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दक्षिण भारतका जैन-संघ। [१३३ सादृश्य रहती थीं और जैनोंकी पूजाप्रणाली भी अति सरल थी ! द्राविड़ोंने उसको सहज में ही अपना लिया था : जैनों की चरण-. चिह पूजा भौर निषधि स्थापन प्रथाका भी उन लोगोंगर असर पड़ा था: परिणाम स्वरूप इस प्राचीन कालमें जैनी उपरान्त ई० छडी सातवीं शताब्दिसे कहीं ज्यादा सम्मान्य और प्रतिष्ठित थे।
तामिक महाकाव्योंसे तत्कालीन जैन संघकी क्रियायों का ठीक
परिचय मिलता है । उनसे प्रगट है कि जैन संघकी रूपरेखा। निग्रन्थ आधुगण प्रमों और नगरोंक
बाहर पल्लियों या विहारों में रहते थे, जो शीतल छायासे युक्त भौर लाल रंगसे पुनी हुई ऊंची दीगलोंसे येष्टित थे। उनके मागे छोटे-छोटे बगीचे भी होते थे। उनके मंदिर तिगहो और चौराहों पर बने होते थे। उनके भग्ने प्लेट कार्म बने हुये थे जिन परसे यह धमोग्देश दिया करते थे। उन विहारों के साथ साथ हो ायिकाओं के विश्राम भी हुआ करते थे। जिनसे प्रगट है कि तामिल ली यमाजया जैनी भायिकामों। काफी प्रभाव था। चोलोंकी राजधानी कावेरीमपट्टिनम्, तथा कावेरी तटप स्थित जग्यु में उल्लेखनीय बस्तियां और विहार ये। मदुरा जैन संघका केन्द्र था। वहां सनिकट गुफाओं जैन
.. १-साईन पृ० ४८-४९; जैसाई पृ० १२८.... *-उपाध्यायोंके शिक्षाश्रमों और नायिकाओं के विश्रामोंका उल्लेख शास्त्रोंमें भी है। (उपु• कच०) २-माइं०, मा• १ पृ. ४७ ।
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