Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 168
________________ दक्षिण पातमा जैन मंघ। ५१ किया है।' श्री शु.चंदाचार्यजीन उन्ह · भरतभूषण' कहा है। श्री समंदा व र्यजी गृहस्थ जीवन के विषय में कहा जाता है कि बहुतकरके उन्होंने दक्षिण भारतके कमवंशको अपने जन्मसे सुशोमित किया था। यह विदित नहीं कि उनके पिता और माताके नाम क्या थे; परंतु यह ज्ञात है कि उनके पिता फणिमण्डगंतर्गत उरंगपुर के क्षत्री नृा थे ! स्वामी समंतभद्रका बाल्यकाल जैनधर्म केंद्र स्थान हप उगपु में व्यतीत हुआ था। उस समय वह शांतिवकि नामसे पख्य त् थे। उनोंने गृयश्र में प्रवेश किया या नहीं यह प्रगट नहीं, किन्तु यह स्पष्ट है कि वह बाल्यकालसे ही जैनधर्म और जिनेन्द्र देव के अनन्य भक्त थे । उन्होंने अाने आपको धर्मार्थ आण कर दिया था। कांचीपुर या उसके सनिकट की उन्होंने बिनदीक्षा प्ररण की थी और वही (कांजीम् ) उनके धर्मकार्यों का वेन्द्र था। "राजावली थे' में उनका वहां भनेक बार पहुंचना लिखा है। उन्होंने स्वयं कहा है कि "मैं कांचीका नम माधु इं" (कांच्या नमाटोsi ) पान्तु उनके गुरुकुलका परिचय प्रा नहीं है । यह स्पष्ट है कि वह मूलसंत्र प्रधान भानार्य थे। अभाग्यवश उनको अपने साधु भीवनमें स्माधि' नामक दुस्सह रोग होगया था। वह मनों भोजन खाजाने थे, मगर तृप्ति नहीं रोती थी। इस व्याधिको शमन करने के लिए उन्होंने एक वैष्णव सन्यासीका भेष धारण कर लिया गा। कांचीये उस समय शिवकोटि नामक गजा राज्य करता था मौर उसका 'भीमलि' नामक शिमलय था। समन्तभद्रजी इसी शिवालय पहुंचे और उन्होंने राजाको अपना श्रद्धाल बना लिया। सबा मनका प्रसाद शिवार्पणके लिये पाया। समन्तभदबीने से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172 173 174