है। बैन शास्त्रों 'म' वर्ण हा शाब्दिक और सांकेतिक महत्व खूब ही प्रतिपादित किया गया है 'ज्ञानार्णव' में 'म' वर्णको ५०० बार अपना एक उपवास के तुल्य बताया है । ( बृजेश० मा० १ पृ० १-२ ) (२) पहले परिच्छेद में उपरान्त एक सर्वज्ञ परमेश्वर जिसने कमलों पर गमन किया (मकर्मिसइये गिनान) और जो भादि पुरुष है। तथा जो न किसीसे प्रेम करता है और न वृणा एवं जो जितेन्द्रिय है, उसकी वंदना करने का विधान है। जैन ग्रन्थोंमें आप्तके जो लक्षण बताये गये हैं उनमें उसे सर्वज्ञ - रागद्वेष रहित और वीतराग खास रीति से बताया गया है।' इस कल्पकालमें आदितीर्थङ्कर, आदिनाथ या ऋषभदेव मुख्य भाप्त हैं; इसी लिये शास्त्रोंमें उन्हें यादि पुरुष भी कहा गया है।' 'कुल' के रचयिता भी उन्हींका स्मरण करते हैं । वह सर्वज्ञ तीर्थकर रूपमें जब विहार करते थे तब देवेंद्र उनके पग तले कमलोंकी रचना करता जाता था । और वह उसपर गमन करते थे । यह विशेषता जैन तीर्थङ्कर की खास है । 'कुरल' के कर्त्ता उसका उल्लेख करके अपना मत स्पष्ट कर देते हैं । (३) आगे इसी परिच्छेदमें ' कुरल' के रचयिता अर्हन्त या १-Divinity in Jainism देखो । २ - जिनसहस्र नाम देखो। ३- मा० पर्व २२-२३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका चैन संघों [१५ तार भगवान का स्मरण करके सिद्ध परमात्मा स्मरण करते है और उन्हें पटगुणोंसेपभिभूत परमब्रम (बेन्ग-नापन् । बताते है। जैन यो परमब्रम सिद्ध परमात्माको निमलिखित मागुणोंसे पुरु बनवाया गया :-() डायिक सम्पत्य, (२) अनंतदर्श (1) अगन्तवान, (५.) अनन्तवीर्य, (५) सहमता, (६) बगाइवसा, (७) हलपुत्व (4) Marara मात्र परमात्मा हमाठ मुमबासी मि। ५) तीसरे परिच्छेदमें संसारत्यागी पुरुषों की महिमाका वर्णन है। उसमें उनको सर्वस्वका त्यागी और पांचों इन्द्रियोको पाये रखकर नासिक जीवन व्यतीत करनेवाला लिखा है। इन्द्रियलिय क्रमशः बन्द, सर्श, रूप, रस और गन्ध बताये हैं। साबी .साधु प्रकृति पुरुषोंहीको ब्रामण कहा है। जैनधर्ममें साधु सर्वस्वलागी, इन्द्रियनिरोपी तपस्वी हा गया है। इन्द्रियों की संख्या और उनके विषय मी जेन मान्यतानुसार हैं। खास बात यह है कि ऐसा साधु जैन इष्टिसे ए सचा ब्रामण है । "कुरल" में यही प्रगट किया गया है। (१) चौथे परिच्छेदमें धर्मका फल मोक्ष और धर्म अपने मनको पवित्र रखने में बताया है। उसमे भागामी जन्मों का मार्ग बन्द होजाता है। 'भावगहुड' में श्री कुन्दकुन्दाव र्यने इसी प्रकार मन शुद्धिका विषान किया है। जैन सिद्धांतमें पुण्य-पापका माप मनुष्यके भावोंसे ही किया जाता है। १-, मा१ ० १४ । २ श• मा० १ पृ.१७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] संक्षिप्त न इतिहासा।" ६) पांव पारच्छे में गृहस्थ जीवन के लिये देवपूजा, तिकि सरकार बन्धु-बांधवों की सहा ता और मामोति करना माइक बताया है । भगवत् कुंद्रकुंवामीने भी देवपूना मना और दान देना तथा सामोजति परन एक गृहस्थ के लिये मुख्य कर्म बनाये हैं। ... (७) नवे परिच्छेदमें अतिथिको भोजन देने और मेहमानदारीका विधान है। जैन शाम्रो गृहस्थ के लिये एक मकन 'मतिषि संविभाग' व्रते है। (2) उनीसवें परिच्छेदके अंतिम पदमें 'कु' मनुष्यको निज दोषोंकी मालोचना करनेका उपदेश