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________________ ५. मायकन। स्वसे भी इन्हीं चार वर्णों का पता चलता है और इनके जीवननिर्वाहके लिये ठीक वही भाजीविकाके छह उपाय बताये गये हैं जो उत्तर भारतमें मिलते हैं।' जैन शास्त्रोंमें उत्तर और दक्षिण भारतके मनुष्योंमें कोई भेद नजर नहीं पड़ता । इससे मालूम होता है कि उनमें उस समयका वर्णन है, जब कि सारे भारतमें एक ही सभ्यता और संस्कृति थी। उस समय वैदिक मार्योका उनको पता नहीं था। प्राचीन शोध भी हमें इसी दिशाकी ओर लेजाती है। हरप्पा और मोहनजोदरोकी ईस्वीसे पांचहजार वर्षों पहलेकी सभ्यता और संस्कृति वैदिक धर्मानुयायी आर्योकी नहीं थी, ययपि उसका सादृश्य और साम्ब द्राविड़ सभ्यता और संस्कृतिसे था, यह माज विद्वानोंके निकट एक मान्य विषय है। साथ ही यह भी प्रकट है कि एक समय द्राविड़ सभ्यता उत्तर भारत तक विस्तृत थी। सारांशतः यह कहा जासक्ता है कि वैदिक मार्योंके पहले सारे भारतवर्षमें एक ही सभ्यता और संस्कृतिको माननेवाले लोग रहते थे। यही वजह है कि जैनशाम्रोंमें. उत्तर और दक्षिणके भारतीयोंमें कोई भेद दृष्टि नहीं पड़ता ! १-'थोलकाप्पियम्' जैसे प्राचीन ग्रंथसे यही प्रगट है। वोके नाम (१) बरसर अर्थात् क्षत्री, (२) मनयेनर अर्थात् ब्राह्मण, (३) वणिकर, (४) बिल्लालर (कृषक) क्षत्रीवर्ण जैन प्रन्योंकी भांति पहले बिना गया है। २-मास्शल, मोद. भा. १ पृ. १.९-११.१ * * comparison of the lndus and Vodio Culture shows in contostably that they were unrelated." (p. 110), Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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