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दक्षिण भारतका जन-संय। सत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होनाती हैं। हरे चनेको और चीन के साथ मिलाकर मिठ ई बनाली गई परन्तु चनेका स्वभाव यहां नष्ट नहीं हुमा, यद्यपि उसका रूप बदल गया ! धर्मदव्य हर ठौर है और वह प्रत्येक वस्तुको व्यवस्थित रीतिमे हमेशा चलाने में कारण है। इसी सरह अधर्मद्रव्य प्रत्येक पदार्थको स्थिर रखने में कारण है और सर्व विनाशको रोकता है। काल क्षणी और साम्रोम भी है। आकाश मन पदार्थों को स्थान देता है । जीव एक शरीरमें प्रवेश करके पांच इन्द्रियों द्वारा चखता, संवता, छूना, सुनता और देखता है। एक मणु शरीरूप अथवा अन्यरूप ( अनेक परम णुओंस मिलकर) हो माता है। पुण्य और पापमई को श्रोतको रोकना, संचित कोका परिणाम भुगता देना और सर्व बन्धनों मुक्त होजाना मेक्षा है।" चैनसिद्धांउका यह रूप ठीक वैसा ही है जैसा कि भाज वह मिल
मच्छा तो, यहां के विवेचन मे यह स्पष्ट है कि दक्षिण मार
तमें दिगम्बर जैनधर्म ही प्राचीनकालसे वेताम्पर जैनी। प्रचलित था और उसकी मान्यता भी
जनसमुदायमें विशेष थी। किन्तु प्रश्न यह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके जेनी दक्षिण भारतमें कब पहुंचे। इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये जैन संघके इन दोनों सम्पदायोंका
उत्पत्तिकाल हमें स्मरण रखना चाहिए। यह सर्वमान्य है कि मैनसंपये • मेदकी जड़ मौर्यकालमें ही पड़ गई थी। उत्तरभारतमें रहे हुये संपमें
शिक्गिचार प्रवेश कर गया था मौर उस संपके साधुनोने
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