देता है। जैनधर्ममें प्रत्येक गृहस्थके लिये प्रतिक्रमण-दोषों के लिये आलोचनादि करना लाजमी है। (९) बीसवे परिच्छेदये छायाकी तरह पाप-कोको मनुष्यके साथ कंगा रहते और सर्वस्व नाश करते बताया है, जो सर्वथा जैन मान्यताके अनुकुल है। मरने पर भी जन्मान्तरों तक पाप कर्म मृतामासे लिप्त रहकर उसको कष्टका कारण बनते हैं, यह जैन मान्यता सर्वविदित है। (१०) पचीसवें परिच्छेदमें जैन शास्त्रोंके सदृश ही निरामिष भोजनका उपदेश है। यदि कुरलका रचयिता जैन न होकर वैदिक ब्राह्मण अथवा बौद्ध होता तो वह इस प्रकार सर्वथा मांस-मदिरा त्याग करनेका उपदेश नहीं दे सकता था; क्योंकि उन लोगोंमें इनका सर्वचा निषेध नहीं है। १-तत्त्वाधिगम सूत्र । २-भम म०, पृ०.१३-३७ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतको जन-संघ। [.0 (११) तीसवै परिच्छेदमें हिंसाको सब धर्नामें श्रष्ट कहा। बार उसके बाद सत्यको बताया है। जैन दर्शनमें भी मामाकी यही विशेषता है। इसी परिच्छेदमें बलिंहिंसाका भी निषेध है। (१२) बत्तीसवे परिच्छेद त्यागका उपदेश देते हुये प्रती. को अपने पास कुछ भी न रखनेका विधान है-उसके लिए तो शरीर मी मनावश्यक है। मैनधर्म भी तो यही कहता है। (१३) मस्सीवें परिच्छेदमें कहा गया है कि उच्च कुन बन्म लेनेसे ही कोई उच्च सज्जन नहीं होजाता और जन्मसे नीष होनेपर भी जो नीच नहीं है वह नीच नहीं होसकते । जैन शास्रोम पद-पद पर यही उपदेश भरा मिलता है। भगवत् कुन्दकुन्दस्वामीने भी इसी बातका उपदेश दिया है।' यह एवं ऐसी ही अन्य बातें इस बातको प्रमाणित करती हैं कि 'कुरल' के रचयिता एक जैनाचार्य थे, जिन्हें विद्वज्जन श्री . कुन्दकुन्दाचार्य बताते हैं । इस प्रकार भगवत् कुन्दकुन्दके पवित्र बीवनकी रूपरेखा है। उनके पश्चात् जैन संघमें भगवान् उमास्वातिका विशाल मौर विशुद्ध अस्तित्व मिलता है, भ० उमास्वाति। जिस प्रकार भगवान् कुन्दकुन्दकी __ मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों १-पतितोद्धारक जैनधर्म देखो। २-णा देहो बंदिजाणवि य कुलों णवि यमाईसजुत्तीर को दिय गुणहीणो ण ह सपणा णेय सावलो हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar./ २४८]. संक्षित र इतिहास । सबदायों लोगोंमें थी, उसी प्रकार: भगवत् उमाशाति भी दोनों लप्रदायों द्वारा मान्य और पुरुष थे। दिगम्बर जैन साहित्यो. में भगवान् कुन कुरका वंशन प्रगट किया गया है और उनका HTRI नाम प्रदच्छिाचार्य भी लिखा है। किन्तु उनके गृहस. जीवन के विषय में विगम्पर शाख मौन है। हां, श्वेतांबरीव 'वली , बिगब स्त्र भाग्य' ने उमास्वाति महाराजके विषयमें जो प्रशस्ति मिलती है, उससे पता चलता है कि उनका जन्म न्ययोषिका नामक स्थानमें हुमा था और उनके पिता स्पाति भौर मासा वात्सी थीं। उनका गोत्र कौमीषणि था। उनके दीक्षागुरु श्रमण घोषनंदि और विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल नामक थे। उन्होंने कुसुमपुर नामक स्थान में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ' तत्वार्थाधिगम सूत्र ' रचा था। दोनों ही संप्रदायोंमें उमास्वातिको 'वाचक' पदवीसे अलंकृत किया गया है। श्वेतांबरों की मान्यता है कि उन्होंने पांचसौ ग्रंथ रचे थे और १-रश्रा• स्वामी समन्तमद