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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । देना निश्चित किया । अरिष्टनेमि दूरहा बने-बारातके बाजा बजे और ध्वजा निशान उड़े। परन्तु अरिष्टनेमिका विवाह नहीं हुआ। उन्होंने किन्हीं पशुओंको भूखप्याससे छटपटाते हुये बाड़ेमें बन्द देखा । इस करुण दृश्यने उनके हृदयको गहरी चोट पहुँचाई । उनका कोमल हृदय इस भदयाको सहन न कर सका। 'पशुओंको उन्होंने बन्धन मुक्त किया; परन्तु इतनेसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने सोचा संसारके सब ही प्राणी प्रारब्ध और यमदुतके चुंगल में फंसे हुये शरीरबन्धनमें पड़े हुये हैं-वह स्वयं भी तो स्वाधीन नहीं है ! क्यों न पूर्ण स्वाधीन बना जाय ? यही सोचसमझकर मरिष्टनेमिने वस्त्राभूषणोंको उतार फेंका। पालकीसे उतर कर वह सीधे रैवतक ( गिरनार ) पर्वतकी ओर चल दिये । वहां उन्होंने श्रावण शुक्ला षष्टीको दिगम्बर मुद्रा धारण करके तपस्या करना आरम्मकी ' घोर तपश्चरणका सुफल केवलज्ञान उन्हें नसीब हुआ। गिरिनार पर्वतके पास सहस्राम्रवनमें ध्यान माड़कर उन्होंने धातिया कर्मों का नाश अश्विन कृष्णा अमावस्याके शुभ दिन किया । अब अरिष्टनेमि साक्षात् सर्वज्ञ तीर्थकर होगये । देव और मनुष्योंने हें मस्तक नमाया और उनका धर्मो देश चावसे सुना। खमा वादा उनका प्रमुख शिष्य हुआ । कुमारी राजुल भी साध्वी झेकर शामिकाओंमें अग्रणी हुई। १-हरि०, पृष्ठ ४१३-६०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035245
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1937
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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