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संक्षिप्त जैन इतिहास |
पाण्ड्य राजके समय में अर्थात् ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दिमें पाण्ड्य देशमें पानीका सीलाव भाया
पाण्ड्य विजय । था, जिसमें कुमारी और पहरू लि नामक नदियोंका मध्यवर्ती प्रदेश जल
मन होगया था। अपनी इस क्षतिकी पूर्ति पाण्ड्य राजने चोक-चेर राजाओंके कुन्डुर और मुत्तुर नामक जिलोंपर अधिकार जमाकर की थी । इस विजय के कारण यह पाण्ड्यराज नीलन्तरु तिरुवीर पाण्ड्यन् कहलाये थे । इन्हींके समय में द्वितीय 'संगम् साहित्य परिषद " हुई थी।
पाण्डयवंशकी इस मुळ शाखा के अतिरिक्त दो अन्य शाखाओंका भी पता चलता है । ईस्वी बारुकुरुके पाण्ड्य । प्रथम शताब्दिमें मधुरा पाण्ड्यवंशके एक देव पाण्ड्य नामक राजकुमार तौलव देशान्तर्गत बारुकुरुमें आ बसे थे। और वहीं किसी जैनीकी कन्यासे उनका व्याह हुआ था । कालान्तर में वह बारुकुरुको राजधानी बनाकर शासनाधिकारी हुये थे । इनके उत्तराधिकारी इनके भानजे भूताल पाण्ड्य थे जो कदम्ब सम्राट्के आधीन राज्य करते थे । इसी समय से पाण्ड्य देशमें निज पुत्रके स्थानपर भानजेको उत्तराधिकारी होनेका नियम प्रचलित हुआ था । भूतालके पश्चात् क्रमशः विद्युम्न पाण्ड्य (सन् १४८ ई०), वीर पाण्ड्य (सन् २६२ ई० तक), चित्रवीर्य पाण्ड्य ( सन् २८१ ई०) देववीर पाण्ट्य
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१- साईजे० भा० १ पृष्ठ ३८-३९ ।
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