पृष्ठ १४४ एवं 'लोकवार्तिक' का. मित कथन "एतेन गृलपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण ।.. व्यभिचारिता निरस्ता कृतसूत्रे ॥" म. कुंदकंदका भी एक नाम गृपिच्छाचार्य था । शायद यही कारण है कि श्रवणबेळगोळके किन्हीं शिलालेखोंमें भ० कुंदकुंद और भ० उमास्वातिको एक ही व्यक्ति गन्ती लिख दिया है। (इका. भा० २ पृ० १६)। २-अनेकान्त, वर्ष १ पृष्ठ ३८७ ।। ३-पूर्व पृ. ३९४-३९५ एवं " जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय "का नि कोक:Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जन-संघ । r 9 वह इस समय तत्व र्थाधिगम सूत्र के अतिरिक्त जम्बूद्वीप समास प्रकरण, भावक प्रज्ञप्ति, क्षेत्रविचार, प्रशमरति और पूजा प्रकरण' नामक ग्रंथोंको उनकी रचना बताते हैं, परन्तु विद्वज्जन केवळ 'प्रशम अति' को म० उमास्वाति की रचना होना शक्य समझते हैं। इसमें शक नहीं कि म० उमास्वाति अपने समय के अद्वितीय विद्वान थे । उन्होंने जैन आगम में प्रसिद्ध सैद्धांतिक एवं खगोल भूगोल आदि सब ही विषयोंका संक्षिप्त संग्रह अपने ' तत्कार्थाधिगम सूत्र में कर • दिया है, यही कारण है कि उनका यह ग्रन्थराज आज " जैन बाइबिल " के नाम से प्रसिद्ध है। शायद संस्कृत भाषा में जैनों की बड़ी सबसे पहली उल्लेखनीय रचना है। इसकी उत्पत्तिके विषयमें कहा जाता है कि सौराष्ट्र के गिरिनगर (जुनागढ़) नामक स्थान में मासक गव्य द्वित्र कुलोत्पन्न, शेतांवरभक्त एक ' विद्धय्य' नामका विद्वन आवक रहता था । उसने ' दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' बह एक सूत्र रचा और उसे पाटियेपर लिख छोड़ा। एक समय चर्या - श्री गृद्ध पच्छाचार्य उमास्वाति नाम धारक आचार्य वहां जाये । उन्होंने वह सूत्र देखकर उसमें 'सम्यकू' शब्द जोड़ दिया । 'सिद्ध' जब यह देखा तो वह उन आचार्यके पीछे भागा और उन्हें ड कर उनसे उस 'मोक्षशास्त्र' को रचनेके लिये प्रार्थी हुआ । आचार्य "कवदन्तो भूतबलि जिनचंद्रो मुनिः पुनः । कुंदकुंद मुनीन्द्रोमा स्वातिवाचकसंजितौ ॥” १- जमेकान्त, वर्ष १ पृ० २-' तत्वर ब्रदीपिका " • ( अनेकान्त पृ० ४०६ फुटनोट ) ३९४ । - अनेकान्त वर्ष १ ० २०० १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महागजन उसकी यह प्रार्थना स्वीकार की और तत्वाधिगम सूत्र' को रच दिया। · सिद्धय्य ' के निमित्तसे इस ग्रंथानके रचे जाने का लव संभवतः सर्वार्थसिदि' टीक में भी है।' निस्सग्देह सिद्धय्यक निमित्तमे रचा हुका यह प्रयाज जैनसिद्धांतकी भमुल्य निधि है। यही कारण है कि उपरान्त जैनाचार्यों ने म.. उमास्वातिका माण बड़े ही सम्माननीय रौतिस किया और उन्हें 'श्रुतवाल देशीय ' एवं गुणगंभीर' भी लिखा।' श्रुतसागरजीने धनका श्रुतिमधुर नाम उमास्वामी रख दिया और तबसे दिगम्बरोंमें सीका प्रचार होगया; परन्तु प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथोमें उनका माम उमास्वाति मिलता है। म० उमास्वाति संभवतः श्री कुन्दक म्दाचार्य के प्रशिष्य थे। इसलिये एवं उनकी सैद्धांतिक विवेचनाशैकीसे, जिसका साम्य 'योगसूत्र' मादिसे है, स्पष्ट है कि वह ईस्वी पहली शतानि विद्व न थे। ... समयानुकूल भ० उमास्वाति के पश्चात उल्लेखनीय भाचार्य यो समंतभद्रस्वामी हैं। दिगम्बर विद्वानों समतभद्रस्वामा । भी समन्तभद्र- लिये वह स्तवनार्य और प्रमाणभूत है। स्वामी। परन्तु 'श्वेताम्बर विद नोंने भी उनकी प्रमाणिस्ताको खुके दिलसे स्वीकार १-अनेकांत, वर्ष १ पृ० १९७ । २-तत्वार्थसत्रकामुमास्वातिमुनीश्वरं । