Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 155
________________ ८. संक्षिाजन इतिहासः। गर्भायोगको समाप्त करके तथा जिनकालित को देख कर पुगताचार्य बनवास देशको चले गये और मृतबलिनी द्रामिल (द्राविड़) देशको प्रस्थान कर गये । इसके बाद पुष्पदंताचार्य ने जिनपालिनकोदी का देकर, वीस सूत्रों (विंशति परूरणात्मक सत्रों) की रचना कर और वे सूत्र जिनपालितको पढ़ाकर उसे भगवान भूतब लिके पास भेजा। उन्होंने जिनपालितार उन वीस सूत्रों को देखा और उसे अल्पायु बानकर श्रतक्षाक भावसे उन्होंने 'षट् खण्डागम' नामक ग्रंथकी रचना की।' हा समय श्री भूतबलि आचार्य संभवतः दक्षिण मदुरामें विराजमान थे।' ' इस तरह इस षट्कण्डागमश्रुनके मूल मंत्रकार भी बर्द्धमान महावीर, अनुतंत्रकार गौतमस्वामी और उपतंत्रकार भूतबलि-पुष्पदन्तादि भाचार्यों को समझना चाहिये ।' उन्होंने दक्षिण भारत के प्रधान नगरोंमें रहकर अतज्ञानकी रक्षा की थी । दक्षिणमे ही श्री गुणधराचार्यने ' कसाय पाहुड' नामक ग्रन्थमहार्णवका सार खींच कर प्रवचन वात्सल्यका परिचय दिया गा। ये सूत्रगाथायें भाचार्य-परम्परासे चलकर मार्यमंक्षु और नागइस्ती नामके भाचार्यों को प्राप्त हुई थी और उन दोनों आचायोसे उन गाथाओं का भले प्रकार भर्थ मनकर यतिषमाचार्यने उन पर पूर्णिसूत्रों की रचना की, जिनकी संख्या छह हजार श्लोक-परिमाण है। उपरोक्त दोनों सत्रग्रन्थों को लेकर ही उन पर 'धवला' और · जयपवला ' नामक टोकायें रची गई थीं। इसपकार दक्षिण मार. , -सिमा०, ३ किरण ४ पृष्ठ १२५-१२८ । २-तावतार कपा, पष्ठ २० व संजैइ. भा० २ खंड २ पृष्ठ ०२। २-सिमा, मा. ३ किरण १ पृष्ठ १३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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