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________________ १९४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | पाण्ड्य इन द्रविड़ राज्यों का युधिष्ठरादि पाण्डवोंसे गहरा सम्बन्ध था। विदित होता है कि जिस समय पल्लवदेश में विराजमान भगवान् मरि'नेमके निकट पाण्डवोंने जिनदीक्षा ली थी, उसी समय इन द्रविड़ राजाओंने भी मुनिव्रत धारण किया था । पाण्डवों के साथ तप तपकर वह भी शत्रुंजयगिरिसे मुक्त हुये थे। भगवान् अरिष्टनेमि तीर्थने ही कामदेव नागकुमार हुये थे । नागकुमारका मित्र मथुराका राजकुमार महाव्याल था । यह महाव्याक पांड्यदेश गया था और पाण्ड्य राजकुमारीको व्याह लाया था। इसके पश्चात् भ० पार्श्वनाथके तीर्थकालमें करकण्डु राजा हुये थे, जिन्होंने चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओंको युद्धमें परास्त किया था । करकण्डुको यह जानकर हार्दिक दुःख हुआ था कि वे राजा नी थे। उन्होंने उनसे क्षमा चाही और उनका राज्य उन्हें देना चाहा; परन्तु वे अपने पुत्रोंको राज्याधिकारी बनाकर स्वयं जैन मुनि होगये थे। इन उल्लेखोंसे चेर, चोल, पाण्ड्य राज्योंका प्राचीन अस्तित्व ही नहीं बल्कि उनके राजाओंका जैनधर्मानुयायी होना भी स्पष्ट है। दक्षिण भारत में अन्तर पर्वत, ऐवर मले, तिरुमूर्ति पर्वत इत्यादि १- पंडुसुमा तिथिगण्णा दविड रिंदाण अट्ठकोडियो । सेतुजय गिरिसिइरे णिवाणगया णमो तेसि ||" २ - गंभीर विहिणि गाउदा हिणमडुरा हिड पंडिराउ - णायकुमारचरित ८/२ ३०च० पृष्ठ ७९-८० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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