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमरिरम् ॥ अनेकान्त पृ० ३९५ ३-भनेकान्त, पृ० २६९ । ४-पूर्व० पृष्ठ ३८९-३९२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण पातमा जैन मंघ। ५१ किया है।' श्री शु.चंदाचार्यजीन उन्ह · भरतभूषण' कहा है। श्री समंदा व र्यजी गृहस्थ जीवन के विषय में कहा जाता है कि बहुतकरके उन्होंने दक्षिण भारतके कमवंशको अपने जन्मसे सुशोमित किया था। यह विदित नहीं कि उनके पिता और माताके नाम क्या थे; परंतु यह ज्ञात है कि उनके पिता फणिमण्डगंतर्गत उरंगपुर के क्षत्री नृा थे ! स्वामी समंतभद्रका बाल्यकाल जैनधर्म केंद्र स्थान हप उगपु में व्यतीत हुआ था। उस समय वह शांतिवकि नामसे पख्य त् थे। उनोंने गृयश्र में प्रवेश किया या नहीं यह प्रगट नहीं, किन्तु यह स्पष्ट है कि वह बाल्यकालसे ही जैनधर्म और जिनेन्द्र देव के अनन्य भक्त थे । उन्होंने अाने आपको धर्मार्थ आण कर दिया था। कांचीपुर या उसके सनिकट की उन्होंने बिनदीक्षा प्ररण की थी और वही (कांजीम् ) उनके धर्मकार्यों का वेन्द्र था। "राजावली थे' में उनका वहां भनेक बार पहुंचना लिखा है। उन्होंने स्वयं कहा है कि "मैं कांचीका नम माधु इं" (कांच्या नमाटोsi ) पान्तु उनके गुरुकुलका परिचय प्रा नहीं है । यह स्पष्ट है कि वह मूलसंत्र प्रधान भानार्य थे। अभाग्यवश उनको अपने साधु भीवनमें स्माधि' नामक दुस्सह रोग होगया था। वह मनों भोजन खाजाने थे, मगर तृप्ति नहीं रोती थी। इस व्याधिको शमन करने के लिए उन्होंने एक वैष्णव सन्यासीका भेष धारण कर लिया गा। कांचीये उस समय शिवकोटि नामक गजा राज्य करता था मौर उसका 'भीमलि' नामक शिमलय था। समन्तभद्रजी इसी शिवालय पहुंचे और उन्होंने राजाको अपना श्रद्धाल बना लिया। सबा मनका प्रसाद शिवार्पणके लिये पाया। समन्तभदबीने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | सानन्द भवनी जठगमि शान्त की और मंदिर के बाहर मा राजाको अशीर्वाद दिया। राजा प्रसन्न हुआ और प्रतिदिन सवा मनका प्रसाद शिवार्पण के लिये भेजने लगा। समन्तभद्रजी उसके द्वारा अग्नी व्याधिको शमन करने रहे; किन्तु जब व्याधिका जोर कम हुआ तो उम प्रपादमें मे कुछ बचने लगा | उपर कुछ लोग उनके विरुद्ध हो रहे थे उन्होंने पता लगाकर राज से शिकायत कर दी कि महाराज, यह साधु शिवजीको कुछ भी प्रसाद अर्पण नहीं करता, बल्कि सब कुछ स्वयं स्वा जाता है और शिव पर पैर पसार कर सोता है। राजाके बिस्मय और रोषका ठिकाना न रहा । उसने शिवालय माकर समेत मद्रजीसे यह आग्रह किया कि वह प्रसाद शिवजीको उनके सामने खिला दें और शिवलिङ्गको प्रणाम भी करें। 