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________________ १५४ ] : संक्षिप्त जन इतिहास | प्रधान देश तथा जनपद थे। इनमें उन्होंने वाद करके धर्मप्रभावनाका प्रचार किया था। अपनी लोकहितकारी बाबूगिरा द्वारा उन्होंने प्राणीमात्रका हित साधा था । केवळ वाणी से ही नहीं बल्कि अपनी केखनी द्वारा भी उन्होंने अपनी हो । हितैषिणी वृत्तिका परिचय दिया है। उनकी निम्नलिखित अपूर्व रचनायें बताई जाती हैं: ! १- आप्तमीमांसा, २- युक्तयनुशासन, ३- स्वयंभू स्तोत्र, 8-जिनस्तुति शतक, ५- रत्नकांड उपासकाध्ययन, ६- जीवसिद्धि, ७ तत्वानुशासन, ८- प्रकृत व्याकरण, ९ प्रमाणपदार्थ, १०-कर्मप्राभूत टीका और ११ - गन्धः स्तिमहाभाष्य | खेद है कि स्वामी समंतभद्रजीके अंतिम जीवनका ठीक पता नहीं चलता । पट्टावलियोंसे उनका अस्तित्व समय सन् १३८३० प्रगट होता है। मम० श्री नरसिंहाचार्यजीने भी उन्हें ईम्बी दुसरी शताब्दिका विद्वान इस अपेक्षा बताया है कि श्रवणबेळगोळकी मल्लि पेणप्रशसिमें उनका उल्लेख गङ्गराज्य संस्थापक सिंहनंदि भाचार्य से पहले हुआ है, जिनका समय ई० दुमरी शताब्दिका अंतिम भाग है। इसी परसे स्वामी समंतभद्रनीकी जन्म और निषत तिथियोंका अंदाज लगाया जासकता है । इस प्रकार तत्कालीन दक्षिण भारतीय जैन संघ के यह चमकते हुये रन थे। इनके अतिरिक्त श्री पुष्पदन्त, मूनबलि, माघनन्दि बादि नाचार्य भी उल्लेखनीय हैं; परन्तु उनके विषय में कुछ अधिक परिचय प्राप्त नहीं है । 6" स्वामी १- विशेष के लिये श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार " और " वीर " वर्ष ६ का " समन्तभद्दातु " देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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