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________________ ११६] संलित जैन इनिहास। पहनना भी भारम्भ कर दिया । किन्तु जब प्राचीन मववाह संबके नम साधुगण उत्तम्मे भाये तो भाप में संघर्ष उपस्थित हुमा। समझौते के प्रयत्न हुये परन्तु समझौता न हुआ। दुष्कालमें शिका. चारको प्राप्त हुये साधुणोंने अपनी मान्यताओंका पोषण करना प्रार. म्भ कर दिया। शुरू में उन्होंने एक खंडवस्त्र ती मज्जा निवारण लिये धारण किया-वैसे बह रहे प्राचीन नमवेपमें ही। मथुगके पुगतत्वमें कह नामक एक मुनि अपने हाथपर एक खण्डबल स्टकाये हुये नम भेषको छुप ते एक मायागपट में दर्शन गये है। धीरे धरे जैसे समय बढ़ता गया यह मतभेद और मी सरोगया गौर आखिर इस्वी पहली शताब्दिमें जैन संघमें दिगम्बर बोर श्वेताम्बर मेद विस्कुल स्पष्ट होगये.' यही कारण है कि दक्षिण भारतके प्राचीन साहित्य और पुगतत्व में हमें श्वापर संपदायका बल्लेख नहीं मिलता है। कहा जाता है कि मौर्य नटू सम्पतिने दक्षिण भारतमें जैनधर्म का प्रचार कराया था; पान्तु यह नहीं कहा आसक्का कि उस धर्मका रूप क्या था ? हमारे ख्यालसे यह वही होना चाहिये मो उपरोक्त तामिल काव्य चित्रित किया गया है। यदि वह धर्म तामिल काव्योंमे बनिन धर्मसे भिन्न था, तो कहना होगा कि सम्पति द्वारा भेजे गये धो देशकोंको दक्षिणमें सफलता नहीं मिली थी। श्वेताम्बरीय शास्त्रोंसे पगट है कि काकाचार्य पठनके राजाके गुरु थे जिसका अर्थ यह होता है कि वह मान देशतक पहुंचे १-जैस्तु पृष्ठ २४-पंट नं. १७ । २-संह, भा॰ २खंड २ पृ. ७५-७८। . - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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