1 समंत जीके लिये यह परीक्षाका समय था; क्योंकि उन्होंने आपत्तिकाल में बैष्णवस धुक भेष अवश्य धारण किया था परन्तु हृदय में यह हड़ सम्यक्त्तवी थे । उनके रोम-रोम में जैनत्व समाया हुआ था आखि' उन्होंने दृढतापूर्वक राजाकी बाज्ञाको शिरोधार्य किया । घारूपमें उन्होंने 'स्वयंभू'तो' को रचना और उच्चारण करना आरम्भ किया। जिस समय वह चंद्रप्रभ भगवानका स्तोत्र पढ़ रहे थे, उसी समय शिवलिङ्गमेंसे चन्द्रप्रमकी मूर्ति प्रगट हुई। इस अद्भुत मटनाको देखकर सब ही लोग आश्चर्यचकित होगये । गजा शिवकोटि - अपने छोटे भाई शिवायन सहित उनके चरणोंमें गिर पड़ा और जैनधर्म में दीक्षित हुआ। उसके साथ उसकी प्रजाका बहुभाग भी बैनी होगया था । जब समंतभद्रजीका रोग शांत होगया था। उन्होंने अपने जीके पास जाकर प्रायश्वितपूर्वक पुनः दीक्षा ग्रहण की गौर वह धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका मैन- संघ । प्रचार एवं लोकहित कार्यमें निरत होगए। उन्होंने घोर तप तफा तथा ज्ञान ध्यान द्वारा अपार शक्तिको संचय किया था । फलतः यह । बाचार्य हुये और लोग उन्हें जिनशासनका प्रणेता कहने लगे थे । जैन सिद्धांत के मर्मज्ञ होने के सिवाय वह तर्क, व्याकरण, छंद, नळंकार, काव्य, कोषादि ग्रंथों में पूर्ण निष्णात थे। वह संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, तामिक मादि भाषाओंके विद्वन् थे, परन्तु उनके द्वारा दक्षिण भारत संस्कृत भाषाको जो प्रोत्तेजन और प्रोत्साह मिला था वह पूर्व था। उनकी यादशक्ति अप्रतिहत भी। उन्होंने कई बार नंगे पैरों और नंगे बदन देशके इस छोर से उस छोरतक घूमकर मिथ्यावादियोंका गर्व खंडित किया था। वह महान योगी - ये मौर उनको 'चारण ऋद्धि' प्राप्त थी, जिसके कारण वह अन्य बीवोंको बाधा पहुंचाये बिना ही सैकड़ों कोसोंकी यात्रा श्रीमताने कर लेते थे । एकवार वह करहाटक नगर (जिला सतारा) में पहुंचे ये और वहांके राजापर अपने बाद प्रयोजनको प्रध्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि: 1 'पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताड़िता, पचास्माल सिन्धुटकविषये कांचीपुरीवैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, पादार्थी विचराम्यहं नरबते शार्दूलविक्रीडितं ॥ इससे प्रकट है कि करहाटक पहुंचने से पहले समंतभद्रने नि देशों तथा नगरोंमें बादके किये बिहार किया था उनमें पाटलिपुत्र मपर, मालय, सिंधु, ठक (पंजाब) देश, कांचीपुर और वैदिक बे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] : संक्षिप्त जन इतिहास | प्रधान देश तथा जनपद थे। इनमें उन्होंने वाद करके धर्मप्रभावनाका प्रचार किया था। अपनी लोकहितकारी बाबूगिरा द्वारा उन्होंने प्राणीमात्रका हित साधा था । केवळ वाणी से ही नहीं बल्कि अपनी केखनी द्वारा भी उन्होंने अपनी हो । हितैषिणी वृत्तिका परिचय दिया है। उनकी निम्नलिखित अपूर्व रचनायें बताई जाती हैं: ! १- आप्तमीमांसा, २- युक्तयनुशासन, ३- स्वयंभू स्तोत्र, 8-जिनस्तुति शतक, ५- रत्नकांड उपासकाध्ययन, ६- जीवसिद्धि, ७ तत्वानुशासन, ८- प्रकृत व्याकरण, ९ प्रमाणपदार्थ, १०-कर्मप्राभूत टीका और ११ - गन्धः स्तिमहाभाष्य | खेद है कि स्वामी समंतभद्रजीके अंतिम जीवनका ठीक पता नहीं चलता । पट्टावलियोंसे उनका अस्तित्व समय सन् १३८३० प्रगट होता है। मम० श्री नरसिंहाचार्यजीने भी उन्हें ईम्बी दुसरी शताब्दिका विद्वान इस अपेक्षा बताया है कि श्रवणबेळगोळकी मल्लि पेणप्रशसिमें उनका उल्लेख गङ्गराज्य संस्थापक सिंहनंदि भाचार्य से पहले हुआ है, जिनका समय ई० दुमरी शताब्दिका अंतिम भाग है। इसी परसे स्वामी समंतभद्रनीकी जन्म और निषत तिथियोंका अंदाज लगाया जासकता है । इस प्रकार तत्कालीन दक्षिण भारतीय जैन संघ के यह चमकते हुये रन थे। इनके अतिरिक्त श्री पुष्पदन्त, मूनबलि, माघनन्दि बादि नाचार्य भी उल्लेखनीय हैं; परन्तु उनके विषय में कुछ अधिक परिचय प्राप्त नहीं है । 