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________________ समित न इतिहास । जैनोंमें विशेष रूढ़ है। एकसे अधिक जैन तीर्थकरों और शासन देवताओंसे उसका सम्बन्ध है। हां, गरुड़का चिह्न जैनोंमें उतना प्रचलित नहीं है । जैनोंके सब ही तीर्थङ्कर क्षत्री थे और उनकी शिक्षा प्रत्येक मनुष्यको क्षात्र धर्मका अनुयायी बना देती है। बैनियोंका माध्यात्मिक क्षात्रधर्म अनूठा है। ब्राह्मणों और बौद्धोंने जैनियोंको ज्योतिष विद्या निष्णात लिखा है और प्राचीन भारतमें जैन मान्यतानुसार ही कालगणना प्रचलित थी। इन विधर्मियोंने जैन तीर्थकरोंकी बाह्य विभूति देखकर उन्हें इन्द्रजालिया (जादुगर ) आदि कहा है। इस प्रकार असूर लोगोंकी खास विशेषतायें जैनोंमें मिलती हैं। उसपर उपरान्त मसूर लोगोंद्वारा मर्थवेदकी मान्यताका उल्लेख है, निसे ऋषि अङ्गरिसने रचा था। यह ऋषि अनरिस स्वयं एक समय जैन मुनि थे। इस साक्षीसे भी असुरोंका जैनधर्मसे सम्बंधित होना प्रगट है। अन्ततः वैदिक पुराण ग्रन्थोंके निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि असुर भी एक समय जैनधर्मानुयायी थे: (१) 'विष्णुपुराण' (म० १७-१८) में एक कथा है जिसका संक्षेप इसप्रकार है कि एक समय देवता और मसुरोंमें १. पञ्चतंत्र (१।१) प्रबोध चन्द्रोदय नाटक, न्यायविन्दु म. ३ भादि० । न्यायबिन्दु में लिखा है: “ यथाः सर्वज्ञ भाप्तो वा स ज्योतिर्बानादिकमुपदिष्टवान् । यथा ऋषभवर्धमानादिरिति । " २. बळवेखनीका भारत वर्ष देखो-उसने कालगणनामें अब. सर्पिणीका उल्लेख किया है। ३. बृहतस्वयंभूस्तोत्रादि । ४. "दिजै"-विशेषांक.... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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