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________________ wwwwwwwwwww भगवान अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [७३ यदि ऋषभदेवको इक्ष्वाकु माना जाय जिनसे नमि विन मिने राज्यकी याचना की थी, तो किश वंशके विकुक्षि और उनके भाई निमि जैन शास्त्रके नमि विनमि अथवा सुकच्छके पुत्र विकच्छ हो सकते हैं। उधर बैबीलनके राजाने बुशदनेजर अपनेको 'सु'जातिका देव (=नरपति) और रेवा नगर के राज्यका स्वामी लिखता ही है, जिसे हम दक्षिण भारतमें अनुमान कर चुके हैं। यह राजा अपने दानपत्रमें यदुराज (कृष्ण) की राजधानी द्वारिकामें आनेका विशेष उल्लेख करता है और वैत पर्वतसे निर्वाण पाये हुए भ० नेमिके सम्मानमें एक मंदिर बनवाकर उन्हें अर्पण करने में गौरव अनुभव करता है। इससे स्पष्ट है कि यदुराजके प्रति उसके हृदयमें सम्मान ही नहीं बल्कि प्रेम था। उसका कथन ऐसा ही भासता है जैसे कि कोई नया भादमी अपने पूर्वजोंकी जन्मभूमिपर पहुंचकर हर्षोद्वार प्रगट करता हो। यादवोंका मथुरा छोड़कर सुराष्ट्रमें आना भी उनको सुजातिसे सम्बंधित प्रगट करता है। क्योंकि आपत्तिके समय अपने ही लोगोंकी याद आती है । मधुरामें जरासिंधुले दुःखी होकर यादव सुराष्ट्र में आये, इसका अर्थ यही है कि उनको सुराष्ट्रवासियोंपर विश्वास था-वे उनके आशा भोमा थे। उनके एक पूर्वज हीसुबीर नामसे प्रसिद्ध हुये ही थे और उधर सुजातिके नृप यदुराजके प्रति प्रेम और विनय प्रगट करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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