Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 146
________________ दक्षिण भारतका जैन-संघ। जैनियों में संक-परम्परा मति पाचीन है। बेन साम्रोंसे पता चलता है कि मावि तीर्थकर ऋषजैन-संघकी प्राचीनता भदेवके समयमें ही उसका जन्म और होगया था । ऋषभदेव संघमें मुनि, उसका स्वरूप। मार्यिका. श्रावक और प्राविका, संमिलित थे। वह संघ विमित गणोंमें विभाजित था, यह बात इससे प्रमाणित है कि शास्त्रोंमें ऋष. भदेवके कई गणघरोंका उल्लेख है' परन्तु उन गणोंमें परस्पर कोई मार्मिक भेद नहीं था। उनका पृथक् मस्तित्व केवल संघ व्यवस्थाकी सुविधाके लिये था। जैन-संघकी यह व्यवस्था, मालम होता है भगवान महावीरके समय तक अक्षुण्ण रूपसे चली माई थी, क्योंकि जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे यह प्रगट है कि भगवान महावीरका अपना १-ऋषमदेवके ८४ गणधरोंका अस्तित्व सभी जनी मानते हैं। देखो जैएं०, मा० २ पृ. ८१।२-सू०................ भम० पृष्ठ ११३-१२१। ३-बौद्धप्रन्थ 'दीधनिकाय' में म. महावीरके विषयमें एक उल्लेख निम्नप्रकार है: "मयम् देव निगंठो नातपुचो संघो चेव गणी च गणाचार्यों च ज्ञातो यसस्सी, तित्थकरो साधु सम्मतो बहुजनस्स रत्तस्स चिरपध्वजितो भद्धगतो वयोअनुपत्ता ॥" (भा० १ पृ०४८-४९)। इस उल्लेख में निथ ज्ञातपुत्र (भ. महावीर ) को संघका नेता भौर गणाचार्य लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि भ० महावीरका संघ था और उसमें गण भी थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174