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________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास। शौर्यपुरमें राजा समुद्रविजय रहते थे। उनकी रानीका नाम शिवादेवी था। उन्होंने कार्तिक कृष्ण तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि । द्वादशीको अन्तिम रात्रिने सुन्दर सोलह स्वप्न देखे; जिनके अर्थ सुननेसे उनको विदित हुआ कि उनके बावीसवें तीर्थङ्कर जन्म लेंगे। दम्पति यह बानकर अत्यन्त हर्षित हुवे । आखिर श्रावण शुक्ला पंचमीको शुभ मुहूर्तमें सती शिवादेवीने एक सुंदर और प्रतापी पुत्र प्रसव किया। देवों और मनुष्योंने उसके सन्मानमें आनन्दोत्सव मनाया । उनका नाम मरिष्टनेमि रक्खा गया। अरिष्टनेमि युवावस्थाको पहुंचते-पहुंचते एक अनुपम वीर प्रमाणित हुये। मगधके राजा जरासिंघुसे यादवोंकी हमेशा कड़ाई ठनी रहती थी। अरिष्टनेमिने अपने भुज विकमका परिचय इन संग्रामोंमें दिया था। जरासिंधुके आये दिन होते हुये अाक्रमोंसे तंग आकर यादवोंने निश्चय किया कि वे अपने चचेरे भाई सुवीरकी नाई मुराष्ट्रमें जा रमे । उन्होंने किया भी ऐसा ही। सब यादवगण मुराष्ट्रको चले गये गये जऔर वहां समुद्रतटपर द्वारिका बसाकर राज्य करने लगे। इस प्रसंगमें सु-राष्ट्रके विषयमें किंचित् लिखना अनुपयुक्त नहीं है। मालूम ऐसा होता है कि सु-राष्ट्रका परिचय । यादवोंका सम्बन्ध सु-जातिके लोगोंसे था; जिन्हें सु-मेर कहा जाता है और जो मध्य ऐशियामें फैले हुये थे । किन्तु मूलमें वे भारतवर्षके ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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