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________________ १५२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | सानन्द भवनी जठगमि शान्त की और मंदिर के बाहर मा राजाको अशीर्वाद दिया। राजा प्रसन्न हुआ और प्रतिदिन सवा मनका प्रसाद शिवार्पण के लिये भेजने लगा। समन्तभद्रजी उसके द्वारा अग्नी व्याधिको शमन करने रहे; किन्तु जब व्याधिका जोर कम हुआ तो उम प्रपादमें मे कुछ बचने लगा | उपर कुछ लोग उनके विरुद्ध हो रहे थे उन्होंने पता लगाकर राज से शिकायत कर दी कि महाराज, यह साधु शिवजीको कुछ भी प्रसाद अर्पण नहीं करता, बल्कि सब कुछ स्वयं स्वा जाता है और शिव पर पैर पसार कर सोता है। राजाके बिस्मय और रोषका ठिकाना न रहा । उसने शिवालय माकर समेत मद्रजीसे यह आग्रह किया कि वह प्रसाद शिवजीको उनके सामने खिला दें और शिवलिङ्गको प्रणाम भी करें। 1 समंत जीके लिये यह परीक्षाका समय था; क्योंकि उन्होंने आपत्तिकाल में बैष्णवस धुक भेष अवश्य धारण किया था परन्तु हृदय में यह हड़ सम्यक्त्तवी थे । उनके रोम-रोम में जैनत्व समाया हुआ था आखि' उन्होंने दृढतापूर्वक राजाकी बाज्ञाको शिरोधार्य किया । घारूपमें उन्होंने 'स्वयंभू'तो' को रचना और उच्चारण करना आरम्भ किया। जिस समय वह चंद्रप्रभ भगवानका स्तोत्र पढ़ रहे थे, उसी समय शिवलिङ्गमेंसे चन्द्रप्रमकी मूर्ति प्रगट हुई। इस अद्भुत मटनाको देखकर सब ही लोग आश्चर्यचकित होगये । गजा शिवकोटि - अपने छोटे भाई शिवायन सहित उनके चरणोंमें गिर पड़ा और जैनधर्म में दीक्षित हुआ। उसके साथ उसकी प्रजाका बहुभाग भी बैनी होगया था । जब समंतभद्रजीका रोग शांत होगया था। उन्होंने अपने जीके पास जाकर प्रायश्वितपूर्वक पुनः दीक्षा ग्रहण की गौर वह धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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