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________________ अन्य तीर्थकर और नारायण तृपृष्ट । [ ३१ दूसरे तीर्थकर भ० अजितनाथ के समयमें सगर चक्रवर्ती हुये थे। उन्होंने षट्खंड दिग्विजय किये थे, जिसका अर्थ यह होता है कि उन्होंने दक्षिणभारतको भी विजय किया था। उनके पश्चात् काळानुसार मघवा, सनत्कुमार, सुभौम, पद्म, हरिषेण यदि चक्रवर्ती हुये थे, जिन्होंने भी अपनी दिग्विजयमें दक्षिणभारत पर अपनी विजय- वैजयन्ती फहराई थी। म० श्रेयांसनाथके समय में दक्षिणापथवर्ती पोदनपुरके राजा प्रजापति थे । उनकी महारानीका नाम भगवती था । उनके एक भाग्यशाली पुत्र जन्मा, जिसका नाम उन्होंने तृपृष्ट रक्खा । यही तृपृष्ट जैनशास्त्रों में पहले नारायण कहे गये हैं । तृष्पृष्टकी विमाता से उत्पन्न विजय नामक भाई पहले बलदेव थे । तृपृष्ट और विजयमें परस्पर बहुत ही प्रेम था । नारावण तृष्टष्टने प्रतिनारायण अश्वग्रीवको युद्धमें हराकर दक्षिण भारतको अपने आधीन किया था । तृपृष्टकी पट्टरानी स्वयंप्रभा थी और उसके ज्येष्ठ पुत्रका नाम श्रीविजय था । श्रीविजयका विवाह ताराके साथ हुआ था । तृपृष्टके बाद पोदनपुर के राजा श्री विजय हुये थे। उनके भाई विजयभद्र युवराज थे। ताराको एक विद्याधर हर लेगया था । श्रीविजयने युद्ध करके ताराको उस विद्याधर से वापस लिया था । राजा प्रजापति और बलदेव विजयने त्रित धारण कर कर्मो का नाश किया था; परन्तु तृपृष्ट बहु परियही होने के कारण नरकका पात्र बना था। तो भी इसमें शक नहीं कि दक्षिण भारतका वह दूसरा प्रसिद्ध और बलवान राजा था। १- पर्व ५७ व पर्व ६२ देखो। ૧ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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