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दक्षिण भारतका जैन संघ ।
( १३१ महाबीर से भी प्राचीन जैन संघ के साधु नम - यथाजातरूपमें रहते थे- वह अनौदेशिक भोजन दिनमें एकवार करते थे - निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे--जनोपकार में तल्लीन रहते थे। बस्ती मे बहुत दूर एकांतवास करते थे । ' श्रावक और विकायें उनकी भक्ति वंदना करते थे उनमें प्रमुख महापुरुषोंकी वे मूर्तियां और निःपधिकार्ये
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बनाकर उनकी भी पूजा किया करते थे
ती श्रावक श्वेत बस्त्र पहना करते थे। संघकी यह रूपरेखा थी ।
दक्षिण भारतीय जैन संघ ।
दक्षिण भारतमें यदि तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा ही जैनधर्मका
प्रचार होगया था । यह पहले लिखा जा चुका है। और चूंकि ऋषभदेव स्वयं दिगम्बर भेषमें रहे थे, इसलिये दक्षिण
भारतीय जैन संघ के साधुगण भी उन्हीं की
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तरह न भेषमें विचरते थे। दक्षिण भारतकी प्राचीन मूर्तियोंसे यही प्रगट है कि उस समय के जैन साधुगण नम रहते थे । वे साधुगण अपने प्राचीन नाम 'श्रमण' से प्रसिद्ध थे और जैन संघ ' निर्ग्रन्थसंघ' कहलाता था । * तामिलके प्राचीन काव्योंसे स्पष्ट है कि उनके रचनाकालमें दिगम्बर जैन धर्म ही दक्षिण भारत में प्रचलित था । विद्वानोंका मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्ध्यके गुरु श्रुतकेवली भद्र१- भमबु० पृ० ६१-६५ । २ - भमबु० पृ० ६०-६१ । ३ - ममे जैस्मा० पृष्ठ १५, ४१, १२, ६१, ६९, ७४ व १०७; कच० भूमिका व चित्र देखो। ४ - साईजे पृ० ४७ व जैसाई० पृ० ४० ।
। म० महावीर के संत्रके साधारणतः प्राचीन जैन
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