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________________ पौराणिक काल। [२१ परे रहते थे । 'स्वार्थ' नहीं-'कर्तव्य' उनका मार्गदर्शक था । इसीलिये वह एक आदर्श सम्राट् और महान योगीके रूपमें प्रसिद्ध हुए । _ 'चक्रवर्ती'-पदको सार्थक बनानेके लिये अपने और पराये सब ही शासकोंको एकदफा नतमस्तक बना देना आर्य राजनीतिका तकाज़ा रहा है । सम्राट् भरतको चक्रवर्ती होना था। उन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी जीत ली थी। परन्तु उनके भाई अभी बाकी थे । सम्राट्ने चाहा कि उनके भाई केवल उनकी आन मान लें । पर वे सब स्वाधीन वृत्तिके क्षत्री थे। उन्होंने भाई के स्वार्थ और ऐश्वर्यमदको विवेक नेत्रसे देखा और सोचा-"यह पृथ्वी पिताजीने हमें दी है। हमारे बड़े भाई उसपर अपना अधिकार चाहते हैं। हम इससे मोह क्यों करें ? पिताजी इसे छोड़ गये। चलो, हम भी इसे त्याग दें।" उन्होंने जैसा सोचा वैसा कर दिखाया। वे सब तीर्थकर ऋषभदेवके चरणतलमें जाकर मुनि होगये। भरतके भाइयोंमें बाहुबलि बाकी रहे । भरत महाराजने मंत्रियोंकी सम्मतिको आदर देकर अपना दूत उनके पास मेजा। इतने बहुतसी उतार चढावकी बातें कहीं; परन्तु बाहुबलिपर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ। उन्होंने दुतके द्वारा भरत महाराजको रणागणमें मानेके लिये निमंत्रण भिजवा दिया। सम्राट् भरत पहलेसे ही इस अवसरकी प्रतीक्षामें थे। उन्होंने अपनी चतुरंगणी सेना सजाई और वह लावलश्कर लेकर पोदनपुरके लिये चल दिये । उधर बाहुबलिको सेना भी शस्त्रास्त्रले सुसजित हो रणक्षेत्र भाडटी। दोनों सेनायें मामने-सामने युद्ध के लिए तैयार थीं । दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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