6" स्वामी १- विशेष के लिये श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार " और " वीर " वर्ष ६ का " समन्तभद्दातु " देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा० कामताप्रसादजी कृत ऐतिहासिक ग्रन्थभगवान महावीर। यह ग्रन्थ अनेक जैनाचार्य तथा कितने ही मानतीय और पाश्चात्य ईतिहासज्ञ विद्वानोंके २३ ग्रन्थों की सहायतासे लिखा गया है। इसमें वीर भगवान के वितृन जीवनके अतिरिक्त भगवान रुषमदेव, नेमिनाथ और पार्श्वनाथका भी वर्णन है। अंतमें बुद्ध, महावीर एवं महावीरकी सर्वज्ञताके प्रमाण भी दिये गये हैं। पृ० २८० पक्की जिल्द २) कच्ची जिल्द १॥॥) भगवान पार्श्वनाथ । : इसमें भगवान् पार्थनाथका विस्तृत जीवन ऐतिहासिक रीतिसे अतीव खोजपूर्ण लिखा गया है। तथा यह सिद्ध किया है कि म.. पार्श्वनाथ ऐतिहासिक थे, वे जैन धर्मके स्थापक नहीं थे। जैन धर्म की प्राचीनता, पुरात्वकी साक्षी, बद्ध ग्रन्थ, वेद, हिन्दुपुराणा, रामायण, महाभारत, भौर उपनिषदोंमें जैनधर्मका उल्लेख है। इस अन्धका बेन अजेनों में प्रचार करना योग्य है। पृ० ५०० + गुल २॥) मैनेजर, दिगम्बर जैनपुस्तकालय-मरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा० कामताप्रसादजी कृत भ० महावीर और म० बुद्ध । इसमें भ० महावीर और महात्मा बुद्धका तुलनात्मक पद्धतिसे विवेचन किया गया है । बीर और बुद्धके भेदका ज्ञान प्राप्त करना हो तो इस ग्रन्थको अवश्य पढ़िये । १०२७२ मु० १ ॥ वीर पाठावलि । 9 इसमें भ० रुषभदेव, सम्राट् भरत, राम-लक्ष्मण, कृष्ण, नेमिनाथ, म० पार्श्वनाथ भ० महावीर, सम्राट् चंद्रगुप्त, वीर संघकी 'विदुषियां म० कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, स्म्राट् खारवेल, स्वामी वतमद्र सिद्धांत - चक्रवर्ति श्री नेमिचन्द्राचार्य, भट्टाकलंक देव नादिके २० ऐतिहासिक चरित्र वर्णित किये गये हैं । पृ० १२५ सूक्ष्म |||) व विद्यार्थियोंको ii) →* पंच-रत्न । * इसमें महाराज श्रेणिक, सम्राट् महानंद. कुरूंबाबीश्वर, नृप 'बिज्जलदेव और सेनापति बेचप्प ऐसे पांच चरित्र उपन्यास दसे 1 year i=) 13 नव-रत्न । -- इसमें अरिष्टनेमि, चन्द्रगुप्त. खारवेल, चामुण्डराब, मार सिंह, ..गंगराज, हुल, साबिपव्वे और सती रानी ऐसे ९ ऐतिहासिक चरित्र | मूल्य 1 ) मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय - सुरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભાવનગ૨ बा० कामताप्रसादजीकृत ग्रन्थ। IMIRE hehre pe भ० महावीर भ० पाश्वनाथ 2 // ) भ० महावीर व म० बुद्ध 1) सं० जैन इतिहास प्र० भाग 2) " दु०प्र०खंड ) , ,,,द्वि०, 1%) ती०प्र०, 1) वीर पाठावलि पञ्च-रत्न नव-वन्न पतितोद्धारक जैनधर्म संत्य मार्ग विशाल जैन संघ दिगम्बरत्व व दि० मुनि मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत। Shree Sudharmaswami-cyambhandar-Umara.Strate www.umaral arcom