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________________ ७४] संक्षिप्त जैन इतिहास। इस सब वर्णनसे यह स्पष्ट है कि यादवोंका सुराष्ट्रवासियोंसे विशेष सम्बन्ध था और मध्य ऐशियाके सु मेरे राजा भी उन्हीं के सजातीय थे। जैन शास्त्रोंमें कहा गया है कि कृष्णका राज्य वैताव्य पर्वतसे समुद्र पर्यन्त विस्तृत था। यह वैताढ्य पर्वत ही विद्याधरोंका भावास और नमिविनमि के राज्याधिकारमें था। इससे स्पष्ट है कि कृष्णके साम्राज्यमें मध्य-ऐशिया भी गर्भित था। प्राचीन भारतका आकार उतना संकुचित नहीं था, जैसा कि वह आज है । उसमें मध्य ऐशिया आदि देश सम्मिलित थे। सिन्धु और सुमेर सभ्यताओंके वर्णनसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि एक समय मध्यऐशिया तक एक ही जातिके लोगोंका भावास-प्रवास था। पूर्वोल्लिखित दानपत्रमें सुमेरनृप नेवुशदनेजर अपनेको रेवानगरका स्वामी लिखता है जो दक्षिण भारतमें रेवा (नर्मदा ) तटपर होना चाहिये । इससे प्रगट है कि नर्मदासे लेकर मेसोपोटेमिया तक उसका राज्य विस्तृत था। एक गज्य होने के कारण वहांके लोगोंमें परस्पर व्यापारिक व्यवहार और आदान-प्रदान होता था । यही कारण है कि भारतीय सभ्यता जैसी ही सभ्यता और सिके एवं वैलीप मध्यऐशियाके लोगोंमें भी तब प्रचलित थी। एक विद्वानका कथन है कि इन सु-जातिके लोगोंके धर्ममे से जैनधर्म उत्पन्न हुमा और गुजरात तथा सुराष्ट्रके जैन वणिक इन्हीं १-ज्ञातृधर्मकथाङ्गसूत्र (हैदराबाद) पृ. २२९ व हरि० पृष्ठ ४८१-४८२। २-"सरस्वती" भाग ३८ अंक १ पृष्ठ २३-२४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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