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नन्द मार माय सम्राट् । [१५ लेखादिसे सम्राट चन्द्रगुप्तका मुनि होकर श्रुतकेवली भदवाहुजीके साथ दक्षिणभारतमें आना स्पष्ट है।
इन मुतियोंके भागमनके कारण वहां पहलेसे प्रचलित जैन धर्मको विशेष प्रोत्साहन मिला प्रतीत होता है। किन्तु इसी समय उत्तरभारतमें मभाग्यवश जैन संघ मतभेदका शिकार बन गया था; जिसके परिणामस्वरूप उसका एकधारारूप प्रवाह इधर उधर वह चला था। श्वेताम्बर संप्रदायके पूर्वरूपमें 'अर्द्धकालक' मान्यतावालोंका जन्म इसी समय होगया था और उपरांत वही विकसित होकर ईस्वी प्रथम शताब्दिमें स्पष्टतः श्वेताम्बर संप्रदायके नामसे प्रख्यात् होगया था। मूल जैन संघके अनुयायी निथ कालांतरमें 'दिगंबर' नामसे प्रसिद्ध होगये थे। यह सब बातें हम पहले ही लिख चुके हैं।' सम्राट् चन्द्रगुप्तके प्रसिद्ध मंत्री चाणक्यके विषयमें भी कहा
जाता है कि वह जैन धर्मानुयायी थे चाणक्य। और अपने अन्तिम जीवनमें वह जैन
साधु हो गये थे । आखिर वह आचार्य हुये थे और अपने पांचसौ शिष्यों सहित देश-विदेशमें विहार करके वह दक्षिण भारतके वनवास नामक देशमें स्थित कौंचपुरमें आ बिराजे ये । वहीं उन्होंने प्रायोपगमन सन्यास लिया था। एक जनश्रुति चाणक्यको 'शुक्कतीर्थ में एकान्तवास करते बताती हैं । संभव है कि यह 'शुक्रतीर्थ जैनोंका बल्गोल या 'धवलसर' तीर्थ
१-सहि मार्ग २ खण्ड १ पृष्ठं २०३-२१७ ।
२-पूर्व पुस्तक पृष्ठ २३९-२४२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com