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भगवान् पार्श्वनाथ । " पार्श्वभट्टारक श्रम न् पादन्या विहारतः। सर्वान् सौराष्ट्र लोकांश्च पवित्रान् चिद्धेभृशं ॥ ८२ ॥ अंगे वंगे कलिंगेऽथ कर्णाटे कोकणे तथा। . मेदपादं तथा लाटे लिंतिगे द्राविड़े तथा ॥ ८३ ।। काश्मीरे मगधे कच्छे विमें च दशाणके । पंचाले पल्लो वत्से परमभीर मनोहरे ॥ ८४ ॥ इत्यार्यखण्डदेशेषु क्रोणात्स महाधनी । दर्शनज्ञान चारित्रात्मान्मेवोतयान्यलं ॥ ८५ ॥ १५ ॥
भावार्थ-तत्वभेदको प्रदान करने के लिये महान् प्रभू श्री पार्श्व भगवानने कौशल देशके कुशक पुरुषों में विहार किया और अपनी दिव्यध्वनिरूप प्रदीपसे ग द मिथ्यातमकी धज्जियां उड़ा दीं। फिर संयममें तत्पर काशी देशके मनुष्योंमें धर्मचक्रका प्रभाव फैलाया। श्री माळवदेशके निवासी भव्यलोकरूप चातकोंने भी तीर्थराट्के धर्मामृत का पान किया था । अवंती देश जो मिथ्यानलसे तप्त था, सो पार्श्वरूपी चन्द्र के अमृतको पाकर शांत होगया था। गौर्जर देशमें भी मितेन्द्रिय शर्श्व सम्र के सद्वचनोंके प्रभावसे मिथ्यात्व बिल्कुल जर्जरित होगया था। महाराष्ट्र देशवासियोंमें अनेकोंने पार्श्व भगवानसे दीक्षा ग्रहण की थी। सर्व सौराष्ट्र देशमें भी पार्थ भट्टारकका विहार हुआ था. जिससे वहांके लोग पवित्र होगए थे। अंग, बंग, कलिंग, कर्नाटक, कोंकण, मेदपाद, लाट, द्राविड़, काश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, शाक, पंचाल, पल्लव, वत्स इत्यादि आर्यखंडके देशोंमें भी भगवान्के उपदेशसे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नोंकी अभिवृद्धि हुई